शिक्षा में तत्कालीन चुनौतियां और महात्मा गांधी


भारतीय समाज, संस्कृति, साहित्य, दर्शन एवं राजनीति आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों की दिशा और दशा दोनों बदलने वाले महात्मा गाँधी का शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गाँधी का समय एक ऐसा समय था जब देश पूर्ण रूप से दूसरे के अधीन होने के साथ- साथ तमाम आंतरिक विसंगतियों से जूझ रहा था। ऐसे में गाँधी अहिंसा का मार्ग चुनकर अपनी लड़ाई शुरू करते हैं। सम्भवतः उन्होंने यह मार्ग इसलिए भी चुना होगा क्योंकि लड़ाई केवल बाहर से नहीं थी। बहुत कुछ भीतर भी था जिससे मुक्ति पाना बहुत आवश्यक था जिसमें से एक अशिक्षा थी।

गाँधी जी केवल साक्षर होने को शिक्षित नहीं मानते थे। उनके अपने शब्दों में- ‘साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न प्रारम्भ। यह केवल एक साधन है जिसके द्वारा पुरुष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है’। गाँधी जी मनुष्य को शरीर, मन, हृदय और आत्मा का योग मानते थे। इनका स्पष्ट मत था कि शिक्षा को मनुष्य के शरीर, मन, हृदय और आत्मा का विकास करना चाहिए। गाँधी जी ने 3Rs (Reading, Writing and Arithmetic) की शिक्षा को 3Hs (Hand, Head and Heart) की शिक्षा में बदल दिया और कहा कि शिक्षा का कार्य मनुष्य को केवल पढ़ना, लिखना और गणित सिखाना ही नहीं है अपितु उसके हाथ, मस्तिष्क और हृदय का विकास करना भी है।

उनके अपने शब्दों में- ‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के उच्चतम विकास से है’।

आज भी भारत में वह सभी समस्याएं उसी रूप में विद्यमान हैं जिस रूप में गाँधी के समय में थीं, परन्तु अब समस्याएँ और समय दोनों जटिल हो गए हैं। आज के समाज पर पूरा नियंत्रण बाजार का है। बाजार तय करता है कि आप क्या खाएँगे, क्या पियेंगे, क्या पहनेंगे। इसके साथ ही आपका बच्चा स्कूल के बाद किस स्ट्रीम में जाएगा, यह भी बाजार ही तय करता है। बेरोजगारी का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हमारे सोचने-समझने एवं हमारे सभी चुनाव पर बाजार का नियंत्रण है।

बेरोजगारी का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है। समाज में आर्थिक असमानता के साथ जीवन की जटिलता बहुत हद तक बढ़ी है। रोजगार अब शिक्षित होने का पर्याय और प्रमाण दोनों बन गया है और सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि अधिकतर लोगों की समझ में रोजगार का अर्थ है सरकारी मुलाज़िम होना। बड़े होते ही देश का युवा नौकरी की अन्धी दौड़ में शामिल हो जाता है। इतनी बड़ी आबादी वाले देश में गिनती की नौकरियाँ आती हैं जो ऊँट के मुँह में जीरा जैसी भी नहीं हैं। ऐसे में किसी को नौकरी मिलना लॉटरी में नम्बर लगने जैसा है। सौ सवालों का प्रश्नपत्र सालों की मेहनत पर प्रश्नचिन्ह लगाकर चला जाता है। दिन-ब-दिन बढ़ती जनसंख्या, दुनिया भर के मुकाबले कहीं अधिक ऊर्जावान व प्रतिभासम्पन्न युवाओं का देश ढीली व्यवस्था के हवाले है। आज नौकरी ने हमारे जीवन को इस कदर प्रभावित किया है कि हम नौकरी से पहले कुछ भी नहीं सोच सकते। यहां तक कि प्रेम और निजी परिवार के बारे में भी नहीं। जैसे कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविता है- ‘क्योंकि नौकरी / इस जन्म के लिए /ज़रूरी है/ अत: प्यार को/ अगले जन्म तक के लिए / स्थगित करता हूँ।‘

आज नौकरी तय करती है कि आपके जीवन की शुरुआत कब होगी। आधा जीवन बीत जाने के बाद भी आज अधिकतर युवाओं के सामने नौकरी और व्यवसाय के प्रश्न बने हुए हैं। महात्मा गाँधी की दृष्टि बहुत ही व्यापक और दूरगामी थी, बेरोजगारी का एकमात्र विकल्प नौकरी नहीं हो सकती यह बात वे भलीभाँति जानते थे, इसलिए उन्होंने ‘शिल्प आधारित शिक्षा’ की वकालत की। आज हम इतने वर्षों के ‘स्किल इण्डिया’ की बात कर रहे हैं जो कि गाँधी अपने समय में कह चुके हैं। उन्होंने मनोविज्ञान का अध्ययन नहीं किया परन्तु उनके शिक्षा सम्बन्धी विचार पूर्णतः मनोवैज्ञानिक हैं, उन्होंने करके सीखने पर बल दिया। वे मानते हैं मनुष्य का अपने अनुभवों से सीखना सबसे प्रभावशाली है, इसलिए क्रिया आधारित अधिगम को सर्वाधिक उत्तम मानते हैं।

देश में व्याप्त तत्कालीन जितनी भी समस्याएं हैं, उनके निवारण हेतु महात्मा गाँधी द्वारा 1937 (वर्धा शिक्षा योजना) में  प्रस्तावित शिक्षा नीति जिसे ‘बेसिक शिक्षा’ के नाम से जाना जाता है, बहुत ही उपयुक्त है। बेसिक शिक्षा में 6-14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की बात की गई, शिल्प आधारित शिक्षा की बात की गई, बच्चों को प्राम्भिक शिक्षा उनकी मातृ भाषा में दी जाय इस पर विशेष बल दिया गया, बच्चों को विद्यालय परिसर में ही तमाम कौशलों को सिखाने और वहीं पर उत्पाद तैयार करने की बात कही गई, जिससे उन्हें आर्थिक मजबूती प्रदान हो। इस मॉडल का विद्यालय महाराष्ट्र के सेवाग्राम में ‘नई तालीम’ के नाम से अब भी सक्रिय है। महात्मा गाँधी वहाँ बारह वर्ष रहे, उन्होंने स्वयं चप्पल बनाना सीखा और फिर बच्चों को सिखाया।

हमारे यहां शिल्प आधारित जितने भी व्यवसाय सदियों से मौजूद रहें हैं आज वे लाचारी और मजबूरी का पर्याय बन गए हैं। यहां तक कि किसानी जिस पर यह देश जीवित है, वह केवल मजबूरी भर बनकर रह गया है। एक कृषि प्रधान देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा? महात्मा गाँधी ने सदैव मस्तिष्क, आत्मा और हाथ (आर्थिक) तीनों की समृद्धि की बात की है। वे उस शिक्षा को अधूरा मानते हैं जो इन तीनों में से किसी एक की भी पूर्ति करने में असफल साबित हो। महात्मा गाँधी की दृष्टि में जितना महत्वपूर्ण भौतिक ज्ञान है उतना ही आध्यात्मिक भी। समय जितना कठिन और कठोर होता जाएगा, गाँधी और उनका दर्शन उतने ही प्रासंगिक होंगे।


लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में परास्नातक के छात्र हैं


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