छान घोंट के: लॉकडाउन से बदरंग हुए बनारस में जन पत्रकारिता का एक साहसी दस्तावेज़


कोरोना विषाणु ने मानवता पर केवल संकट ही नहीं पैदा किया है, बल्कि प्रकृति सहित अनेक संदर्भों को बदल दिया है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की असफलता की पोल खुल गई है और साथ ही जातिवादी व पितृसत्ता के अवशेषो की सड़ांध खुल कर बाहर आयी है। कोरोना के इलाज में कोई निजी अस्पताल मुफ्त में नहीं लगा, सरकारी हॉस्पिटल ही इलाज कर रहे हैं! महीनों की मंदी ने लोगों के खाने-पीने के साथ उनके स्वास्थ्य का संकट पैदा कर दिया, जिसे नवउदारवादी अर्थव्यवस्था हल करने में विफल रही। हम ‘अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण’ (भूबाजारीकरण) को असफल होते देख रहे हैं और विश्वव्यापी कोरोना विषाणु के संकट ने ‘इंसानियत के भूमंडलीकरण’ की जरूरत को मजबूती से रेखांकित किया है।

लॉकडाउन के दौरान इसी जरूरत और ज़मीनी हकीकत को समझाने वाली वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की हाल ही में प्रकाशित किताब है “बनारस लॉकडाउन”, जो बताती है कि लॉकडाउन के 75 दिनों की जिंदगी क्या रही।

जब कोरोना के भय से बनारस की पारम्परिक संस्कृति ध्वंस के मुहाने पर खड़ी कातर-भाव से उन सबकी ओर देख रही थी जो जिंदगी के रक्षक व रहनुमा थे, तो किसने आगे आकर लोगों को ढांढस बधाया? किसने भय से आक्रांत बनारस की नब्ज़ को छूने की कोशिश की? खौफ़ के सन्नाटे में थमी हुई जिंदगी और धीमे हो चुके हृदय के स्पंदन को किसने सुनने का साहस किया? अपनी अड़ी और गलचउर के लिए मशहूर बनारस ने कैसे चुप्पी ओढ़ ली? उस छटपटाहट को महसूस करने वाला कौन था? बनारस के घंटा-घड़ियाल और हर-हर महादेव के नारों की अटक चुकी गले में आवाज़ को किसने सबसे पहले अकनने की कोशिश की? यह काम था वाराणसी के राजनैतिक नेता और जनप्रतिनिधियों का, किन्तु किया एक पत्रकार ने।

यह किताब बताती है कि जो इस लॉकडाउन में घुट-घुट कर जी रहे थे उनकी आमदनी मरती जा रही थी। मानसिक संत्रास जीवन में असंतुलन पैदा कर रहा था। लोग सोच रहे थे, कहां पीछे छूट गया सदियों पहले का हँसता-खिलखिलाता हमारा बनारस? सब सोच रहे थे कि सांसारिक लोगों को मोक्ष देने वाले बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की यह दशा कैसे हो गयी? बस इसी बात की पड़ताल करने के लिए विजय विनीत ने चप्पे-चप्पे की खाक छानी। जो देखा वह भयावह सच था।

दो महीने चले देशव्यापी लॉकडाउन में देश भर में अनेक पत्रकारों ने अपनी जान पर खेल कर सच को बाहर लाने का कार्य किया है। दूसरी तरफ तानाशाही की ओर बढ़ रही सरकारें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को चुप कराने में लगी हुई थीं। इस बीच सैकड़ों पत्रकार सत्ता की निरंकुशता का शिकार बने, लेकिन विजय विनीत संभवतः पहले पत्रकार रहे जिन्हें लॉकडाउन के बिलकुल आरंभ में ही सरकार ने एक रिपोर्ट के चलते अपने निशाने पर लिया। मामला मार्च के तीसरे हफ्ते में बनारस के कोइरीपुर गाँव में मुसहरों के जंगली घास अँकरी खाने की रिपोर्ट से जुड़ा था जिस पर प्रशासन ने विनीत और उनके मुख्य संपादक सुभाष राय को नोटिस थमा दिया।

यह गंभीर बात थी क्योंकि खुद विनीत पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (CAAJ) के यूपी संयोजक हैं और तमाम अन्य पत्रकार संगठनों के प्रतिष्ठित सदस्य हैं। लॉकडाउन में शुरुआती चार दिन के भीतर ही भुखमरी के कगार पर पहुंचे सबसे वंचित आबादी मुसहरों के बच्चों पर रिपोर्ट करना सरकार ने अपराध बना डाला। यह मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठा और कमिटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने भी इस पर रिपोर्ट की। मामला मानवाधिकार आयोग गया। आयोग ने संज्ञान भी लिया, नोटिस भेजी प्रशासन को। इसके बावजूद विजय विनीत लॉकडाउन में बदरंग हो चुके बनारस को अपनी किताब में दर्ज करने में लगे रहे।

आप कल्पना कर सकते हैं, बनारस को कोरोना ने किस तरह बदरंग किया! बनारस की सीमाएं सील थीं। चिरई का पूत नदारद था। ऐसे में यह लेखन सन्नाटे को भेदते हुए ऐसे आगे बढ़ रहा था, जैसे जल में कोई मछली सरलता से आगे बढ़ जाती है। बनारस में लाखों लोग ऐसे हैं जो रोज कमाते-खाते हैं! लॉकडाउन के दिनों में उनका चूल्हा कैसे जला होगा? क्षुधा की आग आखिर किस वरदान से मिटती होगी? अपनी पुस्तक में यही जानने की कवायद विजय विनीत ने की है।

उनके द्वारा लिखी पुस्तक “बनारस लॉकडाउन” विपत्तियों की महागाथा बनकर उभरी है। इसलिए कह सकता हूँ, “बनारस लॉकडाउन” महज एक किताब नहीं है, बल्कि बनारस का दस्तावेज है। सच्ची कहानियों का दस्तावेज, जिसे कई पीढ़ियाँ संजोकर रखेंगी। यह एक दस्तावेज है फासीवादी युग में कोरोना के संकट में आम लोगों के दर्द की दास्ताँ का।

उससे भी ज्यादा एक पत्रकार के साहस का, जिसकी परिणति फिलहाल कोरोना मरीज के रूप में हो चुकी है। पुस्तक के लेखक विनीत आज क्वॉरन्टीन हैं लेकिन उन्हें हुए कोरोना संक्रमण का नतीजा है उनकी किताब “बनारस लॉकडाउन”!    

अभी तक कोरोना विषाणु को रोकने का टीका ऑक्सफ़ोर्ड और रूस में बनने की सूचना आ रही है। टीका के अविष्कार के बाद नवउदारवादी अर्थव्यवस्था मानवता की जगह मुनाफे को महत्त्व देगी। संकट की इस घड़ी में मुनाफे पर आधारित व्यवस्था की जगह लोगों, इंसानियत और प्रकृति के कल्याण वाली कल्याणकारी अर्थव्यवस्था को स्थापित करना होगा जहां इंसान को इंसान बनाने वाली शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च हो। कम से कम सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च हो। लोगों को तर्क के आधार पर सोचने का मौका मिले, हर इंसान को रोजी, रोटी, मकान के साथ इज्जत वाली जिन्दगी मिले। लोगों को आध्यात्मिक विकास का मौका भी मिले, जिससे प्रकृति और इंसान के बीच में तालमेल हो। तभी हम शारीरिक दूरी के साथ कोरोना विषाणु से लड़ सकते हैं।

सबसे ज्यादा अहम बात ये है कि इस दौर में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के द्वारा लाए गए तथ्यों को सरकारों को महत्त्व देना होगा क्योंकि सरकार लोगों के टैक्स से चलती है।

बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की एक कविता की पंक्तियों से अपनी बात को रोकता हूं :

ऊपर बैठने वालों का कहना है:
यह महानता का रास्ता है
जो नीचे धंसे हैं, उनका कहना हैः
यह रास्ता कब्र का है
!



About डॉ. लेनिन रघुवंशी

View all posts by डॉ. लेनिन रघुवंशी →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *