बीते महीनों गंगा में लाश उपटाने से लेकर श्मशान से लाइव पत्रकारिता होने के बाद एक बार फिर से बहस के केंद्र में, परिधि में और जद में ‘पत्रकारिता’ आ गयी है। हिंदी में भले ही 50 वर्ष तक कवि और पत्रकार युवा रहें, लेकिन डेढ़ दशक से अधिक समय तक पत्रकारिता कर गुजरने के बाद इतना हक तो बनता ही है कि अपने पेशे का एक सिंहावलोकन कर सकूं। ठंडे दिमाग से सोचने के बाद समझ आया कि पत्रकारिता को गालियां तो चौतरफा पड़ ही रही हैं, ज़रा इसकी चुनौतियों पर भी बात की जाए।
हो तो यह रहा है कि पत्रकारिता और चुनौती- ये दो शब्द एक साथ सुनते ही कुछ हुड़कहुल्लू फासीवाद, मोदी, भगवा आतंक, आपातकाल इत्यादि का जाप करने लगते हैं, जैसे उन्हें दौरा पड़ गया हो। जरूरत उन असली चुनौतियों पर बात करने की है जो न्यूजरूम के अंदर और बाहर, किसी मीडिया कंपनी के कारिंदे के तौर पर या स्वतंत्र पत्रकार होने के नाते, युवा तुर्क और अनुभवी धैर्यवान पत्रकारों को झेलना पड़ता है।
आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में हिंदी पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती ‘तकनीक’ की है। हिंदी की पत्रकारिता टीवी के परदे से होते हुए लैपटॉप के जरिये अब स्मार्टफोन तक आ चुकी है। हरेक जगह आज न्यूज-ऐप का बोलबाला है। जब आप स्मार्टफोन के दो से तीन इंच चौड़े स्क्रीन को सामने रखकर यह सोचेंगे कि आप जो भी लिख रहे हैं वह इस पर अच्छा लगना चाहिए, तो जाहिर है आपका नजरिया बदल जाएगा। वरिष्ठतम से लेकर कनिष्ठतम कर्मचारी की चुनौती बस इतनी है कि दस शब्दों में ऐसा कुछ कहना है ताकि आपका दर्शक (स्मार्टफोन पर जब नोटिफिकेशन आता है, तो पहली भूमिका देखने की ही होती है) ही आपके पाठक (यदि आपने उसे तीन सेकेंड तक बांध लिया तो) में बदल जाए। इस चुनौती का सीधा तोड़ हिंदी के पत्रकारों और संस्थानों ने ये निकाला है कि व्याकरण और भाषा का सत्यानाश कर दो क्योंकि जो दूसरा रास्ता है वह क्रिएटिविटी और मेहनत का है जिससे हिंदी पट्टी का तो जन्मजात बैर है।
एक उदाहरण लीजिए। दो बार ‘के’ का प्रयोग न करना पड़े, इसके लिए निम्नांकित वाक्य में आप क्या करेंगे?
“प्रधानमंत्री मोदी के विधानसभा क्षेत्र के बुनकर बेहाल”
अब जो नवतुरिया हिंदी पत्रकार है, जोश से उबलता हुआ, वह सीधा इसे “पीएम के कांस्टीच्युएंसी बुनकर बेहाल” लिख देगा और चला भी देगा। वह इस बात की परवाह ही नहीं करेगा कि भाषा में व्याकरण नाम की चीज भी होती है। यह बहुत छोटा उदाहरण है। जो भी लोग न्यूजरूम में हैं, वे इससे भी भीषण उदाहरण दे सकते हैं। एकाध और उदाहरणों से चुनौती को ठीक से समझें। अब प्रधानमंत्री आप लिखेंगे तो ‘स्पेस’ कितना घेरेंगे, यह देखिए और PM लिखेंगे तो कितना घेरेंगे, यह देखिए। इसी वजह से सांसद हो या भारत का एक राज्य, दोनों के ही लिए MP ही आप लिखेंगे। अगर आपने इस चुनौती को समझ लिया तो आगे की बात करते हैं।
यह बात बेहद आमफहम है कि भारत में तकनीक का जितनी जल्दी और भयंकर व्यापक तरीके से विस्तार हुआ, उसका एक फीसदी भी ज्ञान का प्रसार नहीं हुआ। तकनीक इसीलिए अब बंदर के हाथ का उस्तरा बन चुकी है और हरेक बंदर अपने राजा की ही नाक काटने पर आमादा है। वॉट्सएप हो या टिकटॉक, संप्रेषण के इन अत्याधुनिक और बेहद प्रभावशाली माध्यमों का भारत में क्या हश्र हुआ है, यह किसी से छुपा नहीं है। कहीं सुदूर कस्बों-शहरों-गांवों में लोग रेप करके उसकी वीडियो पोस्ट कर दे रहे हैं तो कहीं मार-पिटाई के खूंरेज़ वीडियो। गांवों तक में 4जी तो पहुंच चुका या पहुंच रहा है, शहरों में 5जी आने वाला है लेकिन उस स्पीड का, उस इंटरनेट का करना क्या है, इसकी शिक्षा, इसका प्रशिक्षण किसी ने नहीं दिया, न ही किसी ने लिया। किसी भी मीडिया संस्थान का टारगेट-ऑडिएंस यही अशिक्षित-कुशिक्षित भीड़ है और इसे लुभाने को चारा फेंक रहे मीडियाकर्मी या तो इनके ही स्तर के हैं या इनसे भी बौड़म हैं।
हिंदी के प्रख्यात लेखक-संपादक मरहूम राजेंद्र यादव ने तकनीक की कमी का आधार बनाकर ‘हंस’ और ‘हँस’ को एक कर दिया था क्योंकि उनके समय में चंद्रबिंदु लगाना बेहद खपाऊ और उलझाऊ काम था। आज लैपटॉप और स्मार्टफोन में चंद्रबिंदु तो उपलब्ध है, लेकिन इस बीच की दो-तीन पीढ़ियों ने जिस तरह से उसके प्रयोग से खुद को मुक्त कर लिया, आज हंस को देखकर शायद ही कोई हँसता है। शायद, यादव जी को भी निराला की तरह यह अंदाजा नहीं रहा होगा- कि ‘मुक्त छंद’ का आंदोलन चलाकर हिंदी कविता का कितना बड़ा नुकसान वह कर रहे हैं- कि चंद्रबिंदु से मुक्ति दरअसल व्याकरण और भाषा से हिंदी की मुक्ति का ही सबब बनेगी।
अब इस चुनौती के दूसरे पक्ष पर आते हैं। तकनीक का मामला तो लगभग सभी भाषाओं के साथ एक जैसा ही है, लेकिन हिंदी के साथ ही ऐसा अत्याचार क्यों हुआ? मुझे बाकी का नहीं पता, लेकिन तकनीक का सहारा लेकर आप गलत अंग्रेजी नहीं लिख पाएंगे। उसके डायरेक्ट-इनडायरेक्ट स्पीच का खयाल आपको रखना होगा, पंक्चुएशन को मानना होगा और ग्रामर का पालन करना होगा। हिंदी में जब नवभारत टाइम्स जैसे अखबारों ने ‘नयी हिंदी’ का नाम लेकर देवनागरी में रोमन ही लिखना शुरू कर दिया, तो कितने आये थे विरोध करने? पूर्णविराम की जगह अंग्रेजी का स्टॉप जब तकनीक के नाम पर इस्तेमाल होने लगा तो कितने ने कहा कि यह गलत हो रहा है? जब प्रश्नवाचक (?) और विस्मयादिबोधक (!) की जगह पूर्णविराम (।) ही सर्वमान्य हो रहा है, तो कितने लोग विरोध कर रहे हैं?
इसके साथ एक और बात भी है। स्कूलों से हिंदी को पूर्णत: तिरस्कृत कर दिया गया है। आप बाज़ार के आंकड़े देते रहें, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के गीत गाते रहें, लेकिन यह भी याद रखिए कि फिल्मों की स्क्रिप्ट रोमन में लिखी जाती है, हिंदी की सामान्य पढ़ाई भी अब नहीं होती है, व्याकरण तो दूर की बात है। जो लड़के-लड़कियां आज पत्रकारिता में आ रहे हैं वे एक ऐसी जड़विहीन पीढ़ी के हैं जिनके पास कोई भी भाषा नहीं है- न हिंदी, न अंग्रेजी, न पंजाबी, न मैथिली, न भोजपुरी, न जर्मन, न रूसी। उनका एक अलग ही ‘लिंगो’ है, जो वॉट्सएप और पर्सनल चैट से उपजा है। अब वही भाषा वे पत्रकारिता में लाने पर आमादा हैं। वह तो अपने अहंकार के बुर्ज पर बैठकर आपकी सही हिंदी को गलत ठहरा चुके, अब निबटना आपको है।
एक सर्वमान्य प्रारूप या व्यवहार के लिए मानक हिंदी का न होना भी एक बड़ा संकट है। दरअसल, यह मामला किसी भी मीडिया कंपनी में काम कर रहे लोगों के हिसाब से तय होता है। जब जिसका जैसा लह जाता है, वह वैसी हिंदी निकाल ले जाता है। हां, नयी पीढ़ी का यह दुस्साहस जरूर मजेदार है कि जितना कम वे जानते हैं, दरअसल वही संपूर्ण है। अज्ञान और मूर्खता को इस आत्मविश्वास के साथ बरतने वाली यह पीढ़ी अनुपम जरूर है। ‘यह भी हो सकता है’, ‘यह भी संभव है’, ‘शायद, मैं ही नहीं जानता हूं’, जैसे वाक्य-समूह ही गायब हैं आज की पीढ़ी से। उनका अज्ञान संपूर्ण है, उनकी मूर्खता नमस्करणीय है, उनका अहंकार संक्रामक है।
हिंदी के एक ढीले-ढाले प्रारूप को अगर आप नहीं तय कर सकते तो इतना तो बिल्कुल तय करें कि प्रयोग के नाम पर क्या अवांछित है, क्या अस्वीकार्य है। जैसे, पूर्णविराम का प्रयोग आप हटा नहीं सकते, जैसे वाच्य का प्रयोग आप नहीं हटा सकते, व्याकरणिक नियमों को आप धता नहीं बता सकते। जैसे, किसी की कही बात आप उद्धरण चिह्न (”) के भीतर ही करेंगे; आप कारकों और विभक्तियों का प्रयोग बंद नहीं कर सकते।
पत्रकारिता की वैचारिक और राजनीतिक चुनौतियों से इतर, भाषा के स्तर पर कम से कम जो अकरणीय है न्यूनतम वही तय हो जाए तो हिंदी पत्रकारिता और भाषा का बहुत भला हो जाए, वरना भाला करने को तो तैयार बैठे ही हैं लोग! साल भर निरंतर चले स्तम्भ ‘दक्षिणावर्त’ की इस आखिरी कड़ी में इसी सदिच्छा के साथ जनपथ के पाठकों से विदा!