‘लोकप्रिय’ आंदोलन और मार्क्स का आवाहन
अभिषेक श्रीवास्तव
लोकप्रियता का मोह इतना तगड़ा होता है कि कल तक इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम का एक ”लोकप्रिय आंदोलन” आज राजनीतिक पार्टी बनने और सीटें जीतने के बावजूद खुद को फंसा हुआ पा रहा है और अपने अलोकप्रिय हो जाने के भय से कोई सुनिश्चित कदम नहीं उठा पा रहा। जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन दो साल पहले खड़ा हुआ था, तब भी उसे लेकर संदेह था और आज जब वह एक संसदीय मुकाम हासिल कर चुका है, तब भी संदेह ही पैदा कर रहा है। दरअसल, लोकप्रियता के साथ संदेह अनिवार्यत: जुड़ा है। राजनीति का इतिहास बताता है कि लोकप्रियता का मोह आपको इतना संदिग्ध बना देता है कि आप किसी संदेह के निर्णायक क्षण में लोकप्रियता चले जाने के डर से आत्मघाती कदम भी उठा सकते हैं। आखिर, संदेह के इस विराट क्षण में ‘लोकप्रिय’ के होने और न होने के बीच की स्थिति को कैसे समझा जाए? क्या मार्क्सवाद इसमें हमारी कुछ मदद कर सकता है?
पिछले साल 16 दिसंबर के बाद हुए बलात्कार विरोधी आंदोलन और आइएसी के भ्रष्टाचार विरोधी जन-उभार के संदर्भ में लिखा गया यह लंबा लेख अभी पढ़ा जाना चाहिए। यह लेख समकालीन तीसरी दुनिया में प्रकाशित है और वहीं से साभार हम यहां चिपका रहे हैं। उम्मीद है कि समकालीन राजनीति-समाज की परिघटनाओं पर यह कुछ प्रकाश डाल सके। (मॉडरेटर)
सवाल क्या है?
आजकल लिखने, पढ़ने और बोलने में, खासकर रोज़मर्रा की घटनाओं को समझने में आदतन कार्ल मार्क्स को याद नहीं किया जाता। ज़ाहिर है यह बात मार्क्सवादियों के संदर्भ में ही कही जा सकती है। रोज़मर्रा की पढ़ाई-लिखाई और विश्लेषण के दौरान मार्क्सवाद तकरीबन एक पवित्र ग्रंथ की तरह दिमाग के किसी धूल भरे तहखाने में दबा रहता है। यह बात सही कैसे है, अपनी बात कहने के लिए ज़रूरी क्यों है और मार्क्सवादियों द्वारा वैचारिक औज़ारों के ‘चुनाव’ से यह बात ‘निरपेक्ष’ क्यों है, इसे समझने के लिए मैं कुछ उदाहरण लेना चाहूंगा।
पहले हाल की घटना को लेते हैं। दिसंबर में दिल्ली में एक बलात्कार हुआ, जिसके बाद बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए। ऐसा कोई नहीं रहा होगा या कह सकते हैं कि फिलहाल ऐसा कोई नहीं होगा जो इस घटना का विरोध न करता हो। ऐसा संभव भी नहीं है। एक महिला से बलात्कार अमानवीय कृत्य है, अपराध है। इसके खिलाफ खड़े होना मनुष्य का धर्म है। चाहे वह मार्क्सवादी हो, गैर-मार्क्सवादी या मार्क्सवाद विरोधी, उसे बलात्कार जैसी घृणित घटना का विरोध करना ही होगा। इस अपराध की प्रकृति ही मनुष्य होने की सहज नैतिक अहर्ता के खिलाफ है। सवाल यह नहीं कि मार्क्सवाद से अपनी वैचारिक पहचान करने वाला अमुक व्यक्ति/समूह/सम्प्रदाय इन प्रदर्शनों में गया या नहीं, जवाब यह है कि नैतिकता के बुनियादी मानक पर वह वहीं खड़ा है जहां उसके जैसे बाकी मनुष्य खड़े हैं। उनमें फर्क है तो सिर्फ दंड विधान और समस्या निवारण की परिकल्पना के स्तर पर, जब कई ऐसी वजहें आकार ले लेती हैं जिन्हें अपने वैचारिक आग्रहों का बाइप्रोडक्ट हम कह सकते हैं।
पीछे चलते हैं। बलात्कार की घटना से पहले तकरीबन डेढ़ साल तक भारतीय मानस में जो मुद्दा केंद्रीय बना रहा वह था भ्रष्टाचार। सन 2010 में समकालीन भ्रष्टाचार का पहला संगठित खेल कॉमनवेल्थ के नाम से हुआ। उसके बाद स्पेक्ट्रम बांटने में घोटाला हुआ। फिर कोयला खदानों का भ्रष्टाचार सामने आया। इसके बाद कुछ भ्रष्टाचार खोज कर सामने लाया गया, मसलन नितिन गडकरी की कंपनियों में घपला, सलमान खुर्शीद के एनजीओ में घोटाला, जी न्यूज़ द्वारा वसूली और रॉबर्ट वढेरा का भ्रष्टाचार। सरकारी एजेंसी कैग द्वारा उजागर भ्रष्टाचार के कुछ मामलों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ जबकि बाकी मामले प्रदर्शनों से बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल में किए गए खुलासों का परिणाम रहे। आखिर कौन कहेगा कि वह भ्रष्टाचार के पक्ष में है? कोई नहीं। वह मार्क्सवादी हो, गैर-मार्क्सवादी या मार्क्सवाद विरोधी, भ्रष्टाचार के खिलाफ होना सहज मानवीय नैतिकता का सवाल है। पहले आप भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ ही होंगे, भ्रष्टाचार निवारण और दंड विधान के सवाल पर भले वैचारिकी आड़े आ जाए। गर्ज़ ये, कि मार्क्सवाद की ज़रूरत यह बताने के लिए नहीं है कि आपको भ्रष्टाचार पर क्या स्टैंड लेना है।
कुछ और पीछे चलें। 2008 के अंत में वैश्विक मंदी आई थी। हमारे यहां भी इसका असर हुआ था। महंगाई बढ़ने लगी थी। बेरोज़गारी भी बढ़ रही थी। अर्थव्यवस्था थम गई थी। महंगाई, बेरोज़गारी और आर्थिक गतिरोध का विरोध करने के लिए मार्क्सवादी होना ज़रूरी नहीं होता। यह सीधे हमारी जि़ंदगी पर असर डालती हैं। अब भी डाल रही हैं। हम इनके खिलाफ हैं। वे भी हैं, जिन्होंने 1990 के बाद अपनी वैचारिक आंख खोली है और वे भी, जो नक्सलबाड़ी और संपूर्ण क्रांति का दौर देख चुके हैं। भारत में लोकप्रिय आंदोलनों का इतिहास अगर लिखा जाएगा तो शायद इन्हीं चरणों से होकर गुज़रे- बलात्कार के खिलाफ ‘इंडिया गेट अपराइजिंग’, भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत का ‘अरब स्प्रिंग’, जेपी का ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’ और ‘नक्सलबाड़ी’ (हाल के दिनों में हुए विरोध प्रदर्शनों को इस सूची में ‘आंदोलन’ की श्रेणी में रखा जाए या नहीं, यह सवाल अभी ठीक नहीं)। संपूर्ण क्रांति का आंदोलन नेहरूवादी समाजवाद से सघन मोहभंग और युवा असंतोष की देन था, जिसके खिलाफ बिल्कुल मौके पर खड़ा होना उसी तरह असंभव था जिस तरह आज कोई भी बेरोज़गारी का समर्थन नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही किसानों के ज़मींदारों द्वारा शोषण के खिलाफ नक्सलबाड़ी के आंदोलन का भी उसी देश-काल में विरोध नहीं किया जा सकता था, जिसमें छात्र, डॉक्टर, पेशेवर, अध्यापक, बुद्धिजीवी यानी मध्यवर्ग के सब घटक शामिल थे।
इन ऐतिहासिक पड़ावों के प्रति हमारे नज़रिये में फर्क कहां पैदा होता है? पहला, लड़ाई के तरीके में। दूसरा, समस्या निरूपण में। तीसरा, अपराधी के खिलाफ दंड विधान में, और चौथा समस्या निवारण में। एक मार्क्सवादी, गैर-मार्क्सवादी या मार्क्सवाद विरोधी के बीच ये सारे फर्क हालांकि ‘विरोध के ऐन क्षण’ में पैदा नहीं होते। इस बात को उलट कर अंग्रेज़ी में कहें, तो ‘प्रेशियस मोमेंट ऑफ डाउट’ यानी ‘संदेह का बहुमूल्य क्षण’ इन सब घटनाओं में नदारद है। तो क्या इतिहास खुद को दुहराता है? क्या दुहरा रहा है? ‘संदेह का बहुमूल्य क्षण’ तो वहां भी नहीं था, यहां भी नहीं है। तो क्या आज के ‘लोकप्रिय आंदोलन’ चालीस साल पहले हुए ‘लोकप्रिय आंदोलनों’ का विस्तार कहे जा सकते हैं? अगर नहीं, तो क्यों? अगर हां, तो दोनों में फर्क क्या है? क्या मार्क्सवाद इन्हें समझने में हमारी कुछ मदद कर सकता है? कार्ल मार्क्स की सबसे मशहूर उक्ति थी- ”डाउट एवरीथिंग” (हर चीज़ पर संदेह करो)। क्या इंसानी मुद्दों की बुनियादी प्रकृति, ‘विरोध का ऐन क्षण’ ही अपने आप में इस मार्क्सवादी उक्ति के साथ विडंबना नहीं पैदा कर देता?
रोजर स्क्रूटन के बहाने
साठ के दशक में न सिर्फ भारत में, बल्कि तमाम देशों में लोग सड़क पर उतरे थे। आज जो मुद्दे सामान्य नागरिक उठा रहे हैं, वे उस वक्त वामपंथी आंदोलनों के नारे हुआ करते थे। तब के आंदोलनकारी यह मानते थे कि चूंकि वे बुर्जुआज़ी के खिलाफ लामबंद हैं, इसलिए अपने उद्देश्यों में भी वे एक हैं। चूंकि अपने उद्देश्यों में वे खुद को एक मानते थे, लिहाज़ा उन्हें यह भी लगता था कि उनके उद्देश्यों की एकता है। क्या ऐसा वाकई था? अमेरिका में पढ़ाने वाले एक राजनीतिक दार्शनिक रोजर स्क्रूटन अपने एक लेख में बड़े काम की बात कहते हैं। वे कहते हैं कि उस वक्त के सामाजिक असंतोष के स्रोतों को संगठित आकार देने के लिए उसे ”बुर्जुआज़ी” के खिलाफ लक्षित किया गया था, जबकि राजनीतिक संदर्भों में ”बुर्जुआज़ी” एक काल्पनिक निर्मिति थी। एक काल्पनिक निर्मिति के खिलाफ संगठित होने का यह अर्थ नहीं कि आप अपने राजनीतिक उद्देश्य में भी एक हों। वे कहते हैं कि यह एक बड़ी वजह थी कि लोगों का गुस्सा उनकी कल्पनाओं की ज़मीन पर साझा हो रहा था लेकिन जब ऐन राजनीतिक क्षण में टिकने की बारी आई, तो वह भरभरा कर गिर गया (भ्रष्टाचार विरोधी आक्रोश से तुलना करते चलें)। इसके लिए वे इक्कीसवीं सदी की तमाम विफल क्रांतियों का हवाला देते हैं। पश्चिम में तो उस वक्त खड़े हुए आंदोलनों की मांग ही विरोधाभासी थी- मसलन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तो चाहिए लेकिन न्यायपालिका का नाश भी, ”बंद ढांचों” से मुक्ति चाहिए लेकिन आर्थिक जीवन पर राज्य का नियंत्रण बना रहे, निजी संपत्ति का खात्मा हो लेकिन हर व्यक्ति की अपनी-अपनी निजी स्पेस भी कायम रहे। इन मांगों का विरोधाभासी चरित्र इतना मुखर था, सिर्फ इसी वजह से ये संघर्ष जनांदोलन नहीं बन पाए बल्कि वर्गीय आंदोलन बन कर रह गए। इस आंदोलन का चेहरा बुद्धिजीवी, सरकारी कर्मचारी, छात्र, ट्रेड यूनियन नेता और ऐसे दूसरे लोग थे जिनके लिए विरोध की भाषा और अपने पसंद के निजी जीवन की भाषा एक थी। जिस तबके के साथ भाषा का ऐसा चमत्कारिक संयोग नहीं था, मसलन किसानों को ही लें, उनके बारे में तो कहना ही क्या। चालीस साल पुराने दूसरे तबकों के नारे से आज ”ज़मीन जोतने वाले की” के नारे की तुलना कर लें, तो इसकी अप्रासंगिकता का खोखलापन किसान आंदोलन की पारंपरिक मार्क्सवादी समझ से मोहभंग पैदा करने के लिए ही पर्याप्त होगा। बहरहाल, ऐसे आक्रोशित वर्गीय संघर्षों के साथ एक दिक्कत रोजर यह गिनाते हैं कि इनकी सारी कार्रवाइयां भविष्य के लिए लक्षित होती हैं, जबकि भविष्य धुंधला और सरलीकृत होता है, बिल्कुल ”पूर्ण साम्यवाद” या ”संपूर्ण क्रांति” की तरह। दिलचस्प है कि इस भविष्य को परिभाषित करने में बरती गई कोई भी सतर्कता एक किस्म का संदेह पैदा कर देगी। और जब क्रांति की प्रक्रिया में संदेह ही आ गया, तो क्रांति काहे की?
कल और आज
इसीलिए रोजर स्क्रूटन की बात पर आगे बढ़ने से पहले ”डाउट एवरीथिंग” का हश्र देख लेना कारगर होगा। नक्सलबाड़ी के संघर्ष के मॉडल पर (चारू मजूमदार की लाइन वर्ग शत्रु का सफाया) आज बात भी नहीं होती है, ”ज़मीन जोतने वाले की” का नारा बदल कर नया नारा लाना तो दूर की बात रही। ”संपूर्ण क्रांति” के संसदीय सुअरबाड़े में लोट जाने के काफी बाद इसे प्रतिक्रियावादी साबित करने की मार्क्सवादी तर्कपद्धति निकाली गई। इमरजेंसी को लेकर आज तक कई किस्म के भ्रम और किंवदंतियां हैं। रूस टूट गया, तब जाकर आस्था के पुल टूटे और मार्क्सवादी दर्शन के औज़ारों को दोबारा चमकाना पड़ा। चीन को लेकर अब तक अलग-अलग भ्रामक धाराएं भारतीय मार्क्सवादियों के भीतर बह रही हैं। इतना कुछ होने के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और बलात्कार विरोधी ”अपराइजिंग” की धूल बैठने के बाद भी मार्क्सवादी समूह अपना-अपना श्रेय का हिस्सा लूटने की कोशिशों में जहां-तहां लगे हैं।
बहरहाल, मार्क्स ने एक और कारगर बात कही थी, जो ”क्रांति के क्षण से बाहर” चालीस साल पीछे हुए घटनाक्रम को आज के हालात से जोड़ने की समझदारी दे सकती है। उसने मध्यवर्गीय बुर्जुआ को ऐतिहासिक रूप से क्रांति का निर्णायक बताया था। साठ और सत्तर के दशक में हुए वैश्विक आंदोलनों में यह बात साफ थी। आज मध्य-पूर्व से लेकर अमेरिका और भारत में जिस कदर छात्रों, शहरी युवाओं और नौकरीशुदा शहरातियों की भागीदारी सड़कों पर देखने को मिली है, मार्क्स आज भी सही लगते हैं। पेंच सिर्फ एक है कि क्या पिछले आंदोलन क्रांति के लिए किए गए थे या आज के आंदोलन किसी क्रांति का स्वप्न लेकर किए जा रहे हैं? तब के विरोधाभास हमने देखे, आज के विरोधाभास भी बड़े दिलचस्प और अलहदा हैं। विरोधाभासी मांग का एक उदाहरण देखिए- अविकसित देशों को विकसित होने का मौका दिया जाए और उनके पर्यावरण की रक्षा की जाए। क्या ये दोनों मांगें एक साथ सही ठहराई जा सकती हैं? विकास और प्रकृति के दोहन का यह बुनियादी विरोधाभास तो खुद मार्क्सवाद के भीतर है। बुर्जुआ फ्रेमवर्क में तो यह और भी नहीं लागू होगा। ऐसे तमाम विरोधाभास, जो ज़ाहिर है इतने गूढ़ भी नहीं, आज के ”लोकप्रिय आंदोलनों” में पाए जा सकते हैं। रोजर के मुताबिक बस एक अंतर आया है- कल जो मध्यवर्ग सड़क पर था, वह आक्रोशित बुनियादी वर्गों से उपजे असंतोष को आवाज़ दे रहा था जबकि आज सड़क पर जुटा मध्यवर्ग खुद अपनी ही मांगों को आवाज़ दे रहा है। इस बात को समझने के लिए बहुत सिर खपाने की ज़रूरत नहीं है। 17 दिसंबर से शुरू होकर लगभग दो सप्ताह तक बलात्कार के विरोध में हज़ारों शहरी भारतीय सड़कों पर उतरते रहे, लेकिन 2 जनवरी 2013 को जब आदिवासी महिला सोनी सोरी के लिए आवाज़ उठाने की बारी आई तो दिल्ली के जंतर-मंतर से भगवानदास रोड तक पहुंचने वाले समूह में बमुश्किल पचास युवा थे जिनमें अधिकतर एक राजनीतिक संगठन आइसा से जुड़े थे। दो सप्ताह से जारी ”स्वत: स्फूर्तता’ अचानक अगले ही दिन विषय बदलने से खत्म हो गई।
चालीस साल पहले और आज के लोकप्रिय आंदोलनों (फिलहाल दोनों को आंदोलन ही कहते हैं) का यह फर्क कई अलग-अलग सरलीकृत तरीकों से इधर बीच उठाया भी गया है। एक तबका है जिसका मानना है कि इधर बीच हुए आंदोलन सवर्णवादी, शहरी और मध्यवर्गीय हैं। यह बात उसी हद तक सपाट और सही है जिस हद तक इस देश की नागरिकता की मुख्यधारा में आक्रोश मौजूद है और जिस सीमा तक बुनियादी वर्ग/अस्मिताएं अपने-अपने कठघरों में कैद हैं, लेकिन ऐसा कह कर इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि यह परिघटना अकेले भारत तक सीमित नहीं है। पिछले चार साल के दौरान भारत, ब्राज़ील, इंडोनेशिया और चीन समेत समूचे मध्य-पूर्व में सामान्य मध्यवर्गीय शहरी सड़कों पर उतरे हैं। अगस्त 2011 में चीन के डालियान शहर में हुए तियानमेन चौक जैसे प्रदर्शनों को याद करें या फिर उसी साल ब्राज़ील में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे कई मंत्रियों से इस्तीफा लिए जाने की घटना के आलोक में इसे देखें। मिस्र, यमन, अल्जीरिया, सीरिया आदि के हालात अब भी नहीं सुधरे हैं (हालांकि वहां हुए आंदोलन सत्ता परिवर्तन की ओर लक्षित थे जबकि भारत जैसे देशों में ऐसा नहीं है)। दरअसल हुआ ये है कि पिछले चार-पांच साल में पश्चिमी विकसित देशों की सरकारें जिस कदर वहां की मंदी और ठहराव के चलते नरम पड़ी हैं, उसी अनुपात में विकासशील जगत की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उदारीकरण का सीधा लाभार्थी रहा मध्यवर्ग यहां की सरकारों के लिए बेचैनी का कारण बना है। डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स जिस मध्यवर्ग की बात कर रहे थे, आज विकासशील देशों में उसका आकार बिल्कुल अलग है लेकिन आज भी वे मार्क्स के कथन को ही चरितार्थ कर रहे हैं। विश्व बैंक के मुताबिक 2 डॉलर से 13 डॉलर के बीच रोज़ाना कमाने वाला मध्यवर्ग एशिया के विकासशील देशों में सिर्फ 1990 से 2005 के बीच तीन गुना हुआ है। भारत और चीन को मिला लें तो यह संख्या दो अरब के आसपास ठहरती है। इसी अवधि में लातिन अमेरिका का मध्यवर्ग 28 करोड़ से 40 करोड़ के आसपास पहुंच चुका है जबकि सब-सहारन अफ्रीका में यह 12 करोड़ से बढ़कर 20 करोड़ पर आ गया है। मध्यवर्ग के नए मानक के मुताबिक वे तमाम लोग इसमें आते हैं जो अभी-अभी गरीबी के चंगुल से छूटे हैं और जो 2 डॉलर से 20 डॉलर तक कुछ भी रोज़ाना कमा रहे हैं। वॉशिंगटन के ग्लोबल एटिट्यूड्स प्रोजेक्ट ने 13 उभरती अर्थव्यवस्थाओं का एक सर्वेक्षण किया था। इसमें यह बात सामने आई थी कि मध्यवर्ग के दो केंद्रीय मुद्दे अभिव्यक्ति की आज़ादी और निष्पक्ष चुनाव हैं, जबकि ये मुद्दे गरीबों के लिए मायने नहीं रखते क्योंकि उनकी प्राथमिक चिंता पहले गरीबी से बाहर निकलने की है। हो सकता है यह सामान्य बात हो, लेकिन इसका एक मतलब यह निकलता है कि जैसे-जैसे मध्यवर्ग की संख्या बढ़ती है, राजनीति में राजकाज करने के अमूर्त नुस्खे कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने लगते हैं।
दरअसल, ऐसा बहुत पहले हो जाना चाहिए था। भारत के संदर्भ में मार्क्स अंग्रेज़ी राज के बारे में दो बातें कहते हैं। उनके मुताबिक अंग्रेज़ यहां दो काम करने आए थे- विनाश और पुनर्रचना। विनाश तो उन्होंने पर्याप्त किया, पुनर्रचना का काम छोड़ दिया। हां, हज़ारों साल पुराने समाज का विनाश करते वक्त वे पुनर्रचना की ज़मीन ज़रूर तैयार कर गए। दिक्कत बस यह रह गई कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद सरकारी संरक्षण वाले अर्थतंत्र की ज़मीन पर मध्यवर्ग की फसल नहीं लहलहा सकी। इसीलिए उदारीकरण से पहले के दौर में हमारे यहां जो भी आंदोलन हुए, वे सभी उपजे तो वर्गीय आक्रोश से ही थे, लेकिन उनका अगुवा अनिवार्यत: मुट्ठी भर मध्यवर्ग ही रहा और ”बुर्जुआज़ी” के खिलाफ लक्षित सभी संघर्ष एक यूटोपियाई मंजि़ल की परिकल्पना लिए हुए रहे। उदारीकरण के बीस वर्षों में एक बदलाव दबे पांव आया। वास्तव में, सभी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में (ब्रिक्स देशों में) लंबे समय तक मध्यवर्ग राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहा था। यह अकेले भारत की बात नहीं है। मध्यवर्ग के बारे में द इकनॉमिस्ट (3 सितंबर, 2011) कहता है:
”चीन में उन्होंने खुद को अपने तक ही सीमित किए रखा, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किए गए एक अघोषित सामाजिक अनुबंध का परिणाम था- तुम हमें राज करने दो, हम तुम्हें पैसे बनाने देंगे… भारत और ब्राज़ील का नया एलीट राजनीतिक प्रभाव के मामले में गरीबों से भी कमज़ोर रहा है (जो कि अपनी संख्या के कारण चुनाव में अहम हो जाते हैं) और पुराने एलीट तबके के मुकाबले भी (जो सत्ता प्रतिष्ठानों में गहरे धंसे हुए हैं)… मध्यवर्ग इसलिए भी सुप्त रहा है क्योंकि भारत, चीन और ब्राज़ील द्वारा अपनाई गई उदारीकरण और आधुनिकीकरण की नीतियों ने मोटे तौर पर उसी के सदस्यों को लाभ पहुंचाया है… अब जब उनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गई है, तो एक न एक दिन यह होना ही था…।”
मध्यवर्ग का मैनिफेस्टो
तो इन बीस वर्षों में जो मध्यवर्ग चुपचाप आर्थिक सुधारों के लाभ लेता रहा, आज उसकी राजनीतिक आकांक्षाएं मुखर हो गई हैं। मध्य-पूर्व में पढ़-लिख कर सोशल मीडिया पर जवान हुए मध्यवर्ग को एक अनपढ़ तानाशाह नहीं चाहिए, तो भारत में सुविधाओं के बीच पले-बढ़े शहरी मध्यवर्ग को भ्रष्टाचार और बलात्कार नहीं चाहिए। दोनों जगह आक्रोश बुनियादी तौर पर ‘स्टेट’ (राज्य) के खिलाफ लक्षित है, फर्क सिर्फ यह है कि हमारे यहां ‘स्टेट’ कहीं ज्यादा अदृश्य है। मध्य-पूर्व में राज्य का पर्याय तानाशाह है, लेकिन हमारे यहां राज्य का पर्याय चुनी हुई सरकार नहीं है। कितनी दिलचस्प बात है कि जिस वजह से मध्य-पूर्व का मध्यवर्ग अपने तानाशाह का तख्तापलट करना चाह रहा था, बिल्कुल उसी वजह से आंदोलनरत यहां का मध्यवर्ग अपनी सरकार को बदलने की कोई ख्वाहिश नहीं रखता। ध्यान रहे कि लोकपाल से लेकर बलात्कार विरोधी आंदोलनों में कहीं भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को बदलने का नारा नहीं आया है। ठीक ऐसे ही चीन में एक भीषण रेल दुर्घटना के बाद रेल विभाग के भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां का मध्यवर्ग खड़ा हुआ था जबकि इंडोनेशिया में अरबों के ठेके भ्रष्ट तरीके से दिए जाने के खिलाफ उसका गुस्सा सड़क पर आया था। इन तमाम देशों के मध्यवर्गीय उभार में एक ही तर्क काम कर रहा है- वो यह, कि पूंजीवादी लोकतंत्र का जहां जैसा चरण है, उसी के मुताबिक वहां की सरकार और ‘स्टेट’ के बीच दृश्य-अदृश्य रिश्ता भी है और यही लुकाछिपी मध्यवर्ग के प्रदर्शनकारियों का एजेंडा तय करेगी। भारत में यह एजेंडा राजनीतिक नहीं है, फिलहाल सिर्फ जीवन को सुगम और सरल बनाने पर केंद्रित है। इस बात को समझने के लिए अरविंद केजरीवाल लिटमस टेस्ट का काम करते हैं, राजनीतिक पार्टी बनाने के बाद मध्यवर्ग में जिनकी साख कम हुई है और इंडिया गेट से शुरू हुआ प्रदर्शन बगैर उनके या किसी के भी नेतृत्व के चलता रहा है (जिसे ‘स्वत: स्फूर्त’ कहा जा रहा था)। दरअसल, भ्रष्टाचार या महिलाओं पर हिंसा का मुद्दा ‘अपराध’ की श्रेणी में आने के अलावा भारत में राजनीति करने के पुराने तौर-तरीकों से भी वास्ता रखता है। जो नया मध्यवर्ग उभरा है, उसे नई राजनीति चाहिए। ऐसी राजनीति, जो जवाबदेह हो, पारदर्शी हो, जनतांत्रिक हो, जो सरकारी सेवाओं तक पहुंच में रिश्वत की आड़ न खड़ी करती हो, जिसके साये तले जीने में हिंसा और बर्बरता से सामना न होता हो। दिक्कत यह है कि मध्यवर्ग का यह मांगपत्र बुनियादी तौर पर राज्य को संबोधित होता है, लेकिन राज्य की डायनमिक्स को समझे बगैर एक नादान अराजनीतिक सदिच्छा में तब्दील हो जाता है। बलात्कारी को फांसी की सज़ा, उसे नपुंसक बनाने की मांग, बलात्कृत की आत्मा की शांति के लिए हवन, लोकपाल के लिए अनशन आदि अराजनीतिक सदिच्छाएं ही हैं। इनसे सहमत या असहमत होना अपनी जगह है, लेकिन इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि मार्क्स के मुताबिक मध्यवर्ग एक ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा कर रहा है।
आगे बढ़ने से पहले मार्क्स की उक्तियों के आधार पर हमने जो बातें समझी हैं, उन्हें बिंदुवार रख लेते हैं:
1. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में मध्यवर्ग की राजनीतिक आकांक्षाओं का उभार उसका ऐतिहासिक कार्यभार है।
2. इसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था, जो संख्याबल के कारण अब हो रहा है।
3. इसकी बड़ी वजह नए समाज के मुताबिक नए किस्म की राजनीति की नामौजूदगी है।
4. फिलहाल इसका कुल उद्देश्य मध्यवर्ग के लिए एक सुगम सरल जिंदगी के हालात हासिल करना जान पड़ता है।
5. उपर्युक्त उद्देश्य मार्क्स द्वारा बताए गए अंग्रेज़ों के ‘पुनर्रचना’ के अधूरे प्रोजेक्ट का हिस्सा माना जा सकता है।
6. यह अब तक राजनीतिक आंदोलन की शक्ल नहीं ले सका है, न ही व्यापक असंगठित शहरी मध्यवर्ग के एजेंडे में इसे राजनीतिक शक्ल देना है (इंडिया गेट ‘अपराइजिंग’ में अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक पार्टी की अप्रासंगिकता और उनके गांव केंद्रित ‘स्वराज प्रोजेक्ट’ से शहरी युवाओं की आकांक्षाओं का बेमेल होना इसका लिटमस टेस्ट है)
7. साठ और सत्तर के दशक में हुए आंदोलनों का यह विस्तार है क्योंकि रोजर स्क्रूटन के मुताबिक ‘प्रेशियस मोमेंट ऑफ डाउट’ तब भी नहीं था और अब भी नहीं है।
अब सवाल उठता है कि हाल के दिनों में हुए प्रदर्शनों का किया क्या जाए? द इकनॉमिस्ट अपने विश्लेषण के आखिरी पैरा में कहता है कि ये प्रदर्शन बड़ी आसानी से व्यापक शक्ल अख्तियार कर सकते हैं। यह शक्ल कैसी होगी, इस पर वह बात नहीं करता। इन प्रदर्शनों का भावी रूप क्या होगा, इनकी राजनीति किधर झुकेगी, इसके कई संकेत उस अस्मितावादी/संविधानवादी राजनीतिक खेमे से आ रहे हैं जो सिरे से इन्हें सवर्णवादी, शहरी और मध्यवर्गीय कह कर नकारते रहे हैं। प्रदर्शन स्थलों पर मौजूद कुछ बेमेल छवियां भी मार्क्स के ‘डाउट एवरीथिंग’ का आवाहन करने को मजबूर करती हैं। मसलन, बलात्कार विरोधी प्रदर्शनों के बाद आए कुछ प्रतिक्रियावादी बयानों को देखें। संघ प्रमुख मोहन भागवत, संत आसाराम बापू, राष्ट्रपति पुत्र अभिजित मुखर्जी, समाजशास्त्री आशीष नंदी, छत्तीसगढ़ महिला आयोग की विभा राव, मध्यप्रदेश की एक महिला वैज्ञानिेक, ठाकरे बंधु- यह सूची अनंत है। ऐसे बयानों से नए साल का शुरुआती पखवाड़ा बजबजाता रहा। उसके बाद तुरंत मध्यवर्गीय आक्रोश को दो सैनिकों की हत्या के बहाने पाकिस्तान की तरफ मोड़ दिया जाता है। भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल पर हुए प्रदर्शनों को याद करें। लहराते तिरंगे झंडे किसी राष्ट्रीय आंदोलन की मानिंद मध्यवर्गीय मानस में चिपक गए हैं। गोरक्षा समितियों से लेकर सर्वाधिक भ्रष्ट संघों तक सब प्रदर्शन में मौजूद रहे थे। ठीक वैसे ही जिस तरह बलात्कार विरोधी प्रदर्शनों में भगत सिंह क्रांति सेना के कार्यकर्ता मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को महिला विरोधी गालियां दे रहे थे और सदिच्छाओं से प्रेरित रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन गायत्री मंत्र का जाप व हवन कर रहे थे। ये प्रतीक हैं, जो संदेह पैदा करते हैं। लोकपाल आंदोलन के दौर में ही मारुति कारखाने में मजदूर हिंसा हुई। जो मध्यवर्ग सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ था, वह मजदूरों के खिलाफ भी खड़ा दिखा। आज वही तबका पाकिस्तान पर हमले की बातें कर रहा है। बीच में चीन विरोध का हिस्टीरिया भी रचा गया था। कह सकते हैं कि चूंकि यह अराजनीतिक मध्यवर्ग है, इसलिए परंपरागत छवियां, नारे, प्रतीक सब अपने साथ लेकर आएगा, लेकिन सवाल जायज़ है कि मध्यवर्ग जो कर रहा है यदि वह उसका ऐतिहासिक कार्यभार है, तो इसकी भावी राजनीतिक शक्ल कैसी होगी?
‘टी पार्टी’ का खतरा
जिस दौरान अन्ना हज़ारे का आंदोलन खड़ा हुआ था, कई टिप्पणीकारों की ओर से अलग-अलग मंचों पर इस आंदोलन को कुछ नुस्खे बताए गए थे, सुझाव जारी किए गए थे। ये सुझाव या सिफारिश की शक्ल में न होकर खबरों और विश्लेषणों के आवरण में थे। हम नहीं जानते कि भारत के मध्यवर्ग को आंदोलन के नुस्खे कहां से मिल रहे हैं, लेकिन खबरों के आधार पर एक अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसकी दिशा क्या रहने वाली है। मसलन, वॉल स्ट्रीट जर्नल के स्तंभकार सदानंद धूमे ने सबसे ज्यादा बार और सबसे ज्यादा खबरों में मध्यवर्ग के इस उभार के लिए ”टी पार्टी” शब्द का इस्तेमाल किया। इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर लगाई जिसके शीर्षक में यही शब्द था, हालांकि जिसका आशय यह था कि अन्ना हज़ारे चाय के प्याले में तूफान उठा रहे हैं। सप्ताहांत पर, खासकर दिल्ली की सड़कों पर जुटने वाली शहरी भीड़ को कई टिप्पणीकारों ने ऐसा ही समझा था। खासकर अस्मितावादी राजनीतिक धड़े ने- जो ऐसे लोकप्रिय प्रदर्शनों को सवर्णवादी जमावड़ा कहता रहा- तो आज तक चाय की प्याली में तूफान के राजनीतिक निहितार्थ समझने-समझाने का कोई काम नहीं किया और यह रवैया दिल्ली में हुए बलात्कार के बाद के प्रदर्शनों के सिलसिले में भी जारी रहा। वॉल स्ट्रीट जर्नल में सदानंद धूमे और ‘सीज़नल मैगज़ीन’ के स्तंभों को ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि वे इस मध्यवर्गीय जनाक्रोश को वास्तव में अमेरिका के ”टी पार्टी मूवमेंट” के बरक्स खड़ा कर के देख रहे थे। ”सीज़नल मैगज़ीन” अपने एक स्तंभ का शीर्षक लगाता है, ”वॉट अन्ना हज़ारे कैन लर्न फ्रॉम दि यूएस डेट क्राइसिस बाइ टी पार्टी।” लेख में भारत के भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों और अमेरिकी रिपब्लिकनों द्वारा चलाए जा रहे संगठित टी पार्टी आंदोलन की तुलना करते हुए कहा गया है:
”…भले ही वह किसी अच्छे उद्देश्य के लिए खड़ा नहीं है तो क्या, लेकिन अमेरिकी टी पार्टी से न सिर्फ भारत को बल्कि किसी भी लोकतंत्र को और वहां मौजूद ग्रासरूट आंदोलन को सीख लेनी चाहिए… हज़ारे के आईएसी के बरक्स टी पार्टी के साथ रणनीतिक फायदा यह रहा कि उसने ‘व्यवस्था’ में सेंध लगाई, व्यवस्था के साथ मिलकर काम किया, व्यवस्था को हाइजैक किया और फिर उसे हरा दिया। इसके बजाय इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने व्यवस्था पर ही सवाल खड़ा कर दिया, और व्यवस्था ने इसी नकार का इस्तेमाल आईएसी को खत्म करने में कर डाला।”
ऐसे नुस्खों से क्या समझा जाए?
समझने के पहले आइए जान लेते हैं कि अमेरिका का टी पार्टी मूवमेंट क्या है। इसे इस तरह समझें, कि जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने भारतीय जनसंचार संस्थान की हिंदी पत्रकारिता से अपने ‘काडरों’ का रिक्रूटमेंट कर के दस साल पहले ‘परिवर्तन’ शुरू किया था, बराक ओबामा के सत्ता में आने के बाद ठीक इतने ही छोटे स्तर पर अमेरिका में एक वेब चैट फोरम पर टी पार्टी आंदोलन का आरंभ हुआ। ‘मार्केट टिकर’ नाम के एक लोकप्रिय शेयर बाजार ऑनलाइन फोरम से जुड़े कुछ लोग सरकारी नीतियों पर चार साल पहले बात किया करते थे। वेबसाइट के संचालक ओबामा के वित्त विभाग के प्रमुख लैरी समर्स और टिम गीदनर के चुने जाने से खफ़ा थे क्योंकि वैसे ही लोगों के चलते 2008 की आर्थिक मंदी आई थी। चूंकि इन्हें कई समान विचार वाले लोग इंटरनेट के इस मंच पर मिल गए, तो इन्होंने विचार-विमर्श को प्रदर्शनों में तब्दील करने का फैसला किया। एक ऑनलाइन संदेश में यह सुझाव सामने आया कि क्यों न नेताओं और नीति निर्माताओं को टी बैग भेंट किए जाएं। (याद करें कुछ साल पहले हमारे यहां एक फिल्म से प्रेरित गांधीगीरी इसी का एक देसी संस्करण थी और भूलने की बात नहीं है कि अन्ना हज़ारे को बार-बार हमारे मीडिया में आज का गांधी बताया गया है।) जैसे यहां गांधी का आवाहन किया गया, ठीक वैसे ही इस अमेरिकी समूह ने 1773 में हुई मशहूर बोस्टन टी पार्टी का आवाहन किया (बोस्टन टी पार्टी अमेरिकियों के एक विरोध प्रदर्शन का नाम था जो अंग्रेज़ औपनिवेशिक शासकों द्वारा चाय पर टैक्स बढ़ाने के खिलाफ आयोजित किया गया था। इसके तहत कुछ अमेरिकी चाय के डिब्बे ले जाने वाले जहाज़ों पर चढ़ गए और सारी चाय बोस्टन सागर में उन्होंने बहा दी)। फोरम की एक प्रभावशाली सदस्य को टी बैग भेंट करने का विचार जंच गया और उनके सहयोग से इस अभियान में गति आई। बात को लोगों तक पहुंचाना ज़रूरी था। सीएनबीसी टेलीविज़न के टिप्पणीकार रिक सेंटेली ने इसमें बड़ा योगदान दिया। शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज की छत पर प्रसारित किए गए एक टीवी शो के माध्यम से उन्होंने इस अभियान का प्रचार-प्रसार देश भर में कर डाला। इस तरह यह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन में तब्दील हो गया। आप चाहें तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन से इसकी तुलना के क्रम में भारतीय टेलीविज़न के कुछ नामी चेहरों को ले सकते हैं जो बिना थके लगातार अन्ना हज़ारे के आंदोलन को जेपी आंदोलन के बाद की सबसे बड़ी क्रांति बताते रहे और जंतर-मंतर पर तैनात चैनलों के जि़मी जि़प कैमरे हज़ारों की भीड़ को लाखों की दिखाते रहे। आईबीएन-7 के आशुतोष, टाइम्स नाउ के अर्णब गोस्वामी और ज़ी न्यूज़ के पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अतिरिक्त उत्साह से इस आंदोलन के दौर में एंकरिंग की थी। कहा जाता है कि पुण्य प्रसून खुद अन्ना हज़ारे की कोर टीम में उस वक्त थे (एक साझा पत्रकार मित्र की ओर से इस लेखक के पास टीम अन्ना के साथ रह कर समूचे घटनाक्रम पर पुस्तक लिखने का प्रस्ताव भी भिजवाया गया था और संभावित प्रकाशक आदि को लेकर भी बातें हुई थीं)।
बहरहाल, टी पार्टी के चाहने वाले अधिकांश उच्च मध्यवर्गीय अमेरिकी हैं। इसके सिद्धांतों के मुताबिक टी पार्टी आंदोलन को न तो डेमोक्रेट माना जा सकता है और न ही रिपब्लिकन, बल्कि वे एक ऐसी नीति का प्रचार कर रहे थे जिसके बरक्स दक्षिणपंथी रिपब्लिकन खुद को बीच में खड़ा पाते थे। इसके बावजूद टी पार्टी चलाने वालों को पता था कि वे दोनों के मुकाबले राजनीतिक रूप से खड़े नहीं हो सकते, इसलिए उन्होंने चुपके-चुपके रिपब्लिकन की कतारों में सेंध लगानी शुरू कर दी। 2010 में अमेरिकी कांग्रेस के मध्यावधि चुनाव आते-आते हालत यह हो गई कि रिपब्लिकन पार्टी को टी पार्टी का समर्थन कुछ उम्मीदवारों के लिए लेना पड़ा। इसका नतीजा रिपब्लिकंस के लिए सकारात्मक ही रहा और डेमोक्रेट पार्टी को मुंह की खानी पड़ी। अमेरिका में 2011 में आए कर्ज संकट के दौरान लोगों के गुस्से को चीन के खिलाफ मोड़ कर टी पार्टी ने राष्ट्रवादी ज़ायका भी अपना लिया और अगस्त 2011 में उसके भीतर मौजूद महज़ 50 लोगों के एक प्रभावशाली धड़े ने अमेरिकी संसद को कर्ज संकट पर एक संकल्प पारित करने को बाध्य कर डाला। यदि ऐसा न होता तो अमेरिका की ट्रिपल ‘ए’ वाली रेटिंग छिन जाती और अमेरिकी राजकोष कर्ज के बोझ तले दम तोड़ देता। अमेरिकी संसद का कर्ज संकट पर संकल्प उसी 1 अगस्त 2011 को पारित हुआ था जब भारतीय संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ था और उसके सामने सबसे पहला एजेंडा जनलोकपाल की जगह सरकारी लोकपाल विधेयक को पारित करना था। संयोग देखिए कि दोनों ही देशों में संसद को तकरीबन बंधक बना लेने की स्थिति तक पहुंचाने में दो ज़मीनी आंदोलन कामयाब हो चुके थे। हालांकि इसके बाद जो हुआ, वहां तुलनाएं खत्म हो जाती हैं। टी पार्टी आंदोलन कामयाब हो जाता है और इंडिया अगेंस्ट करप्शन दम तोड़ देता है।
इस अलहदा अंत की वजह अमेरिका के टी पार्टी आंदोलन और भारत के मध्यवर्गीय उभार के बीच की कई असमानताएं हैं। नेता से लेकर नीति तक कई फर्क हैं। इसके बावजूद जिस किस्म के नुस्खे विदेशी मीडिया की ओर से अन्ना हज़ारे के आंदोलन को अप्रत्यक्ष तौर पर मिलते रहे, उन्हें ध्यान से पढ़ने पर ऐसा लगता है कि शायद समूचे आंदोलन को रेडिकल दक्षिणपंथी अभियान के रूप में तब्दील करने की मंशा पश्चिमी सलाहकारों की रही होगी। इस तुलना पर और टी पार्टी आंदोलन की रणनीति पर इकलौता मार्क्सवादी विश्लेषण अमेरिका की फोर्थ इंटरनेशनल से उपजी लीग फॉर दि रिवॉल्यूशनरी पार्टी ने किया है। अपनी पत्रिका ”प्रोलितारियन रिवॉल्यूशन” के अंक 83 में पार्टी कहती है कि ओबामा के चुने जाने के बाद हुआ टी पार्टी आंदोलन का उभार दरअसल हर तरह की नस्लवादी व प्रतिक्रियावादी ताकतों का एक नाटकीय जुटान था जिसकी अभिव्यक्तियां बाद में दुनिया भर में देखने को मिली हैं। पार्टी ने अपने विश्लेषण में जितनी बातें गिनाई हैं, यदि उनके आधार पर भारत के लोकप्रिय मध्यवर्गीय संघर्षों की समीक्षा और तुलना की जाए, तो तमाम ऐसे निष्कर्ष सामने आ सकते हैं जो अब तक फतवेबाज़ी के स्वर में अस्मितावादी समूहों ने, खासकर दलित अधिकार समूहों ने गिनाए हैं। लेख कहता है, ”दि एलीफैंट इन दि रूम इज़ रेसिज़्म।” हमारे यहां के दलित अधिकार समूह पिछले चार साल से जाति के निकष पर तमाम लोकप्रिय आंदोलनों को अगर खींचते रहे हैं, तो फिर इसमें कोई दिक्कत नहीं दिखनी चाहिए। इस लंबे दस्तावेज़ का एक पैरा आंख खोलने वाला है:
”टी पार्टी को स्वत: स्फूर्त लोकप्रिय प्रदर्शनों की तरह सजाया-संवारा गया है- भले ही दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी इसके कार्यकर्ताओं को मजदूर आंदोलनों में दिखने वाले परस्पर जुड़े हुए समूहों जैसा बताने के बजाय स्वतंत्र रूप से प्रेरित नागरिक बताने की कोशिशों में लगे हों। और वास्तव में, आंदोलन के कुछ पहलू ऐसे हैं जो ऐसी छवि निर्मित भी करते हैं। टी पार्टी के कई समर्थक स्वतंत्र राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर इसमें हिस्सा लेते हैं और अपने तईं इसकी गतिविधियों में सांस्कृतिक रचनात्मकता का पुट भर देते हैं- जैसे, क्रांतिकारियों जैसे कपड़े पहन कर और घर में बनाए हुए प्रतीक चिह्न साथ लाकर। जल्दबाज़ी में गठित की गई टी पार्टी की स्थानीय इकाइयों ने आंदोलन के भीतर ही मौजूद कुछ ज्यादा संगठित ताकतों के हाथ का औज़ार बनने से इनकार कर दिया है। ये ताकतें हालांकि खुद भी विचारधारात्मक और संगठनात्मक लाइन पर बंटी हुई हैं…।”
ऊपर के पैरा में टी पार्टी की जगह आईएसी लिख दें तो कुछ भी बदलने की ज़रूरत नहीं लगेगी, सब कुछ वैसा ही लगेगा जैसा हमने देखा-सुना है। तकरीबन समूचे दस्तावेज़ में यह साम्यता मौजूद है। दस्तावेज़ हालांकि एक जगह साफ कहता है, ”टी पार्टी आंदोलन का चाहे जो हश्र हो, यह अमेरिकी समाज में मौजूद गहरे असंतोष का लक्षण है जो कि संकट के साथ और गहराएगा।” यह बात निश्चित तौर पर भारत के साथ भी लागू होती है। जिस तरीके से हमने पिछले दिनों सड़कों पर आक्रोश को फैलते देखा है, इतना तय है कि लोगों के भीतर असंतोष है, गुस्सा है और अब वह निकल रहा है। हो सकता है ऐसे आक्रोश की दिशा टी पार्टी की ओर रहे, न भी रहे, या कोई और शक्ल अख्तियार कर ले, लेकिन जो भी हो, अपनी सामाजिक-जातिगत संरचना और राजनीतिक नुस्खों से यह संकेत देता है कि आने वाले दिनों में पहले से कहीं ज्यादा दक्षिणपंथी आंदोलन कैसा दिखेगा। जैसे-जैसे पूंजीवाद का आर्थिक और सामाजिक संकट तीखा होगा, सबसे कट्टर दक्षिणपंथी तत्व बिल्कुल सामने आकर अपने प्रकट फासीवादी सामाजिक कार्यक्रमों का खुलासा करेंगे, वामपंथी यूनियनों पर हमले बढ़ेंगे, वंचित जनता पर हमला और तेज़ होगा और सैन्यवाद के प्रति आम लोगों में इस कदर समर्थन बढ़ेगा जो किसी भी अमेरिकी सैन्य हमले को मुंह चिढ़ाने के काबिल होगा। भारत का ‘लोकप्रिय’ आंदोलन और अमेरिका का टी पार्टी आंदोलन ज़ाहिर है ऐसी स्थिति अपने तईं लाने में अक्षम होगा, लेकिन आने वाले दिनों में साम्राज्यवाद पोषित दक्षिणपंथी राजनीति की दिशा का ये थर्मामीटर ज़रूर हैं। इन्हें इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
संदेह ज़रूरी है
एक ताज़ा उदाहरण यहां मौजूं होगा। बलात्कार की घटना के बाद दो सप्ताह तक प्रदर्शनकारियों से पटी दिल्ली की सड़कों पर आज सामान्य स्थितियां हैं। आक्रोश जब सड़कों पर फैलता है तो दिखता है, लेकिन उसकी धूल जब वातानुकूलित सम्मेलन कक्षों में बैठने लगती है, तो उसे देखने आम लोग नहीं पहुंचते। खबरों का न पहुंचना भ्रम पैदा कर सकता है। ऐसी ही एक खबर दिल्ली के फिक्की सभागार से 7 जनवरी की शाम निकली। यहां महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए चलाए जा रहे वैश्विक प्रचार अभियान ”वन बिलियन राइजि़ंग” का एक कार्यक्रम आयोजित था जिसमें प्रसिद्ध नाटक ”वेजाइना मोनोलॉग्स” की रचयिता स्त्रीवादी लेखिका और कार्यकर्ता ईव एंसलर आई हुई थीं। एनजीओ जगत के तकरीबन सभी जाने-माने चेहरों से सजे इस कार्यक्रम को आयोजित करने में ऐक्शन एड, संगत और जागोरी नाम की तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं का योगदान था जिन्हें विदेशी अनुदान मिलता है। यह संयोग नहीं है कि ‘फर्स्टपोस्ट’ को दिए अपने साक्षात्कार में ईव एंसलर ने अमेरिका के ओहायो में हुए एक बलात्कार की तुलना दिल्ली के बलात्कार कांड से की और अमेरिका के लोगों को दिल्लीवासियों के प्रदर्शनों से सबक लेने की सलाह दी। ऐन प्रदर्शन के माहौल में विदेशी पूंजी से संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं का कुछ इस तरह से सक्रिय हो जाना संदेह पैदा करता है। अगर अन्ना हज़ारे के आंदोलन को टी पार्टी से नुस्खे मिल रहे हैं, तो बलात्कारों से त्रस्त अमेरिका को दिल्ली से संदेश दिया जा रहा है। जनता के आंदोलन पर सत्ता प्रतिष्ठान की त्वरित प्रतिक्रिया तो अपेक्षित है, लेकिन इस कार्यक्रम से निकलते राजनीतिक निहितार्थ चौंकाने वाले हो सकते हैं। यह महज़ एक उदाहरण है। इससे पहले अरविंद केजरीवाल की विदेशी फंडिंग का मामला उठ ही चुका है।
दरअसल, जिन्हें हम ‘लोकप्रिय’ कह रहे हैं, उन पर शक करने के वाजिब कारण हैं। ये आंदोलन वास्तव में उतने लोकप्रिय नहीं हैं, और आंदोलन तो ये बिल्कुल भी नहीं। इस समझ पर पहुंचने के लिए हालांकि हमें संदेह के समकालीन साक्ष्यों और इतिहास के समरूपी विश्वासघातों को मिलाकर देखना होगा। आम लोग जब विरोध करते हैं, प्रदर्शन करते हैं, तो वे भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचते या जानते। उन्हें बेशक अपने हितों के बारे में पता होता है। अपनी आदतों के बारे में, परंपराओं के बारे में, उम्मीदों के बारे में और यह भी, कि कौन सी उम्मीदें जायज़ हैं। जब वे प्रदर्शन करते हैं, तो यह सनातन संघर्षरत बुनियादी वर्गों के हित में नहीं होता जो दुनिया को उलट-पुलट कर रख देने का सपना पाले हुए हैं। मध्यवर्ग का प्रदर्शन अपनी धारणाओं, हितों, जीने के तरीकों, उम्मीदों, बात-व्यवहार आदि को बचा ले जाने के लिए होता है, जो कि मिल कर उनकी पहचान को गढ़ते हैं। इनका आक्रोश चूंकि संघर्षरत बुनियादी वर्गों के आक्रोश का प्रतिनिधि नहीं होता, इसीलिए ऐसी घटनाएं दुर्लभ होती हैं, जैसा हमने दिल्ली में पिछले दो साल के दौरान देखा। इसीलिए संख्याबल के आधार पर भी ये प्रदर्शन पहले से बड़े हो सकते हैं। इन्हें हाइजैक करने की कोशिशें भीतर और बाहर दोनों जगहों से होती हैं। दृष्टि, विचार और भविष्य की परिकल्पना के बगैर इनका पटरी से उतरना, फासिस्ट हो जाना अपरिहार्य है। बावजूद इसके जैसा मैंने शुरुआत में कहा, ऐन मौके पर इन्हें नैतिक समर्थन देना ही होता है क्योंकि जिन मुद्दों पर ये लड़ाइयां खड़ी होती हैं, वे बुनियादी तौर पर इंसानी होते हैं। उस वक्त किसी मार्क्सवादी की विचार पद्धति, विश्लेषण के मार्क्सवादी औज़ारों का चुनाव काम नहीं आता। शायद यही वजह है कि मार्क्सवाद बदलाव के ऐन क्षणों में दिमाग के किसी अंधेरे तहखाने में धूल फांकता रहता है, हालांकि घटना पर धूल बैठ जाने के बाद काम वही आता है।
यह सही समय है कि हम अपने-अपने तहखानों से मार्क्सवाद के उन्नत सामाजिक विज्ञान को बाहर निकाल कर बदल रहे घरों, बदल रही सड़कों और बदल रहे राजपथ पर ले जाएं। मध्यवर्ग यदि ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करने निकला है, तो हम उसे नैतिक समर्थन देते हुए उसके वर्गीय चरित्र का सटीक परदाफाश करें और उसके अपरिहार्य दक्षिणपंथी रुझानों व साम्राज्यवाद पोषित फासिस्ट ताकतों द्वारा उसे हाइजैक कर लेने की साजि़शों के प्रति चेताएं। एक आखिरी बात- संघर्ष के ऐन क्षण में भी संदेह करना न छोड़ें। संदेह के बहुमूल्य क्षण ही आखिर में काम आएंगे।
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