बीते दिनों दो महत्व की घटनाएं हुईं। दोनों ही इस देश नहीं, विश्व के सबसे पुरातन धर्म सनातन या हिंदू से संबंधित थीं, इसलिए किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। ये दो घटनाएं पहली नजर में बिल्कुल दो छोर पर अलहदा दिखती हैं, लेकिन दोनों एक-दूसरे से गहरे संबंध रखती हैं।
बीते 19 जून को गुवाहाटी हाइकोर्ट ने एक हिंदू दम्पत्ति (यह याद रखना जरूरी है) के तलाक के केस में दिये एक फैसले में टिप्पणी की:
पत्नी का शाखा-सिंदूर पहनने से मना करना उसे या तो कुंवारी दिखाता है या फिर इसका मतलब है कि उसे शादी मंजूर नहीं है। पत्नी का ऐसा रुख यह साफ करता है कि वह अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।
यह कहते हुए कोर्ट ने तलाक को मंजूरी दे दी।
दूसरी घटना जून के अंत में राजस्थान में हुई, जब वहां की सरकार ने 1960 ईस्वी (तब कौन इस देश में और राजस्थान में गद्दीनशीं थे, यह याद कर लीजिएगा) के एक मुर्दा हो चुके कानून का बहाना लेकर मृत्युभोज पर रोक लगा दी। हिंदू परिवार अपने मृतकों के श्राद्ध के बाद जो तेरहवीं करते हैं, उसमें संबंधियों-गांववालों को बुलाकर जो खिलाते हैं, वह अब नहीं संभव हो सकेगा। ऐसा करने पर एक साल तक की जेल हो सकती है (जाहिर है, इस फैसले में बहाना कोरोना को बनाया गया है)।
ऊपर की दोनों घटनाएं देखने में अलग हैं। एक में कथित हिंदू अंधविश्वास और दकियानूस प्रथा को कसा गया है, हिंदुओं को आधुनिक बनाने की कोशिश की गयी है, तो दूसरे में कोर्ट ने हिंदू धर्म की धारणाओं, प्रतीकों और विश्वासों को दृढ़ माना है, उस पर मुहर लगायी है। दोनों ही मामले दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह इस देश में लगातार हिंदू समाज के प्रतीकों, आस्थाओं, विश्वासों और धार्मिक अन्वयों पर 1947 से जारी चोट दर चोट को जारी रखने का ही एक और मुजाहिरा है, नमूना है। कैसे? आइए, आगे देखते हैं।
गुवाहाटी हाइकोर्ट के फैसले के करीब दस दिन बाद प्रगतिशील महिलाओं के भीतर का समतावादी जागा। तमाम लानत-मलामत के साथ #WithoutSymbolsOfMarriage हैश टैग ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। सारी सबलाएं चूड़ी, सिंदूर, मंगलसूत्र के बिना अपने फोटो पोस्ट करने लगीं और ‘मोर पावर टू यू, बहन, दोस्त, सखी!’ का नारा बुलंद होने लगा। आजकल वैसे भी अधिकतर हिंदू महिलाएं सिंदूर के नाम पर एक मक्खी बराबर निशान बनाकर उसे भी अपने बालों में छुपा लेती हैं। शहरों में चूड़ी मैं अधिकांश को नहीं पहने देखता, मंगलसूत्र भौगोलिक क्षेत्र पर निर्भर करता है और बिछिया, पायल तो खैर दूर की कौड़ी है। आखिर ट्विटर पर हो रहा जन-जागरण किसे संबोधित था? अंधविश्वासों में जकड़ी हिन्दू औरतें ट्विटर पर मिलती हैं क्या? अव्वल तो ये विरोध, ये हैश टैग क्रांति, ‘मिसप्लेस्ड’ थी, लेकिन यहां मेरा विषय यह है ही नहीं।
एक ट्विटर-बालिका ने लिखा कि उसने संविधान को साक्षी मानकर शादी की है। इस देश के कानून और संविधान में ऐसा कुछ नहीं होता है। आपने अगर कोर्ट-मैरिज भी की है, तो भी हिंदू मैरिज कोड आप पर लागू होगा ही। हां, यदि आप इसकी मुहर से भी बचना चाहें तो रास्ता है- पहले खुद को अ-हिंदू घोषित कीजिए, हिंदू धर्म को ‘डिनाउंस’ कीजिए! दिक्कत ये है कि हिन्दू प्रतीकों से मुक्ति का आह्वान करते व्यक्त ज्यादातर विवाहित महिलायें ये भूल जाती हैं कि इन्होंने ‘हिंदू धर्म’ (इसे याद रखें) के विधान से ही शादी की थी, सप्तपदी की थी, अग्नि के समक्ष फेरे लिए थे, मंत्रोच्चारण हुआ था और फिर लौकिक विधान व कर्मकांड के साथ इनकी शादी हुई थी। ये सब न भी किया हो तो बिना कर्मकांड वाली अदालती शादी अपने आप इन्हें हिन्दू मैरिज कोड में बांधती है। गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज़?
ट्विटर पर भी जो ट्रेंड चला, उसमें आप ‘विदाउट हिंदू सिंबल्स’ लिखिए। आपको लिखना चाहिए क्योंकि आप ईसाइयों की तरह फूलों का गुलदस्ता पीछे फेंककर या एक-दूसरे को चूमकर शादी नहीं करते, न ही आप हक-मेहर की रकम लिखवा कर कबूल है, कबूल है, करते हैं। कल को आप कहेंगे कि साहब सप्तपदी बडी थकाऊ चीज है, हम न करेंगे। आप न कीजिए। आप स्वतंत्र हैं, किंतु एक हिंदू यह करेगा या नहीं, यह तय करने वाले आप कौन होते हैं साहब?
राजस्थान का विचित्र फैसला भी देखिए। 1960 में यह कानून किस खुशी या दुख में बना होगा, मुझे नहीं पता किंतु आज इसको जबरन लादना अद्भुत है। सरकार भला यह तय कैसे करेगी कि कोई परिवार या व्यक्ति अपने मृतक जनों का शोक कैसे मनाए? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सरकार यह करेगी ही क्यों? उसका इससे क्या मतलब है? इससे अगर किसी की हत्या हो, लूट हो, बलात्कार हो तो बात समझ में भी आती है, लेकिन अनायास ही यह तुगलकी फरमान लागू करने का औचित्य क्या है?
कोई भी धर्म, मजहब या रिलिजन अपने आप को ‘कोडिफाइ’ करता है। अपनी संहिताओं में बंधा होता है। आदर्श स्थिति तो यह है कि उसके कोड तय करने का काम उसके ही अदीब बुजुर्गों पर छोड़ दिया जाए, लेकिन कई मजहबी या धार्मिक कार्य बेशक ऐसे हैं जिनके आज 2020 में बने रहने का अर्थ मानवता-विरोधी होना है। उनको हटा भी दिया गया है, लेकिन यह कैसा चक्कर है कि सारा धर्म-सुधार हिंदू धर्म के गिर्द ही आकर चक्कर खाने लगता है? शबरीमाला के नक्काल-नालायक हाजी अली पर जाकर माथा टेक देते हैं; घूंघट को खत्म करने वाले हिजाब, नकाब को ‘माइ बॉडी, माइ च्वाइस’ का नाम देते हैं; मृत्युभोज पर भौं टेढ़ी करने वाले हलाला के लिए दो गज आगे बढ़कर तैयार दिखते हैं; होली पर घरों में दुबकने का उपदेश देने वाले बकरीद के दो दिन पहले से ढाई किलोमीटर लंबी जबान चटका कर बधाई-संदेश लिखते हैं?
यह मामला सेकुलर बनाम कम्यूनल का नहीं है। यह खंडित या विकृत आधुनिकता (फ्रैक्चर्ड मॉडर्निटी) का मसला है। आप अगर अब भी इन सवालों से नहीं टकराते हैं, तो यकीन जानिए कि पिछले 70 वर्षों से जारी छद्म-धर्मनिरपेक्षता पर आप अब भी मुलम्मा चढ़ा रहे हैं, भले ही उसका अंदरूनी जिस्म खोखला हो चुका है। आप सचमुच एक धर्मनिरपेक्ष समाज रचना चाहते हैं, तो इन बखेड़ों को तत्काल बंद कीजिए, इनका विरोध कीजिए। अपनी विकृत आधुनिकता को किसी चादर में लपेट कर गंगा में बहा आइए। पहले खुद को जानिए, अपनी मिट्टी को तो जानिए!
तत्त्वमसि श्वेतकेतु!