सियोल से 16 मई 2007 को श्रुति जी के साथ बस से जब मैं ग्वांगजू जा रहा था, तब उन्होंने बस में एक सवाल पूछा थाः ग्वांगजू जन-विद्रोह के बारे में जानते हैं? मुझे ज्यादा नहीं पता था। मैंने बस इतना कहा कि सैन्य शासन के खिलाफ लोकतंत्र के लिए वह जनता की एक बग़ावत थी। श्रुति जी ने सब पढ़ रखा था। रास्ते में उन्होंने मुझे बताना शुरू किया।
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति Park Chung-hee की 26 अक्टूबर,1979 को हत्या के बाद लोकतान्त्रिक अभियानों की श्रृंखला शुरू हो गयी थी। पार्क के 18 साल के तानाशाही राज के खात्मे से पैदा हुए निर्वात के बाद उसके उत्तराधिकारी राष्ट्रपति Choi Kyu-hah का सत्ता पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था और सेना प्रमुख Chun Doo-hwan ने सत्ता पर कब्ज़ा कर सैनिक शासन लागू कर दिया।
इसी के खिलाफ़ में ग्वांगजू शहर में 18 मई 1980 से जन-बग़ावत शुरू हो गयी जो 27 मई तक चली।
स्थानीय चोंनम विश्वविद्यालय के छात्र, जिन्होंने सैन्य शासन के विरुद्ध आंदोलन में हिस्सा लिया, तानाशाही सेना ने उनकी हत्या की, उन्हें पीटा और बलात्कार किये। हजारों लोगों की क़ुरबानी के बाद ग्वांगजू सहित दक्षिण कोरिया में जनवादी लोकतंत्र आया। इस जन-बगावत के बाद लोकतंत्र की स्थापना का असर पूरे एशिया में हुआ।
लम्बे समय तक कोरिया के भीतर ग्वांगजू जन-बगावत के समर्थन और नकार में परम्परावादी और प्रगतिशील लोगों के बीच संघर्ष हुआ। वर्ष 1997 में शहीदों के सम्मान में राष्ट्रीय स्मारक, शहीद कब्रिस्तान की स्थापना के साथ 18 मई का आयोजन शुरू हुआ। शहीदों के परिवारों के लोगों ने मिले हुए मुआवजे से May 18 फाउंडेशन की स्थापना की। इस फाउंडेशन ने ग्वांगजू जन-विद्रोह के बारे में बच्चों व नवयुवकों में जागरूकता लाने, पीड़ित परिवारों के सम्मान के साथ उन्हें मनोसामाजिक समर्थन देने के एतिहासिक कार्य के साथ सैन्य शासन द्वारा जनता पर किये गये अत्याचार को उजागर करने और न्यायालय में लड़ने का काम किया। ग्वांगजू जन-विद्रोह की भावना को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर फ़ैलाने के लिए सन् 2000 से ग्वांगजू मानवाधिकार पुरस्कार देने का काम शुरू किया गया।
2007 का यह पुरस्कार भारत में जातिवाद की मुखालफ़त के लिए मुझे और सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA) के खिलाफ एतिहासिक संघर्ष की प्रतीक इरोम शर्मिला को संयुक्त रूप से मिलना था, जिसके लिए मैं और श्रुति जी ग्वांगजू आये थे।
17 मई की सुबह हम दोनों एशिया की सिविल सोसाइटी द्वारा एशिया में लोकतंत्र की बहाली के लिए निकाले गये जुलूस में हिस्सा लिए, जहां भारत के सुप्रसिद्ध पत्रकार अमित सेन गुप्ता और इफ्तिखार गिलानी से मुलाकात हुई। इसके बाद ग्वांगजू जन-विद्रोह के प्रतीक टाउनहॉल गये और वहा के इतिहास को जाने और समझे। कोरिया ब्रोडकास्टिंग कारपोरेशन (KBC) ने मेरे इंटरव्यू के साथ टाउनहॉल, राष्ट्रीय स्मारक और शहीद कब्रिस्तान की हमारे भ्रमण पर डाक्यूमेंट्री बनाकर 17 मई को तक़रीबन 2 बजे से दिखाया। फिर तीन बजे May 18 फाउंडेशन के भव्य कार्यालय में प्रेस वार्ता आयोजित की गयी, जिसे मैंने और इरोम शर्मिला के बड़े भाई इरोम सिंहजित सिंह ने संबोधित किया।
हर साल मई 18 की पूर्व संध्या पर हजारों या कहें लाखों लोग टाउनहॉल के ऐतिहासिक चौक पर ग्वांगजू जन-विद्रोह के सम्मान और याद में झांकियां निकालते हैं। वहां प्रदर्शनी लगी थी, गीत गाये जा रहे थे, मानो पूरा चौक ग्वांगजू जन-विद्रोह के सम्मान में फिर से पूरी दुनिया में लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्ध हो उठा था। हमारी दुभाषिया हमें औरतों के एक समूह में ले गयीं, जहा महिलाएं चावल का विशेष भोज बना रही थीं। उसे हमने खाया। दुभाषिया ने बताया कि ग्वांगजू जन विद्रोह के जनयोद्धा उस समय यही भोज खाते थे, जिन्हें महिलाएं बना कर देती थीं। लोग मुझे और श्रुति को KBC की डाक्यूमेंट्री से पहले ही पहचान चुके थे, तो उन्होंने हमें अद्भुत प्यार और इज्जत दी।
18 मई की सुबह हम लोग राष्ट्रीय स्मारक व शहीद कब्रिस्तान में शहीदों को सम्मान देने गये। यहां कोरिया की राष्ट्रपति आने वाली थीं, किन्तु पूरा आयोजन सरकारी नहीं लग रहा था बल्कि जनता का कार्यक्रम लग रहा था। राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद हम राष्ट्रीय स्मारक व शहीद कब्रिस्तान देखने गये। भारत के लोगों के लिए यह बड़ी सीख है। भारत को अपने जन विद्रोहों पर जन स्मारक बनाने और जन स्मृतियों में लाने का काम दक्षिणी कोरिया से सीखना चाहिए।
आज भी हम लोगों के दिल में शहीदों के परिजनों की पीड़ा दर्द देती है। दस साल के बच्चे से लेकर 80 साल के वृद्ध ने शहादत दी थी, ताकि कोरिया में सैन्य शासन को ख़त्म कर लोकतंत्र बहाल किया जा सके।
शाम को May 18 फाउंडेशन के भव्य हॉल में ग्वांगजू पुरस्कार का आयोजन रबीन्द्र संगीत और लालन फ़क़ीर के गीतों से हुआ। इरोम शर्मिला के साथ सम्मान पाना, वो भी ग्वांगजू जन विद्रोह की याद में, एक बड़ी जिम्मेदारी थी जिससे आज तक मैं मुक्त नहीं हो पाया हूं। मैंने अपने भाषण में आफ्सपा और जातिवाद का विरोध करते हुए उसी वक्त भारत में आने वाले फासीवाद के प्रति आगाह किया था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खतरनाक खेल को बताया था।
फाउंडेशन ने 2011 में जब ग्वांगजू जन विद्रोह के इतिहास को यूनेस्को की वर्ल्ड मेमोरी में डालने का आवेदन किया, तो मैंने भी उसका समर्थन किया और मेरे पत्र का यूनेस्को ने जवाब भी दिया था। उसी साल ग्वांगजू के जन विद्रोह का इतिहास यूनेस्को की वर्ल्ड मेमोरी का हिस्सा बन गया।
मई 2017 में दक्षिण कोरिया के चुने हुए राष्ट्रपति Moon Jae-in ने ग्वांगजू जन विद्रोह के खिलाफ किये गये अत्याचारों की जांच को फिर से खोलने का आदेश दिया। फ़रवरी 2018 में कई चौंकाने वाले तथ्य मिले। 7 नवंबर 2018 को कोरिया के रक्षा मंत्री Jeong Kyeong-doo ने क्षमा पत्र लिख कर माफ़ी मांगी।
18 मई को मेरा जन्मदिन भी पड़ता है। इस बार के जन्मदिन पर कोरोना विषाणु ने फासीवादी विकास की पोल खोल दी है। प्रवासी मजदूरों की पहचान पाये भारतीय नागरिक सड़कों पर अपने घर लौटने के लिए पैदल मार्च कर रहे हैं। दिल गुस्से और व्यथा से भरा पड़ा है।
ग्वांगजू जन विद्रोह की यादें ललकार रही हैं। उठो भारत, उठो! संविधान की प्रस्तावना को जमीं पर लागू करने के लिए उठो! गाँधी और बाबासाहेब के सपने का भारत बनाने को उठो!
अब कोई और विकल्प नहीं है…
लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं
आवरण चित्र ग्वांगजू विद्रोह में शहीद हुए लोगों के कब्रिस्तान का है (स्रोतः विकिपीडिया)
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