सिलवडिया के फूल यानी अमलतास के फूल…जो गर्मियों में हमारे यहां अपनी वासन्तिक सुगंधहीन लेकिन पीत छटा बिखेरते हैं। सुगंधहीन इसलिए क्योंकि उसकी सुगंध लेने के लिए जाना पडता है उसके पास, और चूंकि उस पर चींटे बहुत होते हैं इसलिए ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता। सिलवडिया की बेलें जहां गुलमोहर के साथ दिखाई देती हैं, वहां एक प्राकृतिक संयोग बनता है, राजनैतिक मायने निकलते हैं और कविता बनती है… इससे पहले बता दूं कि अमलतास को सिलवडिया कहते हैं अपने यहां, यह जानकारी मुझे हमारे चौबेपुर के लालजी यादव ने दी थी। लालजी हमारे यहां भैंस का दूध देते थे… ख़ैर, यह कविता ‘संप्रति पथ’ में कुमार मुकुल छाप चुके हैं। वहीं से साभार…
दिल्ली में भी
सिलवडिया के फूल खिलते हैं…
हमारे यहां जितने ही पीले…
शायद जवान
कुछ कम ख़ूबसूरत…।
हमारे यहां जंगलों में/बाग़ों में हुआ करते थे/हैं
यहां हाईवे के किनारे दीख जाते हैं
कभी-कभार।
हमारे यहां छिटके-से थे,
यहां कतारबद्ध हैं।
यहां कतारबद्ध हैं।
उनके बगल में गुलमोहर भी हुआ करते थे, हमारे यहां
यहां, वे एक सिरे से गायब हैं।
गुलमोहर की लालिमा में, सिलवडिया की पीली बेल
अर्थ रखती थी-
संयोग से उनके, जीवित हो उठती थी।
यहां पीली कतारों में वह संयोग कहां…।
गुलमोहर की ही तरह, और भी कई चीजें
हो रही हैं गायब
दिल्ली में,
सिलवडिया की तरह ही कई चीज़ें अपना अर्थ, खो रही हैं
दिल्ली में।
संयोग नहीं है, तो द्वंद्व भी गायब जान पडता है।
यहां ‘होना’ उपस्थिति मात्र है,
‘न होना’ एकल प्रलाप।
संभव है
कल कहीं मुझे गुलमोहर भी दीख जाए
सिलवडिया की बेलों के बीच।
लेकिन तब तक…
बहुत देर हो चुकी होगी,
एकल प्रलाप का अभिशाप हमारी आदत बन चुका होगा,
चीज़ों का होना/न होना हमें नहीं अखरेगा
सौंदर्यबोध शायद शेष रह जाएगा-
स्थूल आकृतियों में।
उपस्थिति की आडी-तिरछी
ज्यामितीय रेखाओं के बीच,
संरचनाओं के बहुआयामी देश-काल में,
सम्बन्धों के सेतु तलाशते,
शायद…
हम,
बचे रह सकें…।
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वाह..नगाडे की माफिक बजते शब्द..बहुत ही सुन्दर कविता.
बहुत अच्छे !