दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका फॉरवर्ड प्रेस पर पिछले दिनों हुई पुलिस की कार्रवाई, कार्रवाई के पीछे पत्रिका के प्रबंधन द्वारा महिषासुर-विमर्श से जुड़े कंटेंट का दावा किया जाना और उस संदर्भ में शुरू हुई तमाम बहसों का सिलसिला कम से कम सोशल मीडिया पर अब भी थमा नहीं है। सबके अपने-अपने पक्ष के बीच पत्रिका के संपादकीय कर्मी रहे कवि पंकज चौधरी द्वारा काफी बाद में किए गए उद्घाटनों ने पत्रिका के प्रबंधन और उसकी कार्यशैली के संदर्भ में गंभीर सवाल उठाए तो उसकी प्रत्यक्ष संपादकीय लाइन या कहें राजनीति को भी कठघरे में खड़ा किया। टुकड़ों में सोशल मीडिया पर जारी किए गए पोस्ट को विस्तार से एक मुकम्मल शक्ल देकर पंकज चौधरी ने हमें भेजा है, जिसे हम किस्तों में अविकल प्रकाशित कर रहे हैं। इन श्रृंखला पर सुविचारित प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। (-मॉडरेटर)
फॉरवर्ड प्रेस को दलित-बहुजन की पत्रिका माना जाता है। खासकर के ओबीसी की। ओबीसी के उन तत्वों को यह पत्रिका प्रचारित-प्रसारित करने का दावा करती रही है जो प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय के मूल्यों में अटूट आस्था रखते हैं। लेकिन पिछले एक डेढ़ साल के अंकों को उलट-पुलटकर यदि देखा जाए तो आपको ये सारे मूल्य वहां धराशायी होते हुए नजर आएंगे।
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पंकज चौधरी |
पत्रिका का विरोधाभास देखिए कि अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए केजरीवाल के आंदोलन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ को तो यह पानी पी-पीकर के कोसने का काम करती है लेकिन जैसे ही यह आंदोलन आआपा के रूप में राजनीतिक शक्ल अख्तियार करता है उसका महिमागान शुरू कर देती है। अरविंद केजरीवाल को फॉरवर्ड प्रेस एक महानायक के रूप में पेश करती है और यह मानकर चलने लगती है कि भारत में अब जाति प्रथा खत्म हो चुकी है और भ्रष्टाचार सबसे बड़ी समस्या है। गौर करने वाली बात यहां यह है कि फॉरवर्ड प्रेस यह काम तब कर रही थी जब आआपा के ही कुमार विश्वास, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के बारे में मंच पर ही आग उगलते हुए यह बयान जारी करते हैं कि जिनको भैंस चरानी चाहिए वे आज राज चला रहे हैं। आआपा के ही सेकंड रैंक के अधिकारी मनीष सिसोदिया को एक चैनल पर यह बोलते हुए सुना गया था कि एक दलित-आदिवासी यदि कोई अपराध करता है तो उसकी सजा एक सवर्ण से ज्यादा होनी चाहिए। आआपा घोषित रूप से आरक्षण विरोधी रही है और माना जाता है कि इसके नेता अरविंद केजरीवाल की यूथ फार इक्वालिटी के गठन में भी प्रमुख भूमिका रही है। आआपा के स्टैंड को साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर भी असंदिग्ध नहीं माना जाता रहा है। मैं अरविंद केजरीवाल के विचारों और उसके नाटकों का शुरू से ही मुखर विरोधी रहा हूं इसलिए फॉरवर्ड प्रेस के केजरीवाल के प्रति इस रुख को दलित-बहुजन के खिलाफ खतरनाक मानता था लेकिन मेरे विरोध को पत्रिका में अनसुना कर दिया जाता रहा। हां, यह बात अलग है कि केजरीवाल के विरोध में भी एक-दो लेखों को वहां छापा गया।
केजरीवाल प्रहसन के तुरंत बाद शुरू होता है मोदी प्रसंग। फॉरवर्ड प्रेस ने आव देखा न ताव और नरेंद्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चुनाव सर्वेक्षण कराना शुरू कर दिया और इस काम के लिए सीएसडीएस के संजय कुमार को लगाया गया। संजय कुमार ने अपने चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में मोदी और भाजपा को प्रचंड और अप्रत्याशित बहुमत की ओर जाते दिखाना शुरू किया। संजय कुमार ने इस विषय पर मेरा ख्याल है कि दो-तीन कवर स्टोरी लिखी। मोदी का अभूतपूर्व गुणगान फॉरवर्ड प्रेस ने शुरू कर दिया और मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती, करुणानिधि के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का। प्रेमकुमार मणि की मानें तो उन्हें मजबूर कर दिया यह लिखने के लिए कि नरेंद्र मोदी जिस दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे उसी दिन लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती और करुणानिधि जेल की सलाखों के पीछे होंगे। मैं यहां चंद्रभूषण सिंह यादव, अनिल चमडि़या, कंवल भारती, दिलीप मंडल, अनीता भारती, मुसाफिर बैठा से पूछना चाहता हूं कि क्या एक दलित-बहुजन पत्रिका के यही सरोकार हैं? क्या वे यह मानकर चलते हैं कि दलित-बहुजन को अब नरेंद्र मोदी, संघ परिवार और अरविंद केजरीवाल की शरण में चले जाना चाहिए?
कभी-कभी पत्रिका की नौकरी करते हुए मुझे यह भ्रम होता था कि पत्रिका के कर्ता-धर्ता के पास कोई विजन (दृष्टि) नहीं है या ये लोग कन्फयूजन के शिकार होते हुए दिवालिया हो चुके हैं तभी तो सामाजिक न्याय के विरोधियों का बढ़-चढ़ कर गुणगान करने में लग गए हैं। लेकिन कभी-कभी यह भी लगता था कि पत्रिका का कोई हिडेन एजेंडा है और चर्चित युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की बात की पुष्टि हो जाती थी कि मोदी और संघ परिवार का बढ़-चढ़कर गुणगान करने के पीछे दरअसल पत्रिका के संचालकों का उददेश्य नई सरकार में अपने लिए स्पेश तलाशने की कोशिश से जुड़ा हुआ था। कोई सरोकारी पत्रिका इतनी करप्ट हो सकती है और दलित-बहुजन को लगातार गुमराह करने के धंधे में इस तरह मुब्तिला हो सकती है पहली बार देखने और सुनने को मिल रही थी।
फॉरवर्ड प्रेस दक्षिणपंथी रूझानों को किस तरह बढ़ावा देने में जुट गई और दंगाइयों को पाक-साफ करने के अभियान में पत्रिका में स्टोरी देने लगी इसकी भी एक बानगी जरा देख ली जानी चाहिए। आशीष कुमार अंशु ने पत्रिका के जुलाई, 2014 के अंक में एक ऐसी स्टोरी की जिसमें अशोक कुमार भगवान भाई परमार जो गोधरा दंगों का मुख्य आरोपी है और जिसकी तस्वीर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कुख्यात हुई थी, को क्लीन चिट देते हुए बेगुनाह साबित कर दिया और तर्क जुटाया कि दरअसल, ‘मुम्बई मिरर’ के फोटो पत्रकार सेबेस्टीन डीसूजा को एक ऐसी खूंख्वार तस्वीर की खोज थी जिसमें एक नौजवान सर पर भगवा साफा बांधे हुए हो। उसके एक हाथ में तलवार हो और दूसरे में त्रिशूल और वह बजरंगी टी-शर्ट भी पहने हुआ हो और ऐसी पोज देने के लिए अशोक कुमार भगवान भाई परमार ही तैयार हुआ था। अशोक का कसूर सिर्फ इतना ही था और वह कहीं से भी दंगाई नहीं था। इतना ही नहीं आशीष कुमार अंशु ने अशोक कुमार भगवान भाई परमार के बचाव में एक सफाई और पेश की कि अशोक दरअसल मोची है इसलिए सवर्ण मीडिया ने उसी को टारगेट कर लिया।
अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस तरह की अभिव्यक्ति की आजादी के लिए हमें सड़कों पर उतर जाना चाहिए? क्या किसी अपराधी को इस आधार पर छूट मिलनी चाहिए कि वह दलित है या ओबीसी है? फॉरवर्ड प्रेस दलित-बहुजन की आड़ में जिन कारगुजारियों को अंजाम देने में जुटी हुई है, क्या उसकी तहकीकात और जांच नहीं होनी चाहिए?
(जारी)
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जव तक किसी व्यक्ति के निजी स्वार्थ किसी सन्सथान या सगठन से पूरे होते रहते हॅ तवतक वह उसकी रीतियो नीतियो को शॅधान्तिक मुलम्मे मॅ लपेट समर्थन करता रहता हॅ ऑर जव आपुर्ति वन्द हो जाती हॅ तो नॅतिकताऑ,शिधान्तो की ओढनी उढाकर आलोचना करने लगता हॅ मद्यम वर्ग का यही चरित्र हॅ कि इसका अपना कोई चरित्र नही मॉसम देख कर मिजाज वदलता हॅ यह भी कुछ एसा ही किस्स हॅ