गुरु, पिछले के पिछले साल बनारस गया था। शिवगंगा में दिमाग कुलबुला रहा था, घर छोड कर राजधानी में अपना मोहल्ला बसा लेने की ख़लिश खाए जा रही थी। उसी पीनक में एक कविता निकली। सुना जाए…
मुझे लगता है
मैं घर जा रहा हूं
आप कहते हैं
वहां तुम्हारा कोई घर नहीं।
आपके मुताबिक जहां घर है,
उसे मैं मानता नहीं।
इस जडविहीन अवस्था में,
जबकि पैदा हुआ मैं ग़ाज़ीपुर में,
रहा बनारस,
और बसा दिल्ली…
कौन बताएगा
मैं कहां का हूं।
और,
आज अगर बरस भर बाद
जाता हूं मैं बनारस
दिल्ली से
तो इन दो शहरों के लिए क्या
कोई भी पर्याय सम्भव है-
मेरे तईं…
कुछ खट्टा, कुछ मीठा, कुछ नमकीन…
(आत्मीय किस्म का)
या,
दिल्ली, सिर्फ दिल्ली है और
बनारस, बनारस…।
अब कैसे समझाऊं आपको,
कि खाली हाथ बनारस जाना
जब जेब में पैसे न हों
एक ऐसा आशावाद है
जो कहता है
वहां से तुम फिर उन्हीं
ख़ज़ानों को लेकर लौटोगे
जिनके भरोसे रहे दिल्ली में
अब तक।
आप कहेंगे-
उधार…
मैं कहूंगा-
प्रेम।
इसी क्षण आप
बन मेरे बाप
सुनाएंगे चार गालियां-
बेटा…
अभी तुमने दुनिया नहीं देखी है
ये बाल धूप में नहीं सफेद किए हैं।
आज-
प्रेम भी उधार नहीं मिलता
चाहे-
वह दिल्ली हो…….
या
बनारस…….।
maja aa gaya