अभिषेक श्रीवास्तव
हम कहानी, कविता, उपन्यास, रिपोर्ताज, खबरें, आलेख, टिप्पणियां, प्रतिक्रियाएं, संस्मरण, वृत्तांत आदि लिखने वाला मानते हैं। इसमें शैक्षणिक संस्थानों में अध्यापकीय कार्य करने वाले भी शामिल हैं, जो लिखें या न लिखें, लेकिन उनसे लिखने की अपेक्षा होती है। इनमें अखबारों और पत्रिकाओं के वे संपादक भी शामिल हैं, जिन्होंने बरसों से कुछ नहीं लिखा, फिर भी उनसे लेखन की अपेक्षा की जाती है। इसके अलावा इस बिरादरी में वे भी शामिल माने जाएं, जो किसी निजी या सार्वजनिक हादसे या विवशता के चलते लेखन-कर्म से जुड़ गए, भले उनकी चेतना इसके लिए तैयार नहीं थी। यह अलग बात है कि सतत और सचेत लेखन से अपने आप परिष्कृत चेतना का निर्माण होता जाता है। सवाल है कि लेखक होने और न होने के बीच क्या फर्क है?
इसका एक जवाब यह हो सकता है कि लेखन एक काम है। कुछ लोगों के लिए यह पूरावक्ती पेशा भी है। कुछ लोग दूसरे पेशों में रहते हुए लेखन करते हैं। क्या हम लेखन को मंगल बाजार में आलू बेचने जैसा काम मानने की छूट ले सकते हैं? लेखक को यह बात सामान्यतया बुरी लगती है। आलू बेचने और कविता, कहानी या आलोचना आदि लिखने में चेतना का फर्क है। दिल्ली के हिंदी भवन के बाहर चाय बेचने वाले लक्ष्मण राव इसका अपवाद हो सकते हैं, अगर आप उन्हें लेखक मानने को तैयार हों (हालांकि मुख्यधारा की हिंदी लेखक बिरादरी में उन्हें स्वीकार्यता नहीं मिली है)।
चेतना या आसान शब्दों में कहें तो सोचने-समझने की ताकत, सही और गलत में फर्क करने की क्षमता मनुष्य को बेहतर बनाती है। बेहतर मनुष्य बेहतर पेशा चुनता है, बेहतर काम करता है। रचनात्मक होता है। इससे आगे बढ़ें तो वह अपने इर्द-गिर्द के समाज की बेहतरी के लिए उत्तरोत्तर सार्थक उत्पादन करता है। जब सही और गलत में से चुनने की बारी आती है तो वह सही को चुनता है। इस सही को चुनने और गलत को खारिज करने का एक पैमाना होता है। यह पैमाना चेतना के बेहतर होते जाने के क्रम में विकसित होता जाता है, जो निजी नैतिकता, सामाजिक मूल्यों और इतिहासबोध के मंथन से मिल कर बनता है।
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जनसत्ता: 3 अगस्त, 2014 |
इसी पैमाने पर एक लेखक घर-मोहल्ले से लेकर दुनिया-जहान की घटनाओं का विश्लेषण करता है। सही पर सिर हिलाता है, गलत पर अंगुली उठाता है। रोजमर्रा के इन्हीं न्याय-निर्णयों से वह अपनी रचना का खाद-पानी भी जुटाता है। फिर रचना प्रक्रिया में एक बार फिर वह न्याय-निर्णय की प्रक्रिया से गुजरता है, अलबत्ता इसमें व्यवहार में बरती जाने वाली जल्दबाजी की मजबूरी नहीं होती। इस तरह वह खुद को तसल्लीबख्श तरीके से तराशता है और किसी अगले व्यवहार पर प्रतिक्रिया देने के लिए खुद को और निपुण बनाता है। व्यवहार और विचार की इस रगड़-घिस्स से चेतना उत्तरोत्तर बेहतर होती जाती है। मनुष्य लेखक बनता जाता है। रचना बेहतर होती जाती है।
यह मनुष्य के स्वाभाविक विकास पर भी लागू होता है। यह प्रक्रिया लेखक बनने के लिए ही क्यों लागू हो, एक मिस्त्री भी अपने कल-पुर्जों की मदद से मशीन बनाने के क्रम में ऐसी ही प्रक्रिया से गुजरता होगा, एक आलू बेचने वाला भी सौदेबाजी की कला में पारंगत होते-होते बेहतर सौदागर बन जाता होगा। इसका मतलब यह हुआ कि निकट समाज में क्या सही घट रहा है और क्या गलत, इसे लेकर मोटे तौर पर लोगों की न्याय-निर्णय की क्षमता औसतन एक ही होती होगी। अगर वास्तव में ऐसा है, तो लेखक और अलेखक होने के बीच फिर चेतना का उतना हाथ नहीं है, जितना अध्ययन और विचार का है। संभव है कि कोई मिस्त्री या सब्जी वाला दस किताबें न पढ़ा हो, विचारों के इतिहास से परिचित न हो, लेकिन इसे अगर इस एक शर्त को काट दें तो मनुष्यता का बुनियादी पैमाना उसके लिए भी वही रहना चाहिए, जो किसी लेखक के लिए अपेक्षित होगा। मसलन, अन्याय की सामाजिक पहचान मोटे तौर पर एक होगी। उसके प्रतिकार के तरीकों में फर्क हो सकता है, लेकिन प्रतिकार की चेतना तो होगी ही, फिर लेखक हो या अलेखक।
अब यह सोचें कि अगर एक लेखक और अलेखक दोनों किसी सामाजिक अन्याय पर प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, अपने-अपने उपलब्ध तरीकों या माध्यमों से हस्तक्षेप नहीं करते हैं, तो इनमें ज्यादा दोषी कौन हुआ? बेशक, अमानवीयता का दोष दोनों के सिर पर आएगा, लेकिन लेखक ज्यादा दोषी होगा, क्योंकि उसके पास अध्ययन और विचार दोनों हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वे चेतना को बेहतर बनाते हैं। अगर एक मनुष्य से मनुष्यता के नाते अपेक्षित सहज बुनियादी प्रतिकार ही समाज से गायब हो जाए, तो विचार और अध्ययन कूड़े के भाव भी नहीं बिकेंगे। यही प्रतिकार या हस्तक्षेप है, जो संगठित कानून के समांतर सामाजिक वैधता को परिभाषित करता है।
हर समाज में किसी भी घटना का एक कानूनी पक्ष होता है (लीगलिटी) और साथ में एक वैधानिक पक्ष भी होता है (लेजिटिमेसी)। वैधानिक पक्ष समाज के मूल्यों को तय करता है। उन्हें बनाता-बिगाड़ता है। समाज के मूल्यों को गढ़ने की स्वाभाविक जिम्मेदारी ज्यादा विचारवान लोगों की होती है। लेखक बिरादरी उनमें से एक है। अगर लेखक सहज अमानवीय घटनाओं पर बोलना-लिखना छोड़ दे, तो समाज के वैधानिक पक्ष को नुकसान होता है। अगर अमानवीय घटना लेखक के घर, गली, मोहल्ले में घट रही हो तो सबसे पहले खुद उसका वैधानिक पक्ष दांव पर होगा। इसे इस तरह भी समझें कि अगर कोई अन्यायपूर्ण घटना हिंदी के ‘पब्लिक स्फीयर’ (जिसे पुरुषोत्तम अग्रवाल लोकवृत्त कहते हैं) में घट रही हो, तो क्या हिंदी का लेखक उसकी उपेक्षा करने की छूट ले सकता है? उक्त घटना को निजी, न्यायाधीन या विचाराधीन बता कर क्या कोई लेखक पल्ला झाड़ सकता है? बड़ा सवाल यह बनता है कि क्या किसी सभ्य समाज को वैधानिक पक्ष से मुक्त सिर्फ न्यायिक कानून के भरोसे छोड़ा जा सकता है?
हिंदी में मुख्यधारा का साठोत्तरी लेखन वैचारिकता के स्तर पर कथित तौर पर वाम झुकाव वाला रहा है। एक तो मनुष्य होना, वह भी बेहतर मनुष्य; दूसरे अध्ययन और विचारों के इतिहास से लैस होना; तीसरे वाम की ओर कथित तौर पर प्रवृत्त होना; ये तीनों गुण मिल कर समकालीन हिंदी लेखक को गढ़ते हैं। फिलहाल, यही हिंदी का लोकवृत्त होना चाहिए। इस लोकवृत्त के भीतर तीन और ठोस वृत्त हैं, जिन्हें हम तीन प्रमुख लेखक संगठनों (प्रलेस, जलेस और जसम) के नाम से जानते हैं। ऐसे ही एक वृत्त के भीतर निवास करने वाला हिंदी का एक सम्मानित आलोचक निजी व्यभिचार के चलते एक संस्थान से निलंबित कर दिया जाता है। दूसरे वृत्त का हिस्सा बनने की चेष्टा में हाशिये से दिल्ली आया एक कवि मोहल्ले में अपनी पत्नी को पीटता है। तीसरे और कथित तौर पर ज्यादा इंकलाबी वृत्त का एक सम्मानित आलोचक घर से घसीट कर अपनी पत्नी को लात मारते बाहर लाता है और गली में पीटता है।
इन तीनों वृत्तों के भीतर और बाहर ऐसी तमाम घटनाएं बरसों से घट रही हैं, जिनमें एक को छोड़ कर शायद ही कोई कानूनी चौखट तक पहुंची है, हालांकि बाकी अतीत की घटनाओं समेत उस एक हालिया घटना पर भी खतरनाक चुप्पी अख्तियार करके हिंदी के लेखक समुदाय ने अपने वैधानिक पक्ष को दांव पर लगा दिया है। पहले वृत्त वाला निलंबित आलोचक वाम बिरादरी में ससम्मान वापस आ चुका है। दूसरे वृत्त वाला लेखक संपादक बन चुका है और बाकी वाम लेखकों से लिखवा कर उन्हें उपकृत कर रहा है। तीसरे वाले मामले में बरती गई सामूहिक चुप्पी अबकी कुछ ज्यादा शोर कर रही है, क्योंकि यह घटना राष्ट्रीय मीडिया में दो दिनों तक सुर्खियों में रही है।
अध्ययन, विचार, विचारधारा सब छोड़ दें; एकबारगी इजराइल, गाजा, अमेरिका, उदारवाद, बाजार, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद, गुजरात, हिंदुत्व, सांप्रदायिकता, फासीवाद सब भूल जाएं। बरसों से अपने बनाए वृत्तों के भीतर अपने ही बिरादरों के किए असंख्य अन्यायों पर खुद धृतराष्ट्र बना हिंदी का लेखक मनुष्य होने की बुनियादी शर्त ही पूरी नहीं कर रहा है। अपनी शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति से आक्रांत वह यह भूल जाना चाहता है कि बीते दस साल में हिंदी का लोकवृत्त सूचना प्रौद्योगिकी ने बहुत चौड़ा कर डाला है। इतना विस्तारित कि उसका हर किया-अनकिया कहीं न कहीं दर्ज हो रहा है।
अब से पहले तक हिंदी का लेखक होना मनुष्यता-विरोधी चुप्पी को धोखा देने की एक टट्टी रहा होगा, लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया के फैलते प्रभाव के चलते आगे ऐसा शायद संभव नहीं रह जाएगा। विचारधारा और सामाजिक जिम्मेदारी आदि बाद की बातें हैं। अब भी वक्त है कि हिंदी का लेखक अपने बेहतर मनुष्य होने के अर्थ और एक अलेखक से अपने फर्क को सायास साबित करे। उसके प्रतिनिधि लेखक संगठनों की जिम्मेदारी ऐसे मामलों में कहीं ज्यादा बनती है। ऐसा नहीं हुआ तो इतिहास का कूड़ेदान पर्याप्त खाली पड़ा है।