एफडीआई वोट: संसदीय ‘लेजिटिमेसी’ की एक और साजि़श


अभिषेक श्रीवास्‍तव

अब, जबकि संसद के दोनों सदनों में मल्‍टीब्रांड रीटेल में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश के खिलाफ भाजपा का अविश्‍वास प्रस्‍ताव गिर गया है और ‘तकनीकी’ रूप से यूपीए सरकार की जीत हुई है, कुछ बातें विस्‍तार से की जा सकती हैं। एफडडीआई के पक्ष या विपक्ष में जो भी दलीलें मौजूद हैं, उनका भाजपा द्वारा लाए गए अविश्‍वास प्रस्‍ताव से कोई लेना-देना नहीं, इस बात को सबसे पहले समझ लेना बहुत जरूरी है। एफडीआई के पक्ष या विपक्ष की सैद्धांतिकी और एफडीआई पर संसदीय राजनीति दो निहायत ही अलग चीजें हैं। इसके निहितार्थ सू्त्रवाक्‍य के रूप में ऐसे समझिए कि-
1) संसद में एफडीआई पर मतदान में यूपीए सरकार की जीत अपने आप में एफडीआई के पक्ष की सैद्धांतिकी की जीत नहीं है।
2) संसद में भाजपा, वामदल समेत एफडीआई विरोधी अन्‍य दलों (सपा और बसपा को छोड़ दें) की हार अपने आप में एफडीआई के विरोध की सैद्धांतिकी की हार नहीं है।
3) लोकसभा में सपा और बसपा के वॉकआउट तथा एफडीआई पर उनके विरोधी पक्ष को जोड़ कर देखना भ्रामक हो सकता है।
4) राज्‍यसभा में एफडीआई पर यूपीए को बसपा का समर्थन उसकी पूर्व घोषित एफडीआई पर नीति के उलट हो, यह जरूरी नहीं।
5) एफडीआई पर संसदीय राजनीति के अब तक घटे किसी भी अध्‍याय में धर्मनिरपेक्षता आधारित कोई भी तर्क प्रणाली इसे समझने में आपकी मदद नहीं कर सकती।
आइए, जरा इन बातों को विस्‍तार से समझते हैं। लोकसभा और राज्‍यसभा में एफडीआई पर वोटिंग के संदर्भ में सबसे ज्‍यादा टीका-टिप्‍पणी सपा और बसपा की भूमिका को लेकर हुई है। दो तरह की बातें कही जा रही हैं। पहली आलोचना तकनीकी किस्‍म की है जिसमें यह गिनाया जा रहा है कि अगर लोकसभा में पूरे 545 सदस्‍य उपस्थित होते और सभी वोटिंग करते, तो अपनी-अपनी पार्टियों के पूर्व घोषित पक्ष के मुताबिक वे यूपीए सरकार पर भारी पड़ जाते। इसी आधार पर यह कहा जा रहा है कि ऐसे निर्णायक मौकों पर सदन से गायब हो जाना या बहिष्‍कार कर देना एक ‘धंधा’ बन चुका है। इस तरह की आलोचना करने वालों से दो सवाल पूछे जा सकते हैं। पहला तो ये कि क्‍या जरूरी है कि जो सांसद गैर-मौजूद रहे, वे वहां रहकर भी वही वोट देते, जो उनकी पार्टी की पूर्व घोषित नीति है? यहां टीडीपी के उन तीन राज्‍यसभा सांसदों का ध्‍यान रखें जिन्‍होंने पार्टी व्हिप के बावजूद शुक्रवार को सदन में अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करवाई। तकनीकी पक्ष पर आलोचना करने वालों से दूसरा सवाल यह बनता है कि यदि एफडीआई जैसे जनविरोधी और पूंजी हितैशी मुद्दे की बात न होकर यहां कोई ऐसा मुद्दा होता जो लंबी अवधि में वास्‍तव में इस देश की बहुसंख्‍य जनता का फायदा करता, तब भी क्‍या वे आंकड़ो पर आधारित दलील तक टिके रहते? दरअसल, 545, 471, 218, 253 जैसी संख्‍याओं से जिस किस्‍म की अर्थछवियां और तर्क प्रणाली विकसित करके मल्‍टी ब्रांड रीटेल में एफडीआई का विरोध किया जा रहा है, वह हमें दो खतरों की तरफ ले जा रहा है। पहला खतरा तो यही है कि हम संसदीय कार्यपणाली की आलोचना करने के लिए उन्‍हीं संसदीय औजारों का इस्‍तेमाल कर रहे हैं जिनकी मदद से हमारे नेताओं ने संसद को धोखा बना दिया है। दूसरे, इस तरह की आलोचना में वैचारिक कंटेंट गायब है। ऐसा लगता है गोया एफडीआई पर संसदीय राजनीति और सपा-बसपा के असंबद्ध व्‍यवहार से आहत टिप्‍पणीकार दोनों ही अपने-अपने पाले में खड़े रहकर एफडीआई को अंतत: आंकड़ेबाजी के एक खेल में तब्‍दील करने का काम किए जा रहे हैं। संसद में ऐसा सचेतन तौर पर होता है जबकि पिछले तीन दिनों से इस पर लिख-पढ़ रहे लोग अनजाने में ‘तकनीकी’ जगलरी में फंस गए हैं।
जो लोग इस मुद्दे पर तकनीकी आलोचना नहीं कर रहे, वे सपा-बसपा के वॉकआउट को भाजपा विरोधी सेकुलर राजनीति से जोड़कर देख रहे हैं। 7 दिसंबर 2012 के द हिंदू का संपादकीय देखें जिसमें कहा गया है कि सपा और बसपा के लोकसभा से वॉकआउट करने के पीछे उनकी सेकुलर राजनीति है। यह तर्क समझ से परे है। आइए,  अलग-अलग सपा और बसपा दोनों के सिद्धांत और व्‍यवहार के बीच की फांक का जायजा लेते है। पिछले कुछ दिनों के दौरान यह बात कई जगह प्रमुखता से आई है कि भारत के असंगठित रीटेल क्षेत्र में अधिकतर कामगार मुस्लिम हैं। मिस्‍त्री, कारीगर, किराना की दुकान चलाने वाले, दर्जी, रंगरेज, रफूगर, ताला बनाने वाले से लेकर सब्‍जी और फल बेचने वालों पर नजर डालिए, तो अधिकतर मुस्लिम नज़र आएंगे। कुछ जगहों पर असंगठित रीटेल क्षेत्र में मुस्लिमों का आंकड़ा 40 फीसदी तक बताया गया है। इसी समुदाय की पीठ पर खड़े होकर फिर से उत्‍तर प्रदेश की सत्‍ता में आए मौलाना मुलायम बड़े अच्‍छे से जानते हैं कि अपने वोट बैंक के बीच कोई संदेश कैसे भेजा जाता है और उसके उलट असल राजनीति कैसे की जाती है। आप कहते रहिए कि लोकसभा में सपा का बहिष्‍कार यूपीए सरकार को जिता गया, लेकिन मुलायम ने ऐसा करके एक तीर से दो शिकार किए। पहला तो ये, कि अपनी सनातन मजबूरी यानी सीबीआई से बचने के लिए कांग्रेस का समर्थन चुपके से कर दिया जबकि दूसरी ओर वॉकआउट का इतना हल्‍ला मचा कि प्रदेश के मुस्लिमों समेत समूची आबादी में ये संदेश चला गया कि मौलाना ने छोटे-छोटे कारीगरों और दुकानदारों के पेट पर लात मारने वाले एक फैसले के खिलाफ संसद का बहिष्‍कार किया है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता, लेकिन मौटे तौर पर जनता की समझ का अंदाजा लगाते हुए कहा जा सकता है कि जब तक चीख-चीख कर न समझाया जाए, तब तक वह नहीं समझेगी कि यह वॉकआउट दरअसल, तकनीकी रूप से एफडीआई को समर्थन का पर्याय था। इस तरह समाजवादी पार्टी ने अपने पूर्व घोषित पक्ष को अंत तक सार्वजनिक वैधता दिलाए रखी और कोने में सौदा कर लिया। यह तकरीबन वैसी ही बात है कि मंच पर खड़े होकर आप सत्‍ता को गाली दें और समझौते की मेज पर लोट जाएं। इस कवायद को जिन्‍हें सीबीआई के संदर्भ में समझना है वे बाखुशी समझ सकते हैं। हालांकि, सीबीआई का फंदा एक दलील के तौर पर सिद्धांत और व्‍यवहार के बीच की फांक का राजनीतिक सरलीकरण कर देता है। यह बात बसपा के संदर्भ में ज्‍यादा साफ तौर पर समझी जा सकती है।
बसपा ने राज्‍यसभा में यूपीए का समर्थन किया है जबकि लोकसभा में वह वॉकआउट कर गई है। एफडीआई पर संसद के भीतर ही इस दोगलेपन को कैसे परिभाषित करेंगे? यहां सीबीआई की दलील काम नहीं आएगी। पहले सिद्धांत की बात करते हैं। दलित राजनीति में आंबेडकरवादी धारा (जिसकी बसपा भी पोषक है, बल्कि सबसे प्रमुख) हमेशा से यह मानती आई है कि विदेशी पूंजी इस देश में जातिवादी शोषण की बेडि़यों को कमजोर करेगी। डॉ. आंबेडकर कहा करते थे कि अंग्रेजी शेरनी का दूध है; डॉ. चंद्रभान प्रसाद अंग्रेजी देवी के मंदिर तक आ गए; 2005 में सेज (विशेष आर्थिेक प्रक्षेत्र) अधिनियम पर दलित पार्टियों और संगठनों की पक्षधर एकता से आगे बढ़ते हुए एफडीआई पर राज्‍यसभा में बसपा ने खुलकर यूपीए का समर्थन कर दिया और अब जरा एक दलित-पिछड़ा  बुद्धिजीवी(?) का दिलचस्‍पी की हद तक मूर्खतापूर्ण फेसबुक स्‍टेटस देखिए- अगर भाजपा और सीपीएम दोनों एक साथ एफडीआई का विरोध कर रही हैं, तो एफडीआई में जरूर वंचितों का कोई फायदा होगा…।’ यह सिलसिला यूं ही नहीं बना है। मायावती को तो खैर, आइडियोलॉजी आदि से क्‍या ही लेना-देना, बावजूद इसके यदि अपनी कार्रवाई के समर्थन में वे पारंपरिक अंबेडकरवादी दलील दे डालें, तो आप क्‍या कर लेंगे? यह बात इतनी भी दूर की कौड़ी नहीं, हां यह भी सच है कि उनके वोट बैंक का एफडीआई के मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं है। देखिए कि किस तरह सपा और बसपा दोनों को ही कठघरे में खड़ा करना कितना मुश्किल हो जाता है जब आप उनके किए का तर्क तलाशने चलते हैं। एक अंग्रेजी के अखबर ने अपने संपादकीय में 8 दिसम्‍बर 2012 को ठीक ही लिखा है कि एफडीआई चुनावी मुद्दा बनने नहीं जा रहा। क्‍या भारत-अमेरिका नाभिकीय सौदा चुनावी मुद्दा बना था? क्‍या उड्डयन क्षेत्र में एफडीआई आज आपको याद भी है?
साभार: ऑर्गनाइज़र 
जैसा कि सबसे ऊपर कहा, एफडीआई वोट पर यूपीए की जीत ‘तकनीकी’ है। समझने वाली बात यह है कि सिर्फ जीत ही तकनीकी नहीं है, बल्कि हारने-जीतने का यह समूचा खेल ही तकनीकी है। संसद और संसदीय राजनीति की अपनी एक तकनीक होती है जहां गंभीर से गंभीर ‘नैतिक’ मुद्दा भी तकनीक का शिकार हो जाता है। उसके पक्ष या विपक्ष में प्रस्‍ताव भी तकनीकी ही होता है और मुद्दे को अंजाम तक पहुंचाने वाली प्रक्रिया का हर चरण सिर्फ और सिर्फ तकनीकी होता है जो अंतत: किसी ‘जेनुइन’ प्रश्‍न को एक तकनीकी ‘हां’ और ‘ना’ में बदल देता है। बंद गली वाली बहसों के लिए कुख्‍यात अर्णब गोस्‍वामी को कितनी भी गालियां दी जाएं, लेकिन वह दरअसल ‘लोकतंत्र का मंदिर’ है जहां ‘एज़’ और ‘नोज़’ देश को बेचकर खा जाने वाली नीतियों पर बहस की गुंजाइश को खत्‍म कर के दलाली की गुंजाइश को जिंदा किए रखते हैं। इसीलिए, न तो समाजवादी पार्टी को वॉकआउट करने में शर्म आती है, न ही बसपा को राज्‍यसभा में यूपीए की मदद करने में शर्म आती है। यही वजह है कि 2002 में एफडीआई लाने की नाकाम कवायद कर चुकी भाजपानीत एनडीए की आस्‍था मात्र दस साल में पलट जाती है और भाजपा एफडीआई के खिलाफ अविश्‍वास प्रस्‍ताव ला देती है। आस्‍था पलटती भी है तो ऐसी पलटती है कि लोकसभा में हारने के बाद न तो सुषमा स्‍वराज को शर्म आती है न ही सीताराम येचुरी को- विडंबना देखिए कि तकनीक के इस पूरे खेल में हार के बाद अपनी जीत घोषित करने के लिए उसी ‘नैतिकता’ का सहारा लिया जाता है जिसे बीस बरस पहले हमारी संसदीय राजनीति घोल कर पी चुकी है। नैतिकता का यह अवसरवादी डायरिया अगले दिन के अखबारों के संपादकीय में भी दिखता है जो लिखते हैं कि ‘यूपीए की तकनीकी जीत हुई है, नैतिक नहीं’। यह दिक्‍कत दरअसल हमारी है कि हम अब भी संसद की चक्‍की में नैतिकता के बीज खोजते फिरते हैं।
सबसे ऊपर एफडीआई के पक्ष या विपक्ष की सैद्धांतिकी और एफडीआई पर संसदीय राजनीति के बीच फर्क के जो निहितार्थ मैंने गिनाए हैं, ज़रा उन पर दोबारा नज़र डालें। अब यह बात शायद साफ हो स‍के कि संसद में उठने वाले मुद्दों, होने वाली बहसों, मतदान और फैसलों आदि का कम से कम दो चीजों से संबंध नहीं है- पहला, लोकतांत्रिक चुनावों से (चुनाव में जीत/हार से) और दूसरा एक राज्‍य के तौर पर भारत की नीतिगत दिशा से। कोई दल या सांसद संसद में क्‍या स्‍टैंड लेता है, उससे उसकी चुनावी किस्‍मत तय नहीं होती। भारतीय जनता की किस्‍मत तो वह बिल्‍कुल नहीं तय करता। एक सवाल पूछने का मन करता है कि क्‍या कोई ऐसा शख्‍स है जिसे लग रहा था कि एफडीआई वोट पर यूपीए सरकार हार जाएगी? यूपीए की जगह एनडीए सरकार होती तब भी यही होता जो आज हुआ है। यह बात शायद दस साल बाद और बेहतर समझ आ सके। मामला उस आवारा सामराजी पूंजी का है जिसे इस देश में नया पता-ठिकाना तलाशना है क्‍योंकि उसके अपने देश में उसकी दाल नहीं गल रही। हमारे यहां जनप्रतिनिधि बन कर संसद में बैठे लोग बुनियादी तौर पर उस पूंजी के चाकर हैं। रस्‍मी तौर वे संसद में कुछ परंपराएं निभा लेते हैं। भाजपा का अविश्‍वास प्रस्‍ताव और उस पर मतदान इसी की एक झलक था। आखिर पिछले सत्र में भाजपा ने ‘संसदीय गरिमा’ को जो नुकसान पहुंचाया था और जनता के मन में जो खटास भर दी थी, उसका रेचन करने की जिम्‍मेदारी तो सभी दलों के जिम्‍मे थी। इस बार एफडीआई पर ‘स्‍वस्‍थ बहस’ को देख-सुन कर लोगों को वास्‍तव में लगा है कि संसद ने अपना काम ठीक से किया है, उनका भरोसा संसदीय लोकतंत्र में वापस बैठ गया है। कुछ समझदार लोग सुषमा स्‍वराज, अरुण जेटली आदि की दलीलों के मुरीद हो गए हैं। मेरा मानना है कि यदि टीआरपी की गणना चालू रहती (जो ट्राई ने चार महीने के लिए रोक दी है), तो शायद एफडीआई पर संसदीय बहस की टीआरपी सबसे ज्‍यादा होती। सोचिए, फिर यह ‘जीत’ किसके खाते में जाती है? 

यह यूपीए की ‘तकनीकी जीत’ नहीं, उस संसदीय लोकतंत्र की जीत है जिसे धोखे की टट्टी की तरह जनता की आंखों के सामने लटका दिया गया है ताकि पिछले दरवाज़े से उसका गला घोंटने का सामान आयात करने में सहूलियत हो सके। इस पिछले दरवाज़े का इस्‍तेमाल हर दल अपने-अपने तरीके से करता है, सो इस बार बसपा और सपा ने कर लिया। बस इतनी सी बात है। आखिर संसदीय ‘लेजिटिमेसी’ के अलावा इस देश के शासकों को और चाहिए भी क्‍या!  
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