डॉ. भीमराव अंबेडकर एक ऐसे नेता रहे हैं जिन्हें भारत में सभी विचारधाराओं के लोग मानते रहे हैं। यह उनका कद ही तो है जो उन्हें अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति दिला रहा है। आज उन्हें संपूर्णता में देखने की जरूरत है। 6 दिसंबर को उनका स्मृति दिवस है। यह आलेख उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है।
शिक्षा देश की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्रांति का आधार है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा दिया गया सूत्र ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ इस सूत्र में ही उनके संघर्षपूर्ण जीवन का व उनके शैक्षिक विचारों का सारांश छिपा हुआ है। इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा कि ‘शिक्षा शेरनी का वह दूध है जो पियेगा वह दहाड़ेगा।’ उनका मानना था कि यदि दलित समाज की महिलाएं शिक्षित होंगी तो वे अपनी संतानों को भी शिक्षित व संस्कारवान बना सकती हैं तथा जीवन में आने वाली कठिनाइयों को हल कर सकेंगी।
डॉ. अंबेडकर ने केवल अनुसूचित समाज की शिक्षा पर ही बल नहीं दिया अपितु प्रत्येक वर्ग के सभी महिला व पुरुषों को सामान रूप से शिक्षा मिले, इस पर उनके विचार एकदम स्पष्ट थे। डॉ. अंबेडकर किसी भी समाज के विकसित होने का पैमाना यह मानते हैं कि उस समाज की स्त्रियां कितनी शिक्षित हैं। उनका मानना था कि जितनी शिक्षा पुरुषों के लिए आवश्यक है उतनी ही महिलाओं के लिए। स्त्रियां किसी भी समाज का मूल आधार होती हैं। यह कुल जनसंख्या की आधी आबादी हैं। ऐसे में उन्हें हाशिये पर रखकर किसी भी परिवार, समाज का वास्तविक विकास नहीं हो सकता।
आगे चलकर ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ का यह नारा डॉ. अंबेडकर का सबसे आमूलचूल परिवर्तन लाने वाला नारा बन गया। कालांतर में इसका प्रभाव खासकर वंचित समुदायों के सामाजिक परिष्करण में दिखाई दिया। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने देश के निर्धन और वंचित समाज को प्रगति करने का जो सूत्र दिया था, उसकी पहली इकाई शिक्षा ही थी। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वे गतिशील समाज के लिए शिक्षा को कितना महत्व देते थे। पढ़ो और पढ़ाओ। इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है कि संगठित होने और न्याययुक्त संघर्ष करने के लिए प्रथम शर्त शिक्षित होने की ही है। इस मामले में डॉ. अंबेडकर की दृष्टि एकदम साफ़ है। साधन सम्पन्न समाज के बच्चों के लिये जीवन में प्रगति के अनेक रास्ते हैं। शिक्षा से भौतिक जगत में गतिशील होने की क्षमता तो प्राप्त होती ही है, बौद्धिक विकास भी होता है। शिक्षा व्यक्ति के आंतरिक एवं बाह्य गुणों का विकास कर उसके व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वास्तव में लोकतन्त्र के निर्मित होने की पहली कड़ी शिक्षा ही है।
पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था के स्थान पर लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करने वाले विचारकों में ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु एवं डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। महात्मा फुले ने हंटर कमीशन को भेजे ज्ञापन में शिक्षा के जिन लोकतान्त्रिक मूल्यों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया था, डॉ. अम्बेडकर इसी विरासत को आगे बढ़ाने वाले उल्लेखनीय विचारक हैं। अपने लेखन से राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने शिक्षा विषयक विचार स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किए जो उनके भाषणों, लेखों, संपादकीयों एवं पुस्तकों में परिलक्षित होते हैं। शिक्षा लोकतंत्र के लिए सदैव सबसे बड़े सहारे तथा एक स्थायी साथी के रूप में रही है। शिक्षा के बिना लोकतंत्र का औचित्य तथा इसका प्रभाव सीमित रह जाता है। दूसरी ओर लोकतंत्र के बिना शिक्षा अर्थहीन है। वास्तव में लोकतंत्र और शिक्षा में एक अन्योन्य या पारस्परिक संबंध होता है, तथा वे एक दूसरे के बिना पनप नहीं सकते।
डॉ. अंबेडकर प्राथमिक स्तर से ही वैज्ञानिक शैक्षणिक विधियों के पक्षधर थे। उनका मानना था कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए सफाई की आदत और शारीरिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। समाज के वंचित तबकों के बच्चों के बारे में उन्होंने कहा, “ऐसे बच्चों के लिए पहला पाठ नहा-धोकर स्वच्छ रहना होना चाहिए, दूसरा पाठ साफ-सुथरा संतुलित भोजन होना चाहिए और जो ऐसा करते हैं उन्हें विद्यालय में प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि बाकी बच्चे सबक ले सकें।”
इसके साथ ही डॉ. अंबेडकर ने शुरू से ही बच्चों में अच्छे संस्कार व अच्छी आदतें डालने की वकालत की। उनके अनुसार “अच्छे संस्कार लंबी कोशिश व कठोर संयम का नतीजा होते हैं, जो दूसरों की सहूलियतों का भी ध्यान रखते हैं। अच्छे संस्कार प्राथमिक रूप से मां-बाप व अध्यापकों से सीखते हैं लेकिन बाद में खुद इनकी जांच-पडताल कर इन पर अपना विश्वास दृढ करते हैं। अच्छी आदतें बहुत मुश्किल से आती हैं जबकि बुरी आदतें बच्चे तेजी से ग्रहण करते हैं, इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। बुरी आदतें ही व्यक्ति और समाज का पतन करती हैं। शांत व्यवहार, मीठी बोली, सभ्य तरीका आदि ही तो अच्छी संस्कृति का निर्माण करते हैं।”
शिक्षा पर विचार करते वक्त तमाम भारतीय शिक्षाशास्त्रियों का बल प्राथमिक शिक्षा पर रहा है। डॉ. अंबेडकर इससे थोड़ा अलग ढंग से सोचते हैं। उन्होंने आंकडों द्वारा इस बात को रेखांकित किया कि अस्पृश्य जातियों में प्राथमिक शिक्षा के स्तर के तो विद्यार्थी आ रहे हैं लेकिन वे उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते। इसकी वजहों के तौर पर डॉ. अंबेडकर ने रेखांकित किया कि दलित वर्गों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती इसलिए वे उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते। वास्तव में डॉ. अंबेडकर एक दूरद्रष्टा विचारक थे। वे दलितों के लिए उच्च शिक्षा की वकालत तो करते ही थे, साथ ही भारत में शिक्षण संस्थाओं की दयनीय हालत को देखते हुए वे दलितों को विदेशी विश्वविद्यालयों तक की पहुंच संभव बनाना चाहते थे। तत्कालीन भारतीय और ब्रिटिश सरकारों के बारे में डॉ. अंबेडकर की स्पष्ट आलोचना थी कि वे दलितों के लिए उच्च शिक्षा मुहैया कराने हेतु पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही हैं।
डॉ. अंबेडकर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण भी होना चाहिए। समाज के विकास के लिए उसके सदस्यों का चरित्रवान होना आवश्यक है क्योंकि चरित्रवान व्यक्ति ही अपने ज्ञान का उपयोग समाज के कल्याण के लिए करेगा। वहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपनी समस्याओं का समाधान अनुसंधानपूर्ण ढंग से कर सकें तथा विचारों की तह तक जाकर उनका विश्लेषण कर सकें तथा साथ ही तथ्य दे सकें।
डॉ. अंबेडकर विद्यालय को एक सामाजिक संस्था मानते हैं। समाज अपने सदस्यों की शिक्षा के लिए इनका निर्माण करता है। वे विद्यालयों को ऐसा बनाना चाहते थे जो समाज को नया रूप देने में सहायक हो। इसलिए वे परम्परागत विद्यालयों के स्वरूप को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनमें बच्चों को पूर्व निश्चित परम्पराओं व आदर्शों का ज्ञान कराया जाता है जो कि सामाजिक समता व विकास में बाधक है।
डॉ. अंबेडकर ने कहा कि “विद्यालयों की स्थापना बच्चों को बारहखड़ी पढ़ाने के लिए नहीं बल्कि उनके मन को सुसज्जित कर समाज हितोपयोगी बनाने के लिए होनी चाहिए। विद्यालय श्रेष्ठ नागरिक तैयार करने के कारखाने हैं अर्थात् कारखाने का मिस्त्री जितना होशियार होगा, वहां से निकलने वाला माल भी उतना ही उत्तम होगा।
दरअसल डॉ. अंबेडकर विद्यालय को समाज का लघु रूप मानते थे, इसलिए उन्होंने विद्यालय में सामूहिक शिक्षा पद्धति पर बल दिया तथा विद्यालय में स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व के वातावरण पर बल दिया। उन्होंने कहा कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को आत्मानुभूति व आत्मोन्नति करना व नैतिक विकास करना है। इस सबके लिए सामाजिक आदर्शों मूल्यों व नैतिकता से पूर्ण उच्च सामाजिक पर्यावरण की आवश्यकता है जो कि विद्यालयों में ही सम्भव है। विद्यालय में विद्वान शिक्षक के द्वारा शील का निर्माण किया जाता है और बालकों का नैतिक विकास होता है।
लेखक गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन करते हैं। जनसंदेश टाइम्स, सुबह सबेरे, जनवाणी, युवा शक्ति, अचूक संघर्ष समेत कई अखबारों में लगातार लेखन कार्य। इसके साथ विभिन्न ऑनलाइन पोर्टल जैसे SSRN, यूथ की आवाज, जनपथ, दलित दस्तक आदि पर भी विभिन्न लेख प्रकाशित। इसके साथ ‘द पर्सपेक्टिव अंतर्राष्ट्रीय जर्नल’ तथा हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, बिलासपुर की संस्थागत त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘स्वनिम’ के सह-संपादक का निर्वहन। ईमेल anishaditya52@gmail.com