मार्क्स पर लिखे विश्वदीपक के लेख और रामजी यादव द्वारा उस पर उठाए गए सवालों की कड़ी में पत्रकार विष्णु शर्मा ने मूल लेख की मंशा को ऐतिहासिक बदलावों के आलोक में रेखांकित करने की कोशिश की है। ‘नए वाम’ के नाम पर लेखन में बरती जा रही चालाकियों की ओर इशारा करते हुए विष्णु ने विषय को राजनीति के सूक्ष्म किनारों से पकड़ा है। यह प्रतिवाद बहसतलब है।
विष्णु शर्मा |
अपने एक लेख ”साम्यवाद विरोधी वामः एक क्रूरतम आघात’ में माइकल पेरेंटी लिखते हैं: ”दशकों तक कई वाम लेखकों और वक्ताओं के लिए अमेरिका में अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए ज़रूरी था कि वे स्वयं को साम्यवाद विरोधी और सोवियत संघ विरोधी बताएं। ऐसा लगता है कि वे एक सीधा-साधा वक्तव्य, लेख या कोई किताब बिना साम्यवाद को कोसे पूरा नहीं कर सकते। इसके पीछे उनका मकसद है और थाः खुद को मार्क्सवाद-लेनिनवाद से दूर दिखाना।’ (Left Anticommunism: The Unkindest Cut)
पेरेंटी के अनुसार नॉम चोम्स्की और जॉर्ज ऑरवेल इस श्रेणी के वाम हैं। उनका मानना है कि साम्यवाद की मार्क्सवादी-लेनिनवादी परंपरा का विरोध करने में ये वामपंथी दक्षिणपंथियों से भी बहुत आगे हैं।
विश्वदीपक और तमाम लेखक जो आज ‘अचानक‘ वाम की मार्क्सवाद-लेनिनवाद परंपरा (भारत के मामले में माओवादी परंपरा भी) पर यह कह कर हमला कर रहे हैं कि उनका मकसद वाम की ‘पुरानी‘, ‘दकियानूसी’ और ‘जड़‘ परंपरा को ‘दुरुस्त‘ करना है, वे भी उपरोक्त उल्लेखित विचारकों के ही भारतीय और कई मामलों में मज़ाकिया संस्करण हैं। मज़ाकिया इसलिए कि जहां चोम्सकी और ऑरवेल सत्ता विरोधी स्वर के कारण एक हद तक मानवतावादी दिखाई देते हैं, वहीं विश्वदीपक एवं अन्य ‘उदार’और ‘नए’ वाम का इस तरह का कोई दखल नहीं है लेकिन ये इस मामले में उन्हीं की तरह वाम को व्यवहार से अलग कर वर्तमान व्यवस्था के लिए अहानिकारक विचार बना देना चाहते हैं। लेनिन ने इसके लिए कहा था: ‘मार्क्सवादी विचार के क्रांतिकारी पक्ष को निकाल कर उसे श्रद्धेय बना देना‘।
विश्वदीपक अपने लेख ‘मार्क्स के बहाने‘ के ज़रिए खुद को इसी स्थिति में ला खड़ा करते हैं, लेकिन विश्वदीपक के विचार को सामाजिक संदर्भ से काट कर नहीं देखा जाना चाहिए। इस में कोई शक नहीं है कि भारत का साम्यवादी आंदोलन (माओवादी आंदोलन) रक्षात्मक स्थिति में है और संसदीय वाम ने दक्षिणपंथ के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। ऐसे हालात में वाम से ‘बिदकना’और उसे कोसते हुए रास्ता बदल लेना कोई नई बात नहीं है। विश्वदीपक का लेख इसी ‘बिदके‘ और ‘उदार’ वाम का प्रतिनिधि लेख है।
अपने लेख में विश्वदीपक कोई संदर्भ, प्रमाण या तथ्य प्रस्तुत नहीं करते बल्कि लगातार निष्कर्ष पर पहुंचते रहते हैं। जैसे, ‘गांधी जिम्मेदारी लेते हैं इसलिए मार्क्स से ऊपर हो जाते हैं‘, ‘माना जाता है कि मार्क्स के प्रेम संबंधों का पता एंगेल्स को था लेकिन मार्क्स की प्रतिष्ठा के लिए अंतिम समय तक चुप रहे’, ‘नीत्शे के अलावा गांधी दूसरे हैं जो खुद को काटते रहे’, आदि। इसके अलावा विश्वदीपक बौद्धिक बेईमानी भी करते हैं। वे अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए मनगढ़ंत और संदर्भ से काट कर दस्तावेज़ भी प्रस्तुत करते हैं। जैसे, मार्क्स का वह पत्र जिसमें वे बेटी के पैदा होने से दुखी हैं (कौन सा पत्र), यह कहना कि एंगेल्स ने मरने से पहले अपना दामन साफ करने के लिए मार्क्स के ‘अनैतिक‘ संबंध का खुलासा किया (कहां), एवं अन्य।
इस ‘खेल‘के विश्वदीपक अकेले खिलाड़ी नहीं हैं। अचानक ऐसे बहुतेरे वामपंथियों की बाढ़ सी आ गई है जो अपने जीवन के प्ररंभिक जीवन में किसी न किसी रूप सें मार्क्सवादी-लेनिवादी संस्था या पार्टी से जुड़े थे अथवा उसका समर्थन करते थे किंतु अब उतना ही वाम के व्यावहारिक पक्ष के आलोचक बन गए हैं। मसलन,बातचीत में वे हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि वाम का भविष्य संस्थागत रूप में नहीं है, उसका भविष्य अनौपचारिक रूप में सुरक्षित है। यानी वामपंथ का व्यावहारिक रूप अप्रासंगिक हो गया है। यह मार्क्सवाद को एक रूमानियत या नोस्टेल्जिया में बदल देता है। वह जितना दूर है उतना ‘सुंदर‘है। उनके अनुसार व्यवहार में अनिवार्य रूप से उसकी परिणति क्रूर हो जाती है। इस तरह वे वाम के शब्दों और तर्कों का इस्तेमाल कर वाम के व्यावहारिक पक्ष पर ही प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हमला करते हैं।
‘अनुभवसिद्ध‘आलोचना
भारत में यह स्थिति 2008 के बाद तब आई जब सरकार ने माओवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा शत्रु स्वीकार किया। सरकारी दमन की क्रूरता ने बुद्धिजीवियों को हताशा से भर दिया। सरकार को कठघरे में खड़ा करने के बजाय वाम आंदोदन में ही कमज़ोरियां तलाशी जाने लगीं। रातोरात व्यावहारिक (माओवादी) वाम ‘रूढि़वादी‘, ‘पुराना‘, ‘दकियानूसी’, ‘आलोचना स्वीकार न करने वाला विचार‘ बन गया। ये यहां तक पहुंच ही नहीं पाए कि असल संकट वाम का नहीं, बुर्जुआज़ी का है। इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जहां उदारता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की ‘पक्षधर’ बुर्जुआज़ी संकट के समय अक्सर फासीवाद का दामन थाम लेती है, लेकिन ऐसा करने से पहले वह लोकतंत्र का आखिरी नाटक पेश करती है। इस आखिरी नाटक में हमने देखा था कि कैसे उसे सूती साड़ी और हवाई चप्पल में लालगढ़ और सिंगूर का दौरा करना पड़ा था और कैसे उसने अपने मित्र को झूठमूठ ‘टाटा‘कहा था।
ऐसे संकट के दौर में इन बुद्धिजीवियों के लिए बहुत आवश्यक है कि वे अपने दामन में लगे मार्क्सवादी दाग को जल्द से जल्द छुड़ाएं। लेकिन हम जैसों के लिए इसमें क्या सबक छिपा है? यही कि यदि संपूर्ण मानवता के अस्तित्व के लिए आपके कपड़ों में कुछ मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी दाग लगते भी हैं तो, ‘दाग अच्छे हैं’!
Read more
कमाल! विष्णु, कमाल!
बिकना चाहते हैं ये और बोली भी अपनी औकात से ज्यादा लगवाना चाहते हैं.
कुत्ते के काटने पर सात कुंवा झाँकना होता था, इन्हें सत्तर कुंवा झाँकने के बाद भी रिजेक्ट कर देंगे सरमायेदार.
इनका तो नाश होगा.
खुदा ही मिला न विसाले सनम, न घर के रहे न घाट के…..
कमाल! विष्णु, कमाल!
बिकना चाहते हैं ये और बोली भी अपनी औकात से ज्यादा लगवाना चाहते हैं.
कुत्ते के काटने पर सात कुंवा झाँकना होता था, इन्हें सत्तर कुंवा झाँकने के बाद भी रिजेक्ट कर देंगे सरमायेदार.
इनका तो नाश होगा.
खुदा ही मिला न विसाले सनम, न घर के रहे न घाट के…..
बहुत अच्छा विष्णु !
जिन संदर्भों से विश्वदीपक को समझाया उससे शायद वे और उन जैसे लोगों की समझ में आ सके कि मार्क्स का जीवन सर्फ एक्सल बेचने के लिए जबरन कीचड़ में लोटने का उदाहरण नहीं है । लेकिन उनके नाम पर जो लोग सरेआम नाबदान में कूद रहे हैं उन्हें बुर्जुआजी सफाई के लिए पानी भी नहीं देती !
मार्क्स की जीवनी लिखने के चक्कर में उनकी तमाम जीवनियाँ पढ़ी हैं. उनका लिखा तो पिछले दस-पंद्रह सालों से लगातार पढता ही रहा हूँ. विश्वदीपक का पूरा लेख असत्य और अर्ध सत्यों तथा भ्रामक तथ्यों से बना है. गाँधी को लेकर भी ऐसी तमाम बातें आई हैं. क्या मार्क्स की आलोचना के लिए अब हेलेन के साथ उनके संबंधों की पड़ताल ही रह गयी है? वह बेटियों से कम प्यार करते थे, यह कब और किस पत्र में लिखा है? एलिनोर मार्क्स ने इतना कुछ लिखा पर इसका ज़िक्र तो वहां भी कहीं नहीं मिलता..जबकि अपनी इस बेटी से एक बीच में मार्क्स के रिश्ते ख़राब भी रहे. और मार्क्स ने एंगेल्स से आर्थिक मदद ली ज़रूर लेकिन वह परजीवी नहीं थे. लगातार लिख कर कमाने की कोशिश करते रहे..और उनके विपुल लेखन का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न अखबारों में लिखे कालमों का भी है.
अवांतर में ही सही एक हालिया वाकया याद आ रहा है- पिछले महीने जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी ने अपने फेसबुक पोस्टिंग में मार्क्सवादियों के दुराग्रह को लेकर पोस्टिंग्स की एक पूरी सिरीज चलाई..मसलन वे गाली गलौज के बिना बात ही नहीं करते, विरोधियों को बर्दाश्त करने का संस्कार ही नहीं है आदि आदि। इसी बीच जनसत्ता में शंकर शरण का एक लेख छपा- चिड़ियाखाने में मार्क्सवाद. इस लेख में भी मार्क्सवाद को पी पी कर गाली दी गई थी। इस लेख से मैं हैरान था लेकिन पोस्टिंग्स और लेख की कड़ी जो़ड़ने पर शंकर शरण के प्रति मेरा गुस्सा ठंडा हो गया। आखिर अपने विचारों के पक्ष में इससे ज्यादा कोई सम्कपादक कर भी क्या सकता है। यह काम थानवी साहब खुद कर सकते हैं और हाल ही में उत्कृष्ठ गद्य रचनाओं के लिए कोई सम्मान भी लेकर लौटे हैं..मतलब लेखन में उनका हाथ तंग भी नहीं है..तो भी दूसरे के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने की चालाकी काहे को…इसलिए महानुभावों शंकर शरण और विश्वदीपक जैसों से कोई गिला नहीं…
आजकल एक फिल्मी डायलाग चर्चित है-
जो मैं नहीं कहता उसे करता हूं,
और जो कहता हूं उसे तो मैं जरूर करता हूं..
बढ़िया है "दाग़" अच्छे हैं के खुशनुमा अहसास में जिंदगी जी ली जाए..वैसे ये उम्मीद जब सर्फ एक्सेल वाले बेचते हैं तो समझ में आता है क्योंकि विचार और प्रोडक्ट का फर्क़ उनके पास है ..लेकिन इन "दाग़ों" ने मार्क्स और लेनिववादियों की पूरी दुनिया से ही धुलाई कर डाली बावजूद इसके "दाग" का डंका पीटा जाए … ..और दुनिया बदलने वाले मार्क्स और लेनिन के समझदार और वफ़ादार जब "दाग" को "पूंजी" मानने लगें तो खुदा ही खैर करे..