अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले महीने मीडिया में लीक हुई एक ‘खुफिया’ रिपोर्ट में भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो ने कुछ व्यक्तियों और संस्थाओं के ऊपर विदेशी धन लेकर देश में विकास परियोजनाओं को बाधित करने का आरोप लगाया था। इसमें ग्रीनपीस नामक एनजीओ द्वारा सिंगरौली में एस्सार-हिंडाल्को की महान कोल कंपनी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन का भी जि़क्र था। आज़ादी के बाद सिंगरौली के विकास की पूरी कहानी विश्व बैंक और अन्य विदेशी दानदाताओं के पैसे से लगी सरकारी परियोजनाओं के कारण मची व्यापक तबाही व विस्थापन के कई अध्याय संजोए हुए है।
जहां छह दशक से विकास के नाम पर विदेशी पैसे से सिर्फ विनाशलीला को सरकारें अंजाम दे रही हों, वहां विकास के इस विनाशक मॉडल के खिलाफ बोलने वाला कोई संस्थान या व्यक्ति खुद विकास विरोधी कैसे हो सकता है? जो सरकारें सिंगरौली में कोयला खदानों व पावर प्लांटों के लिए विश्व बैंक व एडीबी से पैसा लेने में नहीं हिचकती हो, उन्हें जनता के हित में बात करने वाले किसी संगठन के विदेशी अनुदान पर सवाल उठाने का क्या हक है?
विकास के मॉडल पर मौजूदा बहस को और साफ़ करने के लिहाज से इन सवालों की ज़मीनी पड़ताल करती एक रिपोर्ट सीधे सिंगरौली से हम पाठकों के लिए किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि वे जान सकें कि मानव विकास के असली विरोधी कौन हैं और सरकार जिस विकास की बात करती है, उसका असल मतलब क्या है।
7 जून, 2014 की रात
बीते 3 जून को ‘विदेशी’ अनुदान वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर भारत के गुप्तचर ब्यूरो द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को कथित तौर पर सौंपी गई एक खुफिया रिपोर्ट के मीडिया में लीक हो जाने के बाद जब राष्ट्रीय मीडिया में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा था, तो दिल्ली से करीब हज़ार किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश के सिंगरौली जि़ले में एक अलग ही कहानी घट रही थी। सिंगरौली रेलवे स्टेशन से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय बैढ़न में कलेक्ट्रेट के पीछे हरे रंग के एक मकान को 7 जून की रात 12 बजकर पांच मिनट पर पुलिस ने अचानक घेर लिया। उस वक्त वहां मौजूद आधा दर्जन लोगों में से पुलिस ने दो नौजवानों को चुन लिया। जब पुलिस से पूछा गया कि ये क्या हो रहा है, तो टका सा जवाब आया कि अभी पता चल जाएगा। इन दोनों युवकों को उठाकर एक अज्ञात ठिकाने पर ले जाया गया। फिर इस मकान में बचे लोगों ने परिचितों को फोन लगाने शुरू किए। बात फैली, तो पलट कर प्रशासन के पास भी दिल्ली-लखनऊ से फोन आए। काफी देर बात पता लग सका कि इन्हें छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे माडा थाने में पुलिस उठाकर ले गई है। इन दो युवकों के अलावा दो और व्यक्तियों को उठाकर पुलिस माडा थाने में ले आई थी। थाने में पहले से ही एस्सार कम्पनी के तीन अधिकारी बैठे हुए थे। वे रात भर बैठ कर पुलिस को एएफआइआर लिखवाते रहे। चारों पकड़े गए लोगों के ऊपर धारा 392, 353 और 186 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। अगले दिन अदालत में पेशी के बाद इन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। फिर जबलपुर उच्च न्यायालय से जब एक बड़े वकील राघवेंद्र यहां आए, तब कहीं जाकर चार में से तीन की ज़मानत अगले दिन हो सकी। चौथे शख्स पर शायद तीसेक साल पहले कोई मुकदमा हुआ था, जिसका फायदा उठाकर पुलिस उसे 28 दिनों तक जेल में रखने में कामयाब हो सकी।
महान संघर्ष समिति के सदस्य: दाएं से विजय शंकर सिंह, कृपा यादव और बेचनलाल साहू |
ये कहानी विनीत, अक्षय, विजय शंकर सिंह और बेचन लाल साहू की है। विनीत और अक्षय शहरों से पढ़े-लिखे युवा हैं जो ग्रीनपीस नाम के अंतरराष्ट्रीय एनजीओ में नौकरी करते हैं। उमर बमुश्किल 25 से 30 के बीच और जज्बा ऐसा गोया किसी इंकलाबी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता हों। विजय शंकर सिंह और बेचन लाल दोनों पड़ोस के अमिलिया गांव के निवासी हैं जहां ग्रीनपीस का ”जंगलिस्तान बचाओ” प्रोजेक्ट चल रहा है। ग्रीनपीस वैसे तो इस देश में जलवायु परिवर्तन और जैव-संवर्द्धित फसलों के मुद्दे पर लगातार काम करता रहा है, लेकिन सिंगरौली जिले में एस्सार और हिंडालको के संयुक्त उपक्रम महान कोल लिमिटेड के खिलाफ ग्रामीणों के संघर्ष के बहाने इसका नाम इधर बीच ज्यादा चर्चा में आया है और इंटेलिजेंस ब्यूरो ने भी अपनी लीक हो चुकी खुफिया रिपोर्ट में इस प्रोजेक्ट का जिक्र करते हुए कहा है कि ग्रीनपीस विदेशी पैसे से देश के विकास में रोड़ा अटका रहा है। खुद ग्रीनपीस के लोग मानते हैं कि यह संस्था मोटे तौर पर ”फोटो ऑप” यानी फोटो खिंचवाने वाली संस्था के तौर पर जानी जाती रही है और ऐसा पहली बार है जब उसने किसी जनसंघर्ष में सीधा दखल दिया है तथा अपनी मौजूदगी बनाए रखी है। महान संघर्ष समिति नाम के एक खुले संगठन की मार्फत ग्रीनपीस सिंगरौली में अपना काम कर रही है। बीते 7 जून की रात गिरफ्तार हुए बेचन लाल साहू और विजय शंकर सिंह दोनों इसी समिति के सदस्य बताए जाते हैं। चूंकि यह समिति न तो पंजीकृत है और न ही इसका कोई आधिकारिक लेटरहेड इत्यादि है, इसलिए इसके सदस्यों समेत अन्य पदाधिकारियों का कोई अता-पता नहीं है। ग्रीनपीस का दावा है कि पूरे के पूरे गांव ही इस समिति के सदस्य हैं और हर सदस्य इसका अध्यक्ष है। यह बात सुनने में चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न लगे, लेकिन सिंगरौली की हवा में यह संदेश साफ़ समझा जा सकता है कि यहां किसी किस्म की असहमति के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे आप पंजीकृत हों या खुले संगठन के तौर पर काम कर रहे हों। ग्रीनपीस पर सरकार की टेढ़ी नज़र, महान संघर्ष समिति और कंपनियों के प्रोजेक्ट के प्रति जनता के रुख़ के आपसी रिश्ते को समझने के लिए हमें इस जगह के इतिहास-भूगोल पर एक नज़र डालते हुए यहां के समाज को समझना होगा।
ऊर्जांचल में प्रवेश
सिंगरौली से बाहर रहने वालों के लिए यह एक ऐसा नाम है जो देश को बिजली देता है। यहां एनटीपीसी, कोल इंडिया, एनसीएल, जेपी, रिलायंस, एस्सार, हिंडालको आदि कंपनियों के पावर प्रोजेक्ट और कोयला खदानें हैं। इस इलाके को ऊर्जांचल भी कहते हैं। सिंगरौली हालांकि अपने आप में सिर्फ एक रेलवे स्टेशन है जबकि इसका जिला मुख्यालय स्टेशन से 40 किलोमीटर दूर बैढ़न में है। इसे जिला बने हुए महज पांच साल हुए हैं। इसके पहले यह मध्यप्रदेश के सीधी जिले में आता था। एक तरफ उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, दूसरी तरफ झारखंड के गढ़वा रोड और तीसरी तरफ छत्तीसगढ़ के सरगुजा व अम्बिकापुर से घिरा यह इलाका कैमूर की हरी-भरी पहाडि़यों में बसा है। बिहार की सीमा भी यहां से बहुत दूर नहीं है। यहां से कटनी, इलाहाबाद, बनारस, जबलपुर, हावड़ा के लिए रेलगाडि़यां मिल जाती हैं लेकिन दिल्ली के लिए कोई सीधी गाड़ी नहीं है। मध्यप्रदेश के कटनी से आते वक्त ऊर्जा परियोजनाओं की चमकदार बत्तियां भरसेन्डी से दिखना शुरू हो जाती हैं। फिर मझौली और बरगवां आते-आते बत्तियों की चमक बढ़ती जाती है। कटनी से आठ घंटे के सफ़र में बीच में कोई बड़ा स्टेशन नहीं है। छोटे-छोटे प्लेटफॉर्मों पर पानी मिलना भी मुश्किल है। दोनों तरफ कैमूर की पहाडि़यां और घने जंगल हैं। सिंगरौली उतर कर आम तौर से लोग बैढ़न ही जाते हैं क्योंकि काम भर का शहर और बाज़ार वहीं है।
इसी बैढ़न में नॉरदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के अमलोरी गेस्टहाउस में अपनी पहली रात की रिहाइश में यह पता चला कि बिजली यहां भी जाती है। एनसीएल की कई परियोजनाओं में एक अमलोरी परियोजना है। इसी परियोजना का विशाल गेस्टहाउस बैढ़न के राजीव गांधी चौक से करीब सात किलोमीटर आगे स्थित है। यहां के कर्मचारी बताते हैं कि जब एनसीएल की खदानें अस्सी के दशक में बन रही थीं और यहां मशीनें लगाने के लिए जापान और रूस से इंजीनियर आए थे, तो इस गेस्टहाउस में स्विमिंग पूल में बैठे हुए तंदूर पर पका खाना खाने और शराब पीने की आलीशान व्यवस्था थी। आज बीस साल बाद यह गेस्टहाउस तकरीबन उजाड़ है। कमरों में पंखे नहीं चलते और एसी मशीनें रह-रह कर ऐसी आवाज़ें करती हैं कि सोये में दिल दहल जाए। बिजली का आलम ये है कि पहली ही रात वह लगातार छह घंटे गायब रही। सवेरा होने पर एक और बात पता चली कि यदि आपके पास अपना साधन नहीं है तो आप सिंगरौली में एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा सकते। निजी टैक्सियों की दर प्रतिदिन दो हज़ार रुपये है। पैदल चलना दूभर है क्योंकि दूरियां बहुत हैं। कुछ निजी बसें ज़रूर हैं जिनके पास चलकर जाना होता है। बाहर निकलते ही सवेरे के अखबार पर नज़र पड़ी जिसका पहला शीर्षक कुछ यूं था, ”एनसीएल की अमलोरी परियोजना से काली हो गई कांचन नदी।” यह अखबार था दैनिक भास्कर, जिसके मालिकान की कंपनी डीबी कॉर्प को भी यहां एक पावर प्रोजेक्ट की अनुमति मिली हुई है। एनसीएल के जनसंपर्क विभाग के एक कर्मचारी बताते हैं कि ऐसी खबरें आए दिन यहां छपती हैं ताकि कंपनी से कोई डील की जा सके। देर शाम तक यह खबर लिखने वाले रिपोर्टर को ‘मैनेज’ करने की कोशिश भी होती रही।
ग्रीनपीस का बैढ़न स्थित दफ्तर और स्कॉर्पियो गाड़ी |
बहरहाल, बैढ़न के जिस हरे रंग के मकान से 7 जून की रात गिरफ्तारियां हुई थीं, हम वहां पहुंचे। यह ग्रीनपीस का गेस्टहाउस था। इससे करीब सौ मीटर पहले हरे रंग का ही ग्रीनपीस का एक दफ्तर भी है। गेस्टहाउस में ग्रीनपीस के कर्मचारी रहते हैं। इसमें एक रसोई भी है और रसोइया भी। संस्था के पास एक स्कॉर्पियो गाड़ी है जिसकी पहचान विरोधियों को बिल्कुल साफ़-साफ़ है। यहां से 40 किलोमीटर दूर अमिलिया गांव की ओर बढ़ते हुए जैसे ही हमने मुख्य सड़क छोड़ी, हमें बताया गया कि कंपनी की एक जीप हमारा पीछा कर रही है। ऐसा रोज़ ही होता है। ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं पर लगातार नज़र रखी जाती है। बैढ़न के राजीव गांधी चौक पर स्थित सीपीएम के दफ्तर में बैठे पार्टी प्रभारी रामलल्लू गुप्ता बताते हैं कि आज से दो साल पहले जब ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई यहां काम करने आई थीं, तो वे अपने साथ सीपीएम के केरल से एक सांसद को लेकर आई थीं जिसका स्थानीय प्रशासन पर काफी दबाव रहा। शुरुआत में यहां सीटू (सीपीएम का मजदूर संगठन) और एटक (सीपीआइ के मजदूर संगठन) ने ग्रीनपीस के कामों को काफी समर्थन दिया था जिसके चलते इन्हें कोई खतरा नहीं हुआ और संस्था अपना काम करती रह सकी। पिछले चुनाव में सीपीआइ से लोकसभा चुनाव लड़ चुके एटक प्रभारी संजय नामदेव कहते हैं, ”जब तक ये लोग हमारे साथ रहे, किसी की हिम्मत नहीं थी कि इन्हें कुछ बोल सके। बाद में इन्होंने कुछ गड़बडि़यां कीं, जिसके कारण हम लोगों ने अपना पैर पीछे खींच लिया। नतीजा आपके सामने है।”
ऐसा नहीं है कि निशाने पर सिर्फ ग्रीनपीस है। रामलल्लू गुप्ता का इस इलाके में बहुत सम्मान है। उन्होंने अपना जीवन और परिवार सब कुछ मजदूर आंदोलन के हित दांव पर लगा दिया है। प्रशासन ने उन्हें एक ज़माने में नक्सली घोषित कर दिया था और बिना बताए उनके घर की कुर्की का आदेश दे दिया था। स्थानीय लोगों के बीच ईमानदार लेकिन अराजक माने जाने वाले संजय नामदेव के ऊपर तकरीबन चार दर्जन मुकदमे कायम हैं। उन्हें रासुका के तहत निरुद्ध किया जा चुका है। इतने हमलों के बावजूद वे बिल्कुल कलेक्ट्रेट के सामने राजीव गांधी चौक पर एक कमरे के दफ्तर में बैठे ‘काल चिंतन’ नाम का अखबार अब भी निकालते हैं। गुप्ता कहते हैं, ”इस इलाके को तो 1995 में ही नक्सली घोषित कर दिया गया था ताकि कंपनियों को अपना कारोबार करने में आसानी हो। मुझसे पहले यहां पार्टी का काम रमणिका गुप्ता देखती थीं जो हज़ारीबाग से एमएलए रह चुकी हैं। उस दौरान कम्युनिस्ट आंदोलन जिस उफान पर था, वैसा कभी नहीं देखा गया। कांग्रेस उनकी जान के पीछे ऐसा पड़ गई थीं कि उन्हें मुरदे की तरह कंधे पर लादकर शहर की सीमा से बाहर निकालना पड़ा।”
एटक और सीटू की नाराज़गी के कारण ग्रीनपीस आज सिंगरौली में अकेला पड़ चुका है। कुछ बिरादराना संस्थाएं हैं जो इसके साथ संवाद रखती हैं, लेकिन इसके काम करने की शैली पर सिंगरौली में सवाल हैं। सरकार इसके विदेशी फंड पर सवाल उठाती है, लेकिन यहां स्थानीय स्तर पर विदेशी फंड की कोई खास चर्चा नहीं है। ग्रीनपीस का जो आधार क्षेत्र है, वहां खबर के लिहाज से बहुत कुछ हाथ नहीं लगता क्योंकि देश के ऐसे तमाम हिस्से हैं जहां एनजीओ काम कर रहे हैं और वहां के लोग एनजीओ की ही बात को दुहराते हैं। मसलन, अमिलिया गांव में बच्चा-बच्चा जिंदाबाद बोलना सीख गया है। एक-एक आदमी सामान्य संबोधन की जगह जिंदाबाद बोलता है। अनपढ़ औरतें भी सामुदायिक वनाधिकार की बात करती हैं। जेल में 28 दिन बिता चुके बेचन लाल साहू पूछते हैं, ”हम लोग अपने अधिकार के लिए थाने से लेकर दिल्ली तक जा चुके, हर जगह अर्जी लगाए, इतना मुकदमा किए, लेकिन सरकार हमारी एक नहीं सुनती। आखिर क्यों?” जब मैं लड़ाई के तरीकों पर सवाल उठाता हूं, तो वे तुरंत बोलते हैं, ”नहीं, लड़ाई तो अहिंसक और शांतिपूर्ण ही रहेगी।” बीच में उन्हें टोकते हुए ग्रीनपीस के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ”आखिर कानून के दायरे में नियमगिरि के लोगों ने वेदांता से लड़ाई जीती ही, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?” सभी लोग सहमति में सिर हिलाते हैं। जिंदाबाद बोलकर सब आगे बढ जाते हैं और हम घाटी की तरफ चल पड़ते हैं जहां कुछ औरतों ने कंपनी के खिलाफ गोलबंदी की हुई है।
अमिलिया गांव की औरतों ने वन क्षेत्र को घेरने वाले पिलर निर्माण का काम रोक दिया है |
बुधेर गांव के रास्ते में पड़ने वाली एक घाटी में एक पेड़ के नीचे करीब तीसेक औरतें बैठी हैं। पता चलता है कि पेड़ों की मार्किंग के बाद एस्सार कंपनी वाले पत्थर लगाकर वन क्षेत्र को घेरने की तैयारी कर रहे हैं। पेड़ के पास में ही एक अधबना पिलर मौजूद है। पिछले कुछ दिनों से अमिलिया गांव की ये औरतें रोजाना यहां एकजुट हो रही हैं और पिलर को बनने से रोके हुए हैं। आज भी ये सवेरे से ही यहां डटी हुई हैं और कंपनी के लोगों को लौटा चुकी हैं। हमारे वहां पहुंचने पर सभी एक स्वर में नारा लगाती हैं, ‘जिंदाबाद’। थोड़ी बातचीत करने पर एक महिला बताती हैं, ‘इस जंगल से हम लोग तेंदु, डोरी, महुआ बीनते हैं। इसी पर हमारा जीवन निर्भर है और कंपनी वाला इसको लेना चाह रहा है। जंगल तो हमारा था और हमारा ही रहेगा।”
इसी बातचीत के बीच में ग्रीनपीस के विनीत अचानक उस महिला से कहते हैं, ‘पहले तुम लोग ये समझती थीं कि जंगल सरकार का है अब ये समझती हो कि जंगल जनता का है। ये समझदारी कैसे बनी, जरा इसके बारे में भी बताओ।’ महिला कहती है, ‘जंगल तो हमारा हइये है।’ मैंने विनीत की बात को साफ़ करते हुए महिला से कहा, ”ये बताइए कि ग्रीनपीस के लोगों ने आपकी जागरूकता बढ़ाने में कैसे मदद की।” इस पर वह महिला मुस्कुरा दी। उसके हंसने का आशय जो भी रहा हो, लेकिन विनीत ने फिर विस्तार से बताया कि कैसे इस गांव के लोग पहले जंगल को सरकारी समझते थे और उन्हें बताना पड़ा कि यह जंगल उन्हीं का है। विनीत बोले, ”जो भी फैसला लेना है, इन्हीं लोगों को लेना है। सारी लड़ाई महान संघर्ष समिति की है। हम तो बस पॉलिसी लेवल पर इनकी मदद करते हैं।”
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