कोरोना काल ने समाज और दुनिया की अव्यवस्था की पोल खोल दी है. मानसिक स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. बॉलीवुड में सुशांत की आत्महत्या और वाराणसी में होनहार महिला पत्रकार रिज़वाना की आत्महत्या ने समाज के भीतर मौजूद अव्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा किया है.
रिज़वाना की मृत्यु पर वाराणसी के अनेक सामाजिक कार्यकर्त्ता चुप रहे या फिर कुछ रिज़वाना के खिलाफ़ लिखते रहे. खासकर वे जिनका रिज़वाना ने सबसे ज्यादा आन्दोलनों में साथ दिया, वे चुप थे. पुलिस ने तो अपने तरीके से जांच की ही है, किन्तु किसी का दुनिया से असमय चले जाना एक दुखद और सोचने पर मजबूर करने वाली घटना है. संगठन की बात करने वाले चुप थे. संगठन कभी गैंग या कार्टेल नहीं होता है. सुशांत की मृत्यु पर बॉलीवुड में भी खेमेबाज़ी के साथ परिवारवाद, गैंगबाज़ी और कार्टेल पर बहस जारी है.
क्या निजी और सामाजिक के उहापोह में फंस कर रिज़वाना ने ले ली अपनी जान?
जातिवाद और पितृसत्ता वाली अर्ध-सामंती व्यवस्था के साथ नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के गठजोड़ ने फासीवादी मानसिकता के साथ लूट और लोभ की मानसिकता वाली चेतना को पैदा करके उसके मज़बूत होने में भूमिका निभायी है. अमानवीय प्रतियोगिता के साथ धन और नाम की भूख की तीव्रता अपने चरम पर है. इस पृष्ठभूमि में कोरोना संक्रमण के कारण लागू लॉकडाउन ने मानसिक स्वास्थ्य पर एक प्रतिकूल असर डाला है. एक तरफ फरेब, झूठ और लूट की पोल खुली है तो दूसरी तरफ लोगों ने लोगों को सहयोग भी किया है. ये सच है कि गैंगबाज़ी के साथ फ़रेबी लोगों का कार्टेल मजबूत भी हुआ है.
फासीवादी मानसिकता वाली सरकारों ने दुनिया भर में अभिव्यक्ति की जगह चुप्पी की संस्कृति के लिए काम किया है. साथ ही न्याय की जगह अन्याय का साम्राज्य खड़ा करने की कोशिश की है. किन्तु तथाकथित विज़न और मिशन के लिए काम करने वाले कार्टेल और गैंग खेमेबाज़ी में व्यस्त हैं. यह आदत उनकी पुरानी है. जब मेरे ऊपर वाराणसी और दिल्ली की पुलिस ने हमला किया, तब गैंगबाजों और कार्टेल के लोगों ने न केवल अपने लिए चुप्पी को चुना, बल्कि कुछ ने तो पुलिस के किये काम को समर्थन भी दिया. सवाल यह है कि गैंग और कार्टेल कोई आन्दोलन खड़ा कर भी सकते हैं या फिर मानवता की जगह लोभ को खड़ा करेंगे या फिर आन्दोलनों की मृगमरीचिका?
बनारस में मंगला प्रसाद राजभर के ऊपर हुए फर्जी केस में तथाकथित आंदोलनकारियों की चुप्पी और मंगला की मानसिक स्थिति को उनके द्वारा नहीं समझा जाना बताता है कि लोग कैसे फासीवाद को ही मदद कर रहे हैं. मंगला और उसकी पत्नी का दर्द आज भी मैं नहीं भूला हूं, जब मैं मंगला को 5 अप्रैल, 2020 को सुरक्षित जगह के लिए रवाना करने उसके घर गया, तब उसकी पत्नी ने कहा था, “मुसहरों और आखिरी लोगों के लिए जिन्दगी देने वाले के साथ सरकार यही सलूक कर रही है?” मुझे अब भी यह दृश्य बार-बार याद आ जाता है और मेरे दिल में एक टीस सी उठती है.
कभी डर, कभी अपना स्वार्थ, कभी छुपा हुआ राजनैतिक षडयंत्र और कभी ईर्ष्या सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों की एक बड़ी कमी है, जो बुनियादी रूप से से फासीवाद के उन्मूलन के संघर्ष में एक बड़ा रोड़ा बना हुआ है. दूसरी तरफ यही प्रवृत्ति अतिसंवेदनशील लोगों के लिए मानसिक अवसाद का कारण भी बन जाती है.
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हिंसा और संघर्ष प्रभावित इलाक़ों में रह रहे हर पांच व्यक्तियों में से एक मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रभावित क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में और अधिक निवेश किए जाने की अपील की है.
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के मुताबिक देश की 1.30 अरब की आबादी में से नौ करोड़ से ज्यादा लोग किसी न किसी किस्म के मानसिक अवसाद की चपेट में हैं. संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में वर्ष 2020 के आखिर तक 20 फीसदी आबादी के मानसिक बीमारियों की चपेट में आने का अंदेशा जताया था. चिकित्सा क्षेत्र की मशहूर पत्रिका लांसेट साइकियाट्री में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अवसाद और घबराहट की बीमारियों से ग्रसित लोगों की तादाद वर्ष 1990 से 2017 के बीच बढ़ कर दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है.
दिक्कत ये है कि देश में नौ हजार से कुछ ही ज्यादा मनोचिकित्सकों की वजह से हर एक लाख मरीज़ पर महज ऐसा एक डॉक्टर ही उपलब्ध है. इससे परिस्थिति की गंभीरता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
इस मौत में झांकने के लिए एक दरवाज़ा खुला है…
इसीलिए नींद को नियमित रखना, अच्छा खाना और समय पर खाना ज़रूरी है. तनाव तो सभी को होता है लेकिन ऐसा विचार करना कि इसे कैसे कम रखना है और तनाव के राजनैतिक व सामाजिक कारणों पर सोचना व पहल करना, साथ में महत्वाकांक्षा को उतना ही रखना जितना हासिल करना संभव हो, ये भी ज़रूरी है. परिवार और दोस्तों के साथ जुड़े रहना और अपने कार्य में व्यस्त और मस्त रहना भी कुछ उपाय हैं मानसिक अवसाद से बचने के, किन्तु मूल कारण को भी खत्म करने के लिए सामूहिक जन अभियानों की बहुत ज़रूरत है.
ज़रूरी है कि मानसिक अवसाद को कम करने के लिए लोगों द्वारा अपनी बात को रखने की जगह मिले और गरिमा के साथ बहस करने का कोई प्लेटफॉर्म बने, जहां तर्क के साथ पीड़ितों की बात को सक्रिय रूप से सुना जाय. मैंने अपने काम में देखा है कि कई पीड़ित जब अपनी बात रखते हैं, तो एक-दूसरे की कहानी सुनने के बाद उनके भीतर संगठित हिंसा और यातना के कारण लोगों पर होने वाले अत्याचार के राजनीतिक तर्क का विकास होता है, जो बदले में हीलिंग का काम करता है.
अंतिम बात यह है कि अपने भीतर मित्रों के प्रति मित्रतापूर्ण संघर्ष और शत्रुओं (जो अवसाद को पैदा करने के बुनियादी कारण हैं) के खिलाफ शत्रुतापूर्ण संघर्ष को चलाये रखना सबसे ज़रूरी है.
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में टेस्टीमोनियल थेरेपी पर भी काम करते हैं. कवर तस्वीर नॉर्वे के चित्रकार एडवर्ड मंच की 1893 में बनायीं मशहूर कृति “द स्क्रीम” है.
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बेहतरीन मूल्यांकन भैय्या
आपके हर शब्द दिल में अपना घर कर गया
आपके हर लेख समाज में फैले घृणित मानसिकता को बाहर करने में शक्ति मिलता है।
ऐसे ही लेखन हम सबको मिलता रहे। आपके स्वास्थ्य दीर्घायु जीवन की कामना करता हूं।
संजय अजगल्ले