रेणु की जयंती पर ‘मैला आँचल’ को पढ़ते हुए…


क्या नहीं है इस पुस्तक में! इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति, कूटनीति, दर्शन, साहित्य सब तो है। इसे पढ़ते वक़्त मुझसे मौन रह कर नहीं पढ़ा जाता।

आंचलिक शब्दों का जो प्रयोग इसमें किया गया है गांवों में रहने के दौरान इन शब्दों से मेरा वास्ता रहा है। मैंने अपभ्रंश की मिठास चखी है। इसके शब्दों का प्रयोग ही ऐसा है जिसे चुपचाप तो नहीं पढ़ा जा सकता। इसे महसूस करने के लिए मुझे बुदबुदाना पड़ता है। अपभ्रंश की मिठास को बोल कर पढ़े बिना भला महसूस किया जा सकता है क्‍या?

भारत की स्वतंत्रता  से पहले और  बाद का समाज, भोली ग्रामीण  जनता के लिए स्वतंत्रता के मायने और क्रांति की लहर से कैसे गाँव के संक्रमित होते चले गये इसे इस पुस्तक में बखूबी समझा जा सकता है। सन् 1947 से पहले के उस दौर की सरलता पर मुग्ध और आश्चर्यचकित  हुआ जा सकता है।

इस पुस्तक में आजाद और गुलाम भारत की कहानी है। साथ ही नई विचारधारा, उभरते विभिन्न  राजनीतिक संगठन और पार्टियों को ले कर लोगों की सोच  को बखूबी समझा जा सकता है।

मैला आँचल पुस्तक के डॉक्टर प्रशांत और कमला मेरे जीवन में तब आये जब मैं 9वीं कक्षा में रही  होउंगी। मेधावी डॉक्टर प्रशांत तमाम सुख सुविधा छोड़ कर स्वेच्छा से इसी पिछड़े इलाके में सेवा की भावना और मलेरिया, कालाजार पर शोध के उद्देश्य से पहुँच जाता है, जहाँ की जमीन हमेशा गीली रहती है, जहाँ के नदी तालाब पुरैन के पत्ते और कमल के फूलों से भरे रहते हैं।

रेणु जी  लिखते हैं कि डाक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीव जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता देखता है। बनारस और पटना में भी गुलमोहर की डालियाँ लाल फूलों से लद जाती थीं। नेपाल की तराई में पहाड़ियों पर पलाश और अमलतास को भी गले मिलकर फूलते देखा है, लेकिन इन फूलों के रंगों ने उस पर पहली बार जादू डाला है!

डॉक्टर प्रशांत… प्रशांत महासागर और मिथिला की पुण्यदायिनी  कमला नदी का इतना अद्भुत मिलन और भला कहाँ दिखेगा?

डॉक्टर प्रशांत की नायिका कमला कहती है कि मैं तुम्हें प्रशांत महासागर कहूँगी पर डॉक्टर तो प्रशान्त महासागर नहीं होना चाहता क्योंकि प्रशांत महासागर  में राजकमल नहीं खिलता, वह कमला नदी का गड्ढा ही होना चाहता है।

बाकी लोगों की तरह मैं केवल डॉक्टर प्रशांत और कमला को इस पुस्तक के नायक-नायिका के तौर पर नहीं देखती। मुझे लगता है कि इस पुस्तक का कोई एक नायक अथवा नायिका नहीं है। इसमें 250 से अधिक पात्र अपनी अपनी दुनिया के नायक हैं।

गरीबी, भुखमरी, कालाजार, मलेरिया और निलहे साहबों की ज्यादती  के डंक से जूझते  पूर्णिया के एक गाँव मेरीगंज को केंद्र में रख कर रेणु जी ने यह पुस्तक लिखी है।

एक दौर में पूर्णिया अपने नाम को वाकई सार्थक करता था, पूर्णिया यानी “पूर्ण अरण्य”।

पुस्तक की कई पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं और अंतरात्मा को बेध देती हैं। इतने वर्षों पहले लिखी इस किताब को पढ़ कर बरबस गांव याद आता है और याद आता है कि हमारे गांव के फलां व्यक्ति ऐसे ही शैली में बातचीत किया करते थे।

भारत विभाजन को ले कर गाँव वालों की राय को माध्यम बना रेणु जी इस पुस्तक में उल्लेख करते हैं जिसे पढ़ कर लगता है कि क्या कोई इतने जुदा अंदाज के साथ  विभाजन की त्रासदी के विषय में सोच सकता है, वो भी गाँव की अनपढ़ और दुनिया की आबोहवा से अनभिज्ञ जनता।

रेणु लिखते हैं,  “सुराज  ( स्वराज) मिल गया?’’
‘’नहीं पंद्रह को मिलेगा। हिन्दू लोग हिन्दुस्तान और मुसलमान लोग पाकिस्थान में चले जाएँगे।‘’ 
“मुसलमानों का हिस्सा पाकिस्थान में चला जावेगा?.. एकदम काटकर हिस्सा लेगा?”
“हाँ, जब हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं तो भैयारी हिस्सा तो रकम आठ आना के हिसाब से ही मिलेगा।”

न जाने क्यों मुझे उपरोक्त पंक्ति इतनी प्रिय है कि इसे मैं बार बार दुहरा कर पढ़ने लगती हूँ।

डॉक्टर प्रशांत अपनी सहपाठी को पत्र लिखता है कि “गाँव के लोग बड़े सीधे दिखते हैं, सीधे का अर्थ यदि आप अज्ञानी और अन्धविश्वासी हो तो वास्तव में हैं। जहाँ तक सांसारिक बुद्धि का सवाल है, वे हमारे और तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में पाँच बार ठग लेंगे और तारीफ यह है कि तुम ठगी जाकर भी उनकी सरलता पर मुग्ध होने के लिए मजबूर हो जाओगी। यह मेरा सिर्फ सात दिन का अनुभव है। सम्भव है पीछे चलकर मेरी धारणा गलत साबित हो। मिथिला और बंगाल के बीच का यह हिस्सा वास्तव में मनोहर है”।

रेणु जी की लेखनी की सबसे खास बात है उनकी लेखनी में आंचलिकता की मिठास है। शायद यही वजह है कि लोग उनका उल्लेख आंचलिक लेखक के रूप में करते रहे हैं पर मुझे इस बात से ऐतराज रहा है क्योंकि रेणु जी को केवल आंचलिकता के नहीं बल्कि भारतीयता के लेखक के रूप में पहचाना जाना चाहिए।

पहली बार बारह-तेरह वर्ष पूर्व पढ़ी गई यह किताब और अब तक न जाने कितनी बार इसे पढ़ लेने के बावजूद भी मैं इस पुस्तक के बारे में कुछ लिख नहीं पाई। ऐसा भी नहीं है कि लिखने का प्रयास न किया हो परंतु जब जब लिखना चाहा उचित शब्द नहीं जुटा सकी।

आज इस पुस्तक के बारे में जब थोड़ा  कुछ लिख रही हूँ तो लगता है कि और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है इस पुस्तक के विषय में, कितना कुछ तो छूट गया या मैं इसे सही तरीके से लिख नही पाई, शायद कभी लिख न पाऊं।

कुछ ऐसे लेखक हुए हैं जिनके लिए, जिनकी लेखनी के बारे में  लिखने को बहुत कुछ है मेरे पास। इतना कुछ कि फ़िर शब्द ही नहीं सूझते, बस भाव रह जाते हैं, मुझ में ही सीमित। ऐसी स्थिति में जब मैं बताने को बेचैन हो जाती हूँ अपनी भावनाएँ और नहीं बता पाती तब मुझे लगता है कि कहीं मुझ में कोई भावनात्मक विकार तो नहीं उत्पन्न हो गया अथवा Alexithymia (एलेक्सीथायमिया)  जैसी कोई बीमारी तो नहीं हो गई।

ऐसे ही लेखकों में से एक हैं फणीश्वर नाथ रेणु जी, जिनके बारे में, जिनकी लेखनी के बारे में लिखने बैठती हूँ तो भाव होते हैं पर शब्द ही नहीं सूझते और कुछ ही मिनटों में लिखना बन्द कर देती हूँ।

कहीं किसी किताब में एक बार पढ़ा था कि एक पुस्तक प्रेमी लड़का अपने दोस्तों से कहता है कि “ओह मैं तुम्हें कैसे  बताऊं कि किताब और कविता पढ़ना दूध पीने जैसा है”।

रेणु जी के संदर्भ में मुझे यही लगता है जब हमारे अंचल से ताल्लुक न रखने वाले लोग कहते हैं कि उन्हें रेणु जी की भाषा समझ नहीं आती, जी चाहता है कहूँ कि रेणु को पढ़ना खूब प्यासे होने पर अमृत तुल्य शीतल  जल पीने जैसा है।

जी चाहता है हर उस व्यक्ति को जिन्हें रेणु जी का लिखा समझ नहीं आता, जो हमारी आंचलिक भाषा नहीं समझ पाते उन्हें तफसील से एक-एक शब्द का अर्थ समझाऊँ।

अहा! कितना सुखद और संतुष्टिप्रद होगा यह।


स्वतंत्र लेखिका, दरभंगा

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