अभिषेक श्रीवास्तव
वृंदावन के ”ऐंवेंइ मस्ती विद नास्तिक फ्रेंड्स” नामक आयोजन को धार्मिक गिरोहों ने दबाव और हिंसा से रुकवा दिया है। यह गलत हुआ है, सरासर गलत। इसका विरोध होना चाहिए। साथ ही आयोजन पर भी बात होनी चाहिए। उसमें जाने वालों पर भी और नास्तिकता की समझदारी पर भी, जिसे लेकर लोग वहां गए थे। इस लेख को लिखने मुझे जो वजह समझ में आ रही है, उसे मैं एक लतीफ़े से ही समझा सकता हूं। उसके बाद दार्शनिक बातें…।
एक नास्तिक को एक बार प्राचीन वस्तुओं के किसी मेले में एक चिराग हाथ लग गया। वह घर आया और उसे देखने लगा। हलका सा रगड़ा, तो एक जिन्न प्रकट हुआ। जिन्न ने कहा- हुकुम मेरे आका… आप जो कहोगे सब पूरा हो जाएगा। नास्तिक ने पहले अलादीन के चिराग वाली कहानी सुन रखी थी लेकिन भरोसा नहीं करता था। इस बार उसके सामने साक्षात् जिन्न था उसने कहा- मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं हो रहा है, मेरी इच्छा है कि मैं तुम पर विश्वास कर लूं। जिन्न ने कहा- जैसी आपकी मर्जी। नास्तिक को जिन्न के वजूद पर विश्वास हो गया। फिर उसने कहा- मैं चाहता हूं कि मेरे नास्तिक दोस्त भी तुम्हारे होने को मान लें। जिन्न ने इसे भी पूरा कर दिया। तीसरी इच्छा में लोचा हो गया। नास्तिक बोला- अब लाओ मुझे एक लाख रुपया दो। जिन्न हंसने लगा। बोला- ये तो नहीं हो पाएगा। आपने मेरे ऊपर विश्वास कर लिया, इससे ये थोड़ी साबित हुआ कि मैं वास्तव में हूं और सब कुछ कर सकता हूं।
नास्तिकता एक गंभीर विषय है। ईश्वर के होने और न होने के प्रश्न से बहुत आगे का विषय। पिछले दो सौ साल में इस पर बहुत बातें हुई हैं। ईश्वर की मौजूदगी को नकारने वाला तत्व नास्तिकता में इतना बचकाना है कि आज इस पर बात तक नहीं होती। बात ज्यादा जटिल आयामों पर होती है। बचकाना नास्तिकों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि वे ईश्वर के बारे में सबसे ज्यादा बात करते हैं। इसीलिए जब-जब नास्तिकों पर संकट आता है, जैसा कि वृंदावन में हुआ है, तब-तब ईश्वर को याद करना ज़रूरी हो जाता है और खासकर उन लोगों को, जिन्होंने ईश्वर और धर्म के बारे में कुछ कायदे की बातें कही हैं।
ऐसी ही एक बात 1843 में कार्ल मार्क्स ने की थी ”ऑन दि जूइश क्वेश्चन” नामक किताब में, जिसे मैं यहां प्रसंगवश उद्धृत कर रहा हूं! मार्क्स ने लिखा था:
”हमारे लिए धर्म बुनियादी नहीं है, बल्कि वह दुनियावी सीमाओं को दर्शाने वाली एक परिघटना है। इसी कारण से हम मुक्त नागरिकों की धार्मिक गुलामी को उनकी दुनियावी गुलामी के सवाल के साथ जोड़कर समझाते हैं। हम इस बात को मानते हैं कि वे जैसे ही अपनी दुनियावी सीमाओं से मुक्त होंगे, अपनी धार्मिक सीमाओं का भी दमन कर देंगे। हम लोग ज़मीनी सवालों को धार्मिक सवालों में नहीं बदलते। हम धार्मिक सवालों को ज़मीनी सवालों में बदलने का काम काम करते हैं।”
वृंदावन में ”ऐंवेंइ मस्ती विद नास्तिक फ्रेंड्स” नामक आयोजन पर धार्मिक गिरोहों का हुआ हमला निंदनीय है, लेकिन सवाल ज़रूर खड़े होंगे कि यह आयोजन किसलिए किया गया था और इससे अपेक्षित नतीजा क्या था।
पहले आयोजक बालेंदु स्वामी का लिखा नोट देखें:
”पिछले साल वृन्दावन में हुए नास्तिक सम्मेलन की दूसरी कड़ी में समान विचारधारा के आभासी मित्रों का ऐसा समागम जिसका उद्देश्य है अनौपचारिक रूप से ढेर सारे मित्रों से मिलन 🙂
”मुझे तो वैसे भी बहुत अच्छा लगता है जब कोई यूँ ही मिलने चला आता है! कितना मजा आयेगा जबकि आप सब बस वैसे ही एक दूसरे से मिलने के लिए अपने अपने कम्प्यूटर और मोबाइल से निकल कर एक जगह इकट्ठे हों और एक दूसरे की आँखों में आँख डालकर बातें कर सकें, गले लगा कर मस्ती में झूमते हुए नाच गा सकें! इसीलिये इस इवेंट का नाम “ऐंवेंइ मस्ती” रखा है! :)”
तीन बातें हो सकती हैं:
1) यह आयोजन ”एक निजी परिसर” में आस्तिकता को लेकर समान सोच वाले आभासी मित्रों का एक हलका-फुलका सम्मिलन था, जैसा कि नाम से स्पष्ट है। यदि ऐसा ही था तो एक वैचारिक ”सम्मेलन” की शक्ल में इसका प्रचार करने की क्या ज़रूरत आन पड़ी थी। गुड़गांव और फरीदाबाद के बाहरी इलाके में समान सोच वाले लोगों की बहुत सी रेव पार्टियां ”ऐंवेइ मस्ती” के लिए हुआ करती हैं, लेकिन किसी का सार्वजनिक प्रचार नहीं किया जाता। वहां छापा पड़ता है तो कोई भी मानवाधिकार का सवाल उठाने की मांग नहीं करता है।
2) यह नास्तिकता पर विमर्श के लिए आयोजित एक सम्मेलन था जिसका न्योता, खाने-पीने का खर्चा और रहने की जगह आदि की पूर्व व्यवस्था आयोजक द्वारा की गई थी। आयोजक की पहल पर समान विचार के आभासी मित्रों को यहां एकत्रित होकर देश-समाज पर दो दिन चर्चा करनी थी और आगे की कार्रवाई के लिए किसी नतीजे पर पहुंचना था। इस हमले को जिस तरीके से इंदौर में इप्टा और उदयपुर में जसम पर हमले से जोड़कर तुलना करते हुए फासीवादी हमला करार दिया जा रहा है, वह संकेत देता है कि आयोजन में एक गंभीर तत्व भी रहा होगा, यह ”दोस्तों के साथ ऐंवेंइ मस्ती” से आगे की कोई चीज़ रही होगी। कुछ लोग इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला बता रहे हैं। अगर वास्तव में यह नास्तिकों का कोई गंभीर विमर्श था तो नाम रेव पार्टी जैसा क्यों रखा गया? सम्मेलन के कंटेंट के हिसाब से नाम रखा जा सकता था। क्या इसमें लोकप्रियता का कोई दबाव था या आयोजक के ब्रांडेड होने से बचने की कोशिश?
3) चूंकि यह भी कहा जा रहा है कि नास्तिकता का लेना-देना अनिवार्यत: वामपंथी होने से नहीं है और इसमें कई किस्म के आभासी मित्रों का सम्मिश्रण था, लिहाजा उस आह्वान पर सवाल खड़े होते हैं जो हमले के विरोध में ‘जनवादी’ लोगों और मीडिया से किया जा रहा है। कई लोग राज्य सरकार के प्रशासन को भी कठघरे में खड़ा करते हुए उससे कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। नास्तिकता चूंकि मनुष्य के ऊपर किसी सत्ता में आस्था नहीं रखती, लिहाजा ”जनवादी” आह्वान एक किस्म के ”प्रिविलेज” को दर्शाता है और सरकारों से कार्रवाई वाली बात सत्ता की स्वीकार्यता का पता देती है।
इन तीन विकल्पों को मिलाकर पढि़ए तो यह समझ में आता है कि मामला बेहद कनफ्यूज़न वाला है- कुछ समानधर्मा परिचित-अपरिचित लोग एक समानधर्मा गुरु के आवाहन पर उसके मठ में गए थे ‘मस्ती करने’, लेकिन वहां ‘मस्ती’ के सार्वजनिक प्रचार समेत गुरु के ‘धार्मिक’ अतीत ने स्थानीय विरोधाभासों को तीखा कर के मामले को राजनीतिक रंग दे दिया और आयोजन पर हमला हो गया। हमले के विरोध में जो आवाज़ें बाहर आईं, उनका रंग वही था जो देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होने वाले हर हमले के खिलाफ़ होता है। मनुष्य पर किए गए हर हमले का विरोध होना चाहिए, लेकिन हर अभिव्यक्ति को एक पलड़े में तौल देना ख़तरनाक है। इंदौर में इप्टा का सम्मेलन या उदयपुर में जसम का आयोजन ”ऐंवेइ मस्ती विद वामपंथी फ्रेंड्स” नहीं है। वे एक सुनियोजित व सुविचारित संस्कृतिकर्म का हिस्सा हैं जिनकी राजनीति स्पष्ट है। वृंदावन के आयोजन की क्या राजनीति है, सिवाय इसके कि यहां पहुंचे लोग खुद से खुद को नास्तिक मानते हैं।
नास्तिकता अपने आप में राजनीति नहीं है, क्योंकि बकौल मार्क्स- ”हमारे लिए धर्म बुनियादी नहीं है, बल्कि वह दुनियावी सीमाओं को दर्शाने वाली एक परिघटना है।” हमारा काम धार्मिक सवाल को ज़मीनी सवाल में बदलना है, न कि धार्मिक सवाल को धार्मिकता के दूसरे व परस्पर विरोधी छोर पर खड़े होकर उकसावे में बदलना है। हां, ऐसा करना तात्कालिक राजनीतिक टैक्टिक्स का हिस्सा ज़रूर हो सकता है, बशर्ते इससे कुछ हासिल होने की उम्मीद हो। वृंदावन में क्या कोई राजनीतिक टैक्टिक्स खेली जा रही थी स्वामी के आश्रम में? कतई नहीं। माना, कि हमने ऐसा उत्साह में आकर कर भी दिया, धार्मिकता के दूसरे छोर पर खुद को घोषित कर के एकजुट होने की एक कोशिश कर डाली, तो उसका भी कोई उद्देश्य ज़रूर रहा होगा। ”ऐंवेइ मस्ती” उद्देश्य तो नहीं हो सकता। आयोजन में जाने वालों के विरोध का लहजा ही विरोध को अश्लील बना रहा है क्योंकि उनका प्रस्थान बिंदु ही अश्लील था। गोकि हमला गलत है, नहीं होना चाहिए था, यह बात ज़रूर कही जानी चाहिए, लेकिन सही तर्क के साथ। ऐसे नहीं होगा कि आप नास्तिकता का तर्क लेकर जुटेंगे, लेकिन बिखरा दिए जाने पर जनवाद का झंडा उठा लेंगे।
एक अहम दलील यह दी जा रही है कि इस देश में आस्तिकों को हर तरह की छूट है लेकिन नास्तिक शांति से चर्चा भी नहीं कर सकते। अपनी डॉक्टरल थीसिस में मार्क्स साफ़ शब्दों में कहते हैं कि ”किसी तर्कप्रधान देश में ईश्वर के अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होगा”। एक बार हमें फिर से मार्क्स को याद करना होगा:
”एक ऐसे देश में काग़ज़ की मुद्रा लेकर जाएं जहां इसके बारे में लोग नहीं जानते हों, तो हर कोई आपके इस प्रतीकात्मक प्रदर्शन पर हंसेगा। आप अपने ईश्वर को लेकर उन देशों में जाएं जहां दूसरे ईश्वरों की पूजा की जाती हो। आपको कह दिया जाएगा कि आप फंतासी व अमूर्त बात कह रहे हैं। एक देश के ईश्वर की जो स्थिति दूसरे देश में होती है, वही स्थिति तर्कप्रधान एक देश में ईश्वर की होती है। तर्क एक ऐसा दायरा है जहां ईश्वर का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।”
(K. Marx, Frammento dell’appendice della dissertazione dottorale, in A. Sabetti, Sulla fondazione del materialismo storico, Florence 1962, p. 415).
क्या आयोजन में भागीदार लोगों को लगता है कि यह देश तर्कप्रधान बन चुका है? या सुदूर भविष्य में इसकी कोई गुंजाइश है? या फिर इतना ही हुआ हो कि एक नास्तिक व्यक्ति अपने तर्क से कम से कम अपने परिजनों को ही नास्तिक बना सकता हो? एक नास्तिक परिवार अपने मोहल्ले को? एक नास्तिक मोहल्ला अपने समुदाय को?
कुछ लोग चार्वाक आदि का उदाहरण दे रहे हैं कि वे भी तो इसी धरती की पैदाइश थे। जो स्थिति चार्वाक की उस वक्त थी, वही स्थिति आज चार्वाक का नाम जानने वाले मुट्ठी भर लोगों की इस वक्त है इस देश में। प्रसंग में दयानंद सरस्वती का भी नाम आ रहा है कि उन्होंने पाखंड के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। इसका ”ऐंवेइ मस्ती” से क्या लेना-देना? क्या वृंदावन जाने वाले किसी पाखण्ड को चुनौती देने गए थे? अपने गलत तर्क के चलते कल को आप अंधविश्वास के खिलाफ आजीवन लड़ने वाले और जान देने वाले शहीद कामरेड पानसरे जैसे योद्धा से वृंदावन जाने वालों की तुलना कर डालेंगे? सब धान बाईस पसेरी कर देंगे? केवल इसलिए क्योंकि आप नास्तिकता को सही तरीके से बरत नहीं पाए?
आस्तिकता गलत दिशा में चली गई हो तो उससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि मामला अफ़ीम की खुराक का ही होता है। नास्तिकता गलत लीक पर चली गई तो बहुत नुकसान हो जाएगा। इस दुनिया को और इस दुनिया के असंख्या भगवानों को नास्तिकों ने ही बचाए रखा है अपनी वाजिब दलीलों से, जिनके सहारे असंख्य गरीब-गुरबा आबादी अपनी फंतासियों और कल्पनाओं को अमूर्तन में जीती है, बची रहती है। नास्तिकता ने गलत तर्क चुना तो सबसे पहले अधिसंख्य आस्तिकों का नुकसान होगा, वो भी सबसे कमज़ोर आस्तिक का।
दोस्तों, ईश्वर के लिए न सही, मनुष्य के लिए ऐसा अनर्थ मत कीजिए। मौज लेने गए थे, पिट गए, तो जनवाद-फासीवाद मत बघारिए। एफआइआर करवाइए, पिटीशन चलाइए, बयान जारी कीजिए, लेकिन शहादत वाली मुद्रा के बगैर। राज्यसत्ता की ओर तो बिलकुल मत देखिए क्योंकि यह कर्म नास्तिकता के धर्म का प्राथमिक उल्लंघन होगा जो मनुष्य के ऊपर किसी और की सत्ता को नहीं मानता। और हां, ज्यादा हल्ला नहीं करेंगे तो ही ठीक होगा वरना बात खुली तो नास्तिकों की नैतिकता से गरीबों की आस्था उठ जाएगी। गरीबों की आस्था आप पर से उठ गई, तो आप धार्मिकता के सवाल को ज़मीनी सवाल में तब्दील नहीं कर पाएंगे। समय निकालकर सुदर्शन की कहानी दोबारा पढि़ए। अच्छा लगेगा।
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