(अखिलेश कुमार संघर्षरत होनहार युवा पत्रकार हैं। कल ही इनके मन में कुछ खयाल स्वतंत्रता दिवस को लेकर आए। रात बीती, तो सुबह लाल किले से भी कुछ खयाल छोड़े गए। इन दोनों खयालों को मिलाकर और थोड़ा संपादन व थोड़ा वक्त लगाकर इस गणतंत्र की आज़ादी की एक तस्वीर उभरी है- मॉडरेटर)
अखिलेश कुमार |
रात के ग्यारह बजकर दस मिनट हुए हैं। राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर काफी भीड़ है। स्वतंत्रता दिवस को लेकर जगह-जगह चेकिंग हो रही है। सुरक्षा कारणों से मेट्रो बंद होने की उद्घोषणा हो रही है। लोग भागते हुए अपनी-अपनी मेट्रो को किसी तरह पकड़ लेना चाहते हैं। उनके मन में डर है कि कहीं यह अंतिम मेट्रो तो नहीं। वे डरते हैं कि अगर आखिरी गाड़ी छूट गई तो ”नियति से उनका साक्षात्कार” अधूरा रह जाएगा। आज से 68 साल पहले आधी रात को कुछ इसी उधेड़बुन में 36 करोड़ लोगों का अपनी ”नियति से साक्षात्कार” हुआ था। आज सवा अरब लोग राष्ट्रीय सुरक्षा की हिदायतों के बीच तीव्र वृद्धि वाली इस व्यवस्था से त्रस्त, रह-रह कर आपस में टकराते हुए, एक-दूसरे के कंधे पर पैर रखकर किसी काल्पनिक नसैनी के सहारे अपनी नियति को पहुंच जाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि इस गणतंत्र की नियति राजीव चौक से गुड़गांव और नोएडा से द्वारका के बीच 15-18 हजार रुपये महीने में दम तोड़ देने को अभिशप्त है लेकिन उनके कानों में लाल किले से बार-बार यह सुनाया जा रहा है कि हमारा गणतंत्र मजबूत हो रहा है। रोज़-रोज़ बदलते हुए रंगों की सदरी पहनने वाला एक आदमी लाउडस्पीकर की गों-गों में सैकड़ों बेरोजगार नौजवानों की उम्मीदों की कब्र खोदे जा रहा है और 20-30 साल के 80 फीसद नौजवान अपने कान में स्मार्टफोन का फुंतरू खोंसे स्मार्ट शहरों की उम्मीद में मुरझाए जा रहे हैं।
एक तंत्र, करोड़ों गण और एक नियति |
आज़ादी दिवस सबको मुबारक हो। जिन लोगों ने ‘’वाशिंगटन कनसेन्सस” की आड़ में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर संसाधनों को लूटने का लाइसेंस प्राप्त कर लिया था, उन्हें आज़ादी मुबारक। उन निजी कंपनियों को मुबारक जिन्हें ओएनजीसी के खोजे तेल भंडार कौडि़यों के मोल मिल गए। देश की जनता को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान मुबारक, अंबानीजी को कृष्णा-गोदावरी बेसिन के तेल भंडार की लूट मुबारक। छोटे शहरों और कस्बों के भुखमरे लोगों को वहां खुल रहे मैक्डोनाल्ड, केन्टकी फ्राइड चिकन की आज़ादी मुबारक। उन पत्रकारों को वे प्रायोजित फीचर आलेख लिखने की आज़ादी मुबारक जो विदेशी रेस्तरां में खाना खाने के प्रचलन को भारत की नई परंपरा बता रहे हैं। इस देश के गरीबों को खाद्य सूरक्षा कानून मुबारक जिसे सब्सिडी की भय दिखाकर लगातार टाला जा रहा है। लोक कल्याणकारी योजनाओं की कीमत पर प्रधानमंत्री को दो दर्जन विदेशी दौरे करने और उनकी पार्टी को हाइ-टेक चुनाव प्रचार में अरबों रुपयों लुटाने की आज़ादी मुबारक। हम सभी को विकास का वह मॉडल मुबारक जिसमें महज 20 फीसद लोगों की आर्थिक तोंद दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।
मजबूत होते इस गणतंत्र में सबसे बड़ी आज़ादी दलाल बनने की है। आप मौजूदा हालात को विकास का नया युग बताएं, आपको सारी आज़ादी है। आपको चिल्लाने की आज़ादी है कि भारत की आर्थिक विकास दर 9 फीसदी से आगे जा चुकी है और जल्द ही 10-12 फीसदी के आंकड़े को पार कर लेगी। रेडियो, टीवी चैनल, अखबार, रंगीन लेआउट वाली पत्र-पत्रिकाओं के दलाल बुद्धिजीवियों-पत्रकारों, मल्टीनेशनल कंपनियों के दलाल सीईओ, दलाल नेता-नौकरशाह एक सुर में यही राग अलाप रहे हैं। उनका मानना है कि भारत, उभरती हुई अर्थव्यवस्था की अगली कतार में है और जल्द ही आर्थिक महाशक्ति बनने वाला है। वे ऐसा कह सकते हैं क्योंकि उन्हें कहने की आज़ादी है। उन्हें ऐसा कहने की आज़ादी इसलिए है क्योंकि उन्हें इस मज़बूत होते गणतंत्र में दलाल बनने की आज़ादी है। दलाल मीडिया एक सुर में 1991 के आर्थिक सुधारों का बखान करते नहीं थक रहा है। आप कह सकते हैं कि मीडिया इस देश में आज़ाद है। हकीकत यह है कि जिस समय तथाकथित आर्थिक विकास दर 9 फीसदी छूने का ढ़ोल पीटा जा रह था, उस वक्त रोजगार केवल 0.17 फीसदी की दर से बढ़ रहा था। आप इसे कह नहीं सकते क्योंकि आप ऐसा कहने को आज़ाद नहीं हैं। आज़ादी अच्छी बातें कहने के लिए होती है। बुरी बातों से निराशावाद फैलता है। लाल किले से यही कहा जा रहा है। इस देश में आशावादी होने की आज़ादी है। आशावादियों को आज़ादी मुबारक।
आशावाद का लहराता पंजा |
लाल किले से निराशावादी बातें नहीं होंगी। वहां कांच के केबिन में खड़ा पगड़ीधारी भाइयों और बैनों को यह नहीं बताएगा कि जब आईटी सेक्टर में काम करने वालों और बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रबंधकों की ऊंची तनख्वाहों की चर्चा हो रही थी, आइआइएम और आइआइटी के डिग्रीधारकों की लाखों-करोड़ों में बोली लग रही थी, ठीक उसी वक्त मज़बूत होते इस गणतंत्र के बीए-एमए, एबीबीएस, बीटेक धारक और लंगड़े मीडिया संस्थानों के दलालों के चंगुल में फंसे हजारों छात्र नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे थे। इससे निराशा फैलेगी। रोज़ अपनी सफेद दाढ़ी छंटवाने वाला एक गुजराती आपको यह नहीं बताएगा कि इस देश के लड़के पुलिस और फौज की भर्ती के दौरान लाठियां खा चुके हैं या ट्रेन की छतों से गिरकर मर चुके हैं। ना… इससे निराशा फैलेगी। उसके गुर्गे कहते हैं कि खुदकुशी करने वाले किसान ”नपुंसक” हैं। ये ठीक है। इस बयान में आशावाद है। अब देश के सारे किसान नपुंसकता को दूर करने के लिए बाज़ार का मुंह देखेंगे। उनके लिए कृषि और किसान कल्याण योजना मंत्रालय बनाया जा चुका है। लाल किले से आवाज़ आती है, ”निराशावादी बातें मत कीजिए। हम इस मंत्रालय के रास्ते कृषि को खत्म कर के किसानों का कल्याण करेंगे।” सारे आशावादी किसानों को आज़ादी मुबारक। निराशावादी किसानों को खुदकुशी।
अतीत में मत झांकिए। इस देश में भूल जाने की आज़ादी सबको है। गलती से भी मत याद कीजिए कि आजादी के बाद जनता की कमाई से खड़े किए गए सार्वजनिक क्षेत्र के जिन निगमों को नेहरू ने नए भारत का ’मंदिर’ और अर्थव्यवस्था की ’नियंत्रण चौकी’ कहा था, अगले बीस वर्षों में उनकी बंदरबांट हो गई। भूल जाइए कि प्राकृतिक गैस के 95 फीसदी भारतीय कारोबार पर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गेल) का नियंत्रण था और सरकार ने इसका 20 फीसदी मालिकाना हिस्सा 70 रुपए प्रति शेयर के भाव से तब बेच दिया जब उसके शेयरों का बाजार भाव 183 रुपए था। एकदम भुला दीजिए कि इस सौदे से रातों-रात हजारों करोड़ रुपए कुछ पूंजीपतियों ने कमा लिए। भूल जाइए कि बीएसएनएल के जिस शेयर की कीमत 1100 रुपए थी, उसे महज 750 रुपए के भाव से बेचा गया। मत याद कीजिए एनरॉन को, जिसने डाभोल विधुत परियोजना से बिजली उत्पादन शुरू करने से पहले ही अरबों रुपए ऐंठ लिए थे और महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को कंगाल बना दिया। आपको निराशावाद छोड़ना होगा। भूल जाना होगा कि 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, ताबूत, कोयला, व्यापमं, यूरिया, धान नामों पर कभी इस देश में बात हुई थी। व्यापमं पर बोलना मना है। उससे निराशा फैलती है। लाल किले का लाउडस्पीकर कहता है- सुषमा स्वराज या वसुंधरा राजे को दिमाग से निकाल दीजिए, हम मानवतावादी हैं, मानवीय काम कर के भूल जाते हैं। सुना नहीं है? नेकी कर, दरिया में डाल। हमने सब कुछ दरिया में डाल दिया है। संसद को भी। बस, यह देश बचा है।
सुषमा स्वराज के ”मानवतावाद” के खिलाफ़ कुछ ”निराशावादी” गण |
मानते हैं कि इस देश में हर तरह की चीज़ें हैं, अच्छी और बुरी, लेकिन आप क्या देखें और क्या नहीं यह तो आपके नज़रिये पर निर्भर करता है। आप आशावादी होंगे तो आपको उन लाखों ”नपुंसक” होते किसानों की चीख नहीं सुनाई देगी जिनकी जमीनों को कौड़ियों के मोल खरीदकर आप जैसे आशावादियों के लिए नोएडा, ग्रेटर नोएडा और नवी मुंबई को बसाया गया है। बस, कान में डिजिटल इंडिया का इयरफोन खोंसने और आंख पर स्वच्छ भारत का चश्मा पहनने का स्किल डेवलपमेंट कर लें, फिर आपको दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर बस रहे विलासितापूर्ण शहर नहीं दिखायी देंगे। पोस्को और वेदांता के चंगुल में फंसे उड़ीसा के हजारों आदिवासियों की चीखती रूहें आपके सपने में नहीं आएंगी अगर आप मेक इन इंडिया का मंत्र अपना लें। प्राकृतिक संसाधनों और खनिज संपदा की नीलामी करने के लिए पर्यावरण और दूसरे कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए उजाड़े जा रहे आदिवासियों के सैंकड़ों गांव आपको नहीं दिखायी देंगे अगर आपकी भी इच्छा स्मार्ट शहरों में रहने की हो। उन लोगों की बातों में बिलकुल न आएं जो कहते हैं कि पोलावरम बांध के लिए आंध्र प्रदेश में 3000 हेक्टेयर ज़मीन लोगों का दमन कर के छीन ली गई और यूपी में कनहर बांध के लिए आदिवासियों पर गोली चला दी गई। ये लोग विकास के दुश्मन हैं। आप आशावादी हैं, तो 56 इंच वाले की बात मानें और विकास को एक जनांदोलन बना दें। भारत को दोबारा विश्व गुरु बनाने के लिए ज़रूरी है कि इस देश के निराशावादियों से उसी तरह निपटा जाए जैसे कच्चे माल पर कब्जा करने के लिए यूरोप के उपनिवेशवादियों ने ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका और भारत सहित तमाम देशों के मूल निवासियों पर जुल्म ढाए थे। आपको अगर यह चिंता हो रही है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया तो परेशान न हों। अबकी हमने 25 लोगों को बाहर निकलवाया था। अगली बार ज़रूरत पड़ी तो पूरे के पूरे 44 को ही बेदखल करवा देंगे। आखिर 2022 तक देश को आशावादियों का राष्ट्र बनाना है।
मज़बूत होते इस गणतंत्र के असमान विकास की हजारों जातक कथाए हैं जो लाल किले के लाउडस्पीकर से निकलती आशावादी तरंगों के बीच नक्कारखाने की तूती बन गई हैं। उम्मीद कीजिए कि अगले साल तक ये कथाएं इतिहास बन जाएं। सवा अरब का देश चलाने के लिए बहुत ज्यादा लोकतंत्र ठीक नहीं है। आखिर घर-परिवार में भी बिगड़ैल बच्चों से कभी-कभार सख्ती करनी ही पड़ती है। लोकतंत्र की आज़ादी का जश्न मनाइए, तिरंगा लेकर जनपथ से राजपथ तक दौड़ लगाइए, जब तक कि इस देश की राजधानी दिल्ली है क्योंकि बहुत दिनों तक ऐसा नहीं रहने वाला। उसे दिल्ली पसंद नहीं। पिछली बार लाल किले से उसने कहा था कि मैं दिल्ली के लिए ‘आउटसाइडर’ हूं। कुछ निराशावादी लोग इस आउटसाइडर को काम नहीं करने की आज़ादी नहीं दे रहे। उसे अपने घर की याद आ रही है। घर का सबसे बड़ा-बुजुर्ग भागवत बांचते-बांचते 2025 में रिटायर हो, उससे पहले इस देश की ‘घर वापसी’ का सपना पूरा कर देना है। उसे जनता का बहुमत प्राप्त है। उसे कुछ भी करने की आज़ादी है। उसने 2022 का टारगेट रखा है। वह याद दिला रहा है कि 2022 में आज़ादी की 75वीं सालगिरह है। हम आज आज़ादी मना रहे हैं, वह सात साल बाद की आज़ादी के बारे में सोचकर इंच दर इंच फूल रहा है। चुनाव? 2019? भूल जाइए। वह हाथ उठवाकर चुनाव करवा लेगा। उसे मशीनों की ज़रूरत नहीं। उसके 31 फीसद भक्त ही काफी हैं। निराशाओं को ठिकाने लगाने के लिए इतना वक्त काफी होता है। खाखरा खाइए। फाफड़ा खाइए। जलेबी खाइए। ढोकला खाइए। बोलिए रणछोड़राय की जय!
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Behtarin. Kafi achcha visleshan.
Behtarin. Kafi achcha visleshan.
Jabarjast
Jabarjast
While your effort in bringing up the issues is appreciable and upto a satisfactory extent from the viewpoint of our citizens specifically youth population I would also want you to right on the same lines and this not only to highlight the problem and apprehensions rather suggest how these problems could be resolved or what do you see as a light in such situation.
While your effort in bringing up the issues is appreciable and upto a satisfactory extent from the viewpoint of our citizens specifically youth population I would also want you to write on the same lines and this not only to highlight the problems and apprehensions rather suggest how these problems could be resolved or what do you see as a light in such situation.