‘बोल मुलायम हल्ला बोल, हल्ला बोल हल्ला बोल’! ‘धरती पुत्र मुलायम सिंह जिंदाबाद-जिंदाबाद’! इन्हीं नारों के बीच हमारा राजनीतिक विकास हुआ। इसके जातिगत कारण भी हो सकते हैं। कितना विचित्र और दुःखद संयोग है कि 9 अक्टूबर को कांशीराम जी की पुण्यतिथि थी और 10 अक्टूबर को मुलायम सिंह यादव जी नहीं रहे। धरतीपुत्र मुलायम सिंह जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
बचपन में प्रतापगढ़ के रामगंज में जब पापा-मम्मी के साथ हम रहते थे तो थोड़ी दूर पर श्रीनाथ यादव का मकान था। उस पर लगे लाउडस्पीकर से बजते गाने ‘बच्चा-बच्चा नौजवान चल दिए, साइकिल सवार सीना तान चल दिए’ को सुनने घर से थोड़ी दूर मैं मैदान में जाता था। बीच-बीच में मुलायम सिंह जिंदाबाद, बेनी प्रसाद वर्मा जिंदाबाद के नारे लगते थे। मुझे उसके पहले प्रतापगढ़ के ढकवा बाजार में चक्र निशान वाले जनता दल का कार्यालय भी याद आता है। एक बार समाजवादी जनता पार्टी, जिसका निशान हलधर किसान था, का झंडा मिला तो उसको बहुत दिन संजो कर रखा। बचपन में एक बार रामलखन यादव का पोस्टर मिला जो सपा से लड़ रहे थे, तब बहुत खुश हुआ। उस पर मुलायम सिंह जी की तस्वीर लगी थी। जब मालूम चला कि इसकी कीमत पच्चीस पैसे है तब सोचने लगा कि कैसे इतना महंगा पोस्टर लगता होगा।
एक बार शाम होने वाली थी और मालूम चला कि सपा के कार्यकर्ता रामलखन यादव की हत्या हो गई है। वहां जा तो नहीं पाया क्योंकि उस वक़्त दो या तीन में पढ़ रहा था पर दूसरे दिन ही अखबार से यह सुनने को मिला कि मुलायम सिंह यादव ने उनके परिजनों को एक लाख रुपये की आर्थिक मदद देने का वादा किया। कुछ दिनों बाद एक बड़ी रैली उनके गांव में हुई और मुलायम सिंह यादव ने सड़क से उनके घर तक जाने वाले मार्ग का नाम ‘शहीद रामलखन यादव’ रखा। सुल्तानपुर से जौनपुर जाने वाली रोड पर ढकवा बाजार के थोड़ा सा पहले ये द्वार है।
नेताजी का कार्यकर्ताओं के प्रति ये सम्मान था। उस दौर में राजनीतिक वर्चस्व के संघर्ष में बहुत लोगों की जान गई। मंडल कमीशन के बाद यह राजनीतिक उभार सामंती वर्ग स्वीकार करने को तैयार न था। राजनीति पर जातिवादी और अपराधीकरण का आरोप लग रहा था जबकि ये जातियों के राजनीतिकरण का दौर था। मेरे घर पर उस वक़्त बहुत से ऐसे लोग रहते थे जो जातिगत संघर्षों में लिप्त थे। उन्हें आप अपराधी कह सकते हैं। उस दौर में जब निचली जातियों के बूथ पर जाने से पहले वोट पड़ जाते थे तो बिना दबंगई के इसको काउंटर करना मुश्किल था। इसको आज भी समाजवादी पार्टी की राजनीति में देख सकते हैं। दूर से बैठ कर राजनीतिक विश्लेषण और करीब में उसके साथ जीना दोनों अलग-अलग स्थितियां हैं। यह सच्चाई है कि आज भी भारतीय समाज में सबसे ज्यादा दलित बेटी का बलात्कार होता है। मेरे घर पर एक अखाड़ा खोदा गया था। जो भी लोग आते थे पापा उनको दौड़ने, कसरत करने और अखाड़ा लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
इसी बीच बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने विध्वंसक राजनीति को उकसाया। उस दौर में कांशीराम-मुलायम सिंह के गठजोड़ ने इसे थोड़े वक़्त के लिए ही सही मुकाबला किया। तब नारे लगते थे ‘लोहा कटे लोहरे से सोना कटे सोनारे से, जब मुलायमा हाथ मिलाए कांशीराम से’।
हाशिमपुरा-मलियाना मुझे याद नहीं क्योंकि उस वक़्त तक मैं साम्प्रदायिक सौहार्द की राजनीति को नहीं जानता था, और न ही मुल्ला मुलायम। एक वाकया याद आता है कि हर शाम पापा नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठते थे। उस वक़्त वहां सब लोग कुर्सी पर ही बैठते थे। पापा ने रामराज जी से पूछा कि आप लखनऊ लुंगी में बिना चप्पल के रैली में गए थे। बताइए लोग देखे होंगे तो नेताजी की क्या इज्जत रह जाएगी। यह दौर इस तरह की जातियों के सिविलाइजेशन का दौर भी था।
पापा की मोटरसाइकिल पर बैठकर कई मीटिंगों और रैलियों में गया। ढकवा में ही चौराहे पर देर रात मुलायम सिंह को थोड़ा पास से देखने का मौका मिला। एक बार रिक्शे से स्कूल जा रहा था तो सड़क किनारे एक तंबू में राजबब्बर को एक सभा में बोलते हुए देखा, जयाप्रदा भी थीं। धुंधली सी याद है कि मुलायम सिंह भी मंच पर थे। ये उस दौर की बात कर रहा हूं जब लाव-लश्कर का तामझाम नहीं था। प्रतापगढ़ में ही पट्टी में वीपी सिंह और मुलायम सिंह को रैली में सुना।
उसके बाद आजमगढ़ चला आया और एक वाकया नहीं भूलता, जब आजमगढ़ रेलवे स्टेशन से गुजरती रोड को शमीम भाई ने जाम करवाया था और नारे लग रहे थे कि बोल मुलायम हल्ला बोल। उसी सभा में मैंने सुना कि एक मुस्लिम बच्चे को आतंकवाद के नाम पर फंसा दिया गया। बाद में मालूम चला कि वो शाहिद आजमी थे।
आजमगढ़ की एक रैली में एकाएक उन्होंने आजमगढ़ को कमिश्नरी बनाने का ऐलान किया। उसी रैली में मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि अगर पुरुष महिला को पीटे तो बोल मुलायम हल्ला बोल कह बेलन से पीटें।
जैसे-जैसे राजनीतिक बुद्धि-विवेक बढ़ा, बहुत कुछ व्यक्ति सोचने-समझने लगा। बचपन में एक बार मेरा एडमिशन का मामला था तो नेताजी ने जो पत्र लिखा था उसमें लिखा था ‘मेरे पारिवारिक मित्र’। वो अपने आसपास के लोगों सुदृढ़ रखना पसंद करते थे।
2012 में सपा की सरकार बनने के बाद हुए साम्प्रदायिक तनाव के दौर में एक बार एक वरिष्ठ सपा के नेता जी ने फोन किया और मुलायम सिंह से मिलने की बात कही, पर राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते मैं नहीं मिला।
हर व्यक्ति की समाज में एक भूमिका होती है। मुलायम सिंह जी या कांशीराम जी की एक बड़ी भूमिका सामाजिक न्याय आधारित समाज के लिए थी जिसने बहुजन-वंचित समाज को राजनीतिक ताकत दी। उस राजनीतिक ताकत के एक दौर में यूपी में स्थापित कर दिया कि जो भी सूबे का मुखिया होगा वो बहुजन समाज से होगा। बहुजन समाज की आपसी टकराहट और विचारहीनता ने उस किले को ढहा दिया। उस किले का निर्माण ही नेताजी को असली श्रद्धांजलि होगी।