(गतांक से आगे)
ऐसे टूटते हैं बंध
आज 14 अप्रैल है: बाबासाहेब आंबेडकर के बैनरों-पोस्टरों की कोई कमी नहीं है |
नेता और जनता के सपनों में बहुत फर्क नहीं होता, सिर्फ कुर्सी के इधर-उधर होने का मामला होता है जो उनकी तकदीर तय करता है। समूचे मराठवाड़ा की छाती में प्यास की तरह अटका जायकवाड़ी बांध सूखे से बुरी तरह प्रभावित उसी औरंगाबाद जिले में है जहां 14अप्रैल की तारीख दुष्काल से होड़ लेती दिखती है। सूखे में अगर नेता सपना देखता है, तो एक सपना जनता के पास भी है जो आज के दिन जगता है। आज बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्मदिवस है, इस बात का पता उन तमाम लोगों की व्यस्तता दे देती है जिनसे हमारा मिलना तय था। टूरिस्ट एजेंसी वाले शेख नासिर भाई सुबह-सुबह फोन कर के कहते हैं, ‘‘साहब, ड्राइवर को छह बजे के पहले छोड़ देना, आज इन लोगों का त्योहार है।’’ दलितों के इस महापर्व ने एक दिन के लिए सही, दुष्काल के काले बादलों को नीले बैनरों से ढंक दिया है। सड़कों पर चौतरफा नीले रंग के बैरल और ड्रम पानी के इंतजार में भले पड़े हुए हैं, लेकिन नीले बैनरों से बनता उनका संगम बाबासाहेब के नीले सूट जैसा कोई गूढ़ राजनीतिक मुहावरा रच रहा है।
यहां गर्मियों में यह दृश्य आम है |
हमने खुद ड्राइवर कैलाश से पूछा कि नीले रंग के बैनर तो ठीक हैं, लेकिन पानी के ड्रम और बैरल नीले क्यों हैं। उन्होंने अनभिज्ञता और कौतूहल से कहा, ‘‘पता नहीं, लेकिन बात तो सही है साहब।’’ हम जिस जायकवाड़ी बांध की ओर जा रहे थे, उसी के बारे में मार्च की शुरुआत में खबरें आई थीं कि उसमें सिर्फ 9 टीएमसी पानी बचा है और इससे चूंकि मराठवाड़ा के बड़े हिस्से को पानी की आपूर्ति होती है, लिहाजा तीन जिले के लोगों को शहर छोड़कर जाना होगा। इसके बाद ही अकाल की बातें मीडिया में होने लगी थीं और जल्दबाज़ी में महाराष्ट्र की सरकार ने अतिरिक्त टैंकरों से पानी देने की व्यवस्था कर डाली। टैंकर हालांकि इस इलाके के लिए कोई नई बात नहीं हैं। हर गर्मी में मराठवाड़ा में टैंकर आम दृश्य का हिस्सा हैं, जिनके पीछे लिखा होता है ‘‘पिण्याचे पाणी’’ यानी पीने का पानी।
प्यास बुझाते टैंकर: एक फिलिंग सेंटर पर 20-25 टैंकर भरे जाते हैं |
एक जगह इनके फिलिंग सेंटर पर हम रुके। यहां करीब बीसेक टैंकरों की कतार लगी थी और एक में पानी भरा जा रहा था। इस इलाके में ऐसे तीन सरकारी फिलिंग सेंटर हैं जहां प्रत्येक पर औसतन 25टैंकरों को पानी दिया जाता है। एक टैंकर की क्षमता 12000 लीटर की होती है और गांव के आकार और आबादी को ध्यान में लिए बगैर हर गांव को दो टैंकर पानी भेजा जाता है। कागज़ पर मौजूद टैंकरों की संख्या और वास्तव में वितरित संख्या के बीच का फर्क टैंकर लॉबी और सरकार के बीच बराबर बंट जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि कई लोगों को पानी नहीं मिल पाता। ऐसे ही एक शख्स मिलिंद को हमने फिलिंग सेंटर की दीवार पर अपना गैलन लेकर बैठे देखा। वह पास के पीपरवाड़ी गांव का रहने वाला था। हमने पूछा, ‘‘कब तक यहां बैठे रहेंगे?’’ उसने बताया कि किसी भी कीमत पर वह शाम पांच बजे से पहले घर चला जाएगा, ‘‘बाबासाहेब को जानते हैं आप? किताब में पढ़ा होगा? बहुत महान आदमी थे। आज उनकी जयंती है।’’ कैलाश को भी जलसे में जाने की जल्दी है, इसलिए वे तेजी से हमें जायकवाड़ी पहुंचा देते हैं।
जायकवाड़ी बांध के जलाशय को नाथ सागर कहा जाता है। यह बांध गोदावरी नदी पर बना है। एकबारगी देखने पर इसमें पर्याप्त पानी दिखता है, लेकिन बीच में एक टापू जैसी भूखंड साफ दिख रहा है। पिछले 25 साल से इस बांध को देखते आ रहे बाभन दास बुधे बताते हैं कि उन्होंने पहली बार इस जलाशय को इतना सूखते देखा है। मराठवाड़ा में दुष्काल का ठीकरा जायकवाड़ी के सिर पर पर्याप्त फोड़ा जा चुका है, हालांकि तथ्यात्मक विश्लेषण इस बांध के चुकने की कुछ और ही कहानी कहता है। इसे ज़रा आसान शब्दों में समझने की कोशिश करते हैं। मसलन, गोदावरी नदी को ही लें जिस पर यह बांध बना है। इस बांध को बनाने के क्रम में किन चीजों की सबसे पहले गणना होनी चाहिए थी, यह सवाल अहम है। गोदावरी में कितना पानी बहता है, जिस इलाके में बांध बनाना है वहां बारिश कितनी होती है, इन चीजों की गणना करने के हिसाब से ही नाथ सागर में जल संग्रहण क्षमता को विकसित करना चाहिए था। मान लें कि एक निश्चित संग्रहण क्षमता के साथ जायकवाड़ी बांध बन गया, तो इसमें नदी का जितना पानी रोका गया है उतना ही पानी प्रवाह में से कम हो जाता है। अब नदी की ऊपरी धारा में किसी अन्य जगह पर कोई और बांध यदि बनाना हुआ, तो दोबारा घटे हुए पानी के साथ कायदे से गणना की जानी चाहिए, लेकिन होता यह है कि जिन्हें अपने इलाके में बांध चाहिए, वे बढ़ी हुई मात्रा के साथ गणना करते हैं। यानी वे उन वर्षों को ही संज्ञान में लेंगे जब बारिश ज्यादा हुई ताकि यह साबित किया जा सके कि उक्त जगह पर पानी की मात्रा ज्यादा है और नतीजतन अतिरिक्त बांध बनाना जायज़ है।
गोदावरी नासिक से होते हुए औरंगाबाद में आती है। वास्तव में हुआ यह कि जायकवाड़ी बनने के बाद गोदावरी की ऊपर की धारा में पानी की उपलब्धता सिर्फ 112 टीएमसी थी, लेकिन वहां अतिरिक्त छह नए बांध बनाने के लिए पानी की गणना 168 टीएमसी की गई। अब इन छह बांधों में पानी रोक लिया गया, तो हर साल सामान्य वर्षा होने के बावजूद जायकवाड़ी में 40 टीएमसी की कमी होती चली गई। इस वजह से जायकवाड़ी पूरी तरह भरा ही नहीं। अब जब यह बात सामने आई कि गणना गलत हुई थी, तो इसे कैसे दुरुस्त किया जाए यह सवाल खड़ा होता है। जायकवाड़ी के साथ राजनीति हो गई और पूरा ठीकरा इसके सिर फोड़ दिया गया।
जल वितरण के नियमों के मुताबिक दुनिया भर में एक सामान्य मानक यह है कि आखिरी बांध को सबसे पहले प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसकी दो वजहें हैं। पहला यह कि नदी में जल प्रवाह सामान्य बना रहे। दूसरा, समुद्र में जाने वाला पानी अगर आखिरी बांध रोकेगा तो उसके पूरा होने के बाद बैक-फ्लो (पीछे की ओर प्रवाह) आता रहेगा और किसी बांध को पानी की कमी नहीं होगी। मराठवाड़ा में इसका ठीक उलटा हो रहा है। पहला बांध नासिक या पुणे जैसे बड़े शहर में ही पानी रोक लेता है। अगर बारिश नहीं हुई तो इधर के बांध में पानी आएगा ही नहीं। चूंकि उधर के लोग राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक और ताकतवर हैं, तो वे अपने पानी के लिए मारपीट तक कर लेते हैं और प्रशासन पर दबाव बना देते हैं। सूखे के संदर्भ में इन मसलों पर बात ही नहीं हो रही। आंख बंद कर के हर कोई कह रहा है कि बांध सूख गए, पानी नहीं है, पैसा दो और पानी लाओ। इसी फॉर्मूलाबद्ध सोच के कारण सूखा हर पांच-छह साल पर लौट कर आ जाता है। इस दुश्चक्र से निकलने का एक ही कुदरती तरीका है कि कृषि करने वालों की आबादी अपने आप कम हो जाए। बढ़े हुए शहरीकरण के बाद बची-खुची खेती पूरी तरह ब व्यावसायिक हो जाएगी, तो पानी खरीदना और बेचना आर्थिक रूप से व्यावहारिक हो जाएगा। फिर पानी का उपयोग करने वाले से पैसा लिया जाएगा। यह सारा विमर्श दरअसल सूखे या दुष्काल का नहीं है, सामाजिक संकट का है। यह बदलते हुए समाज की तस्वीर है।
पिछले 25 साल में पहली बार नाथ सागर में यह टापू उभर आया है |
यह तस्वीर हालांकि सतह पर आसानी से नहीं दिखती। हर बांध की तरह यहां भी करीब बीसेक लोग नहाते दिख जाते हैं जिन्हें जायकवाड़ी की राजनीति के बारे में कुछ नहीं पता होता। चालीस पार तापमान में एक ऐसे बांध का पर्यटन समझ से परे है जो तकरीबन सूख चुका हो, लेकिन मुख्य द्वार पर चना और भेल बेचते छिटपुट दुकानदारों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, बांध के आसपास की ज़मीन अप्रत्याशित रूप से सूख कर पीली पड़ चुकी है और यहां कभी मौजूद रहा प़क्षी अभयारण्य अब सिर्फ बोर्ड पर बचा रह गया है। कुछ वनमुर्गियां जरूर बचे-खुचे पानी में दिख जा रही हैं। पहली बार किसी बांध को देखकर वास्तव में नीतियों से लेकर समझदारी तक चौतरफा सूखे का अहसास होता है। हम निकल पड़ते हैं, लेकिन कैलाश की गति देखकर हमें फिर से महसूस होता है सूखे से भी ज़रूरी आज कुछ और है।
सूखे का इलाज: बियर की बोतलों का अंबार |
रास्ते में एक के बाद एक ‘‘परमिट रूम और बियर बार’’ लिखे हुए होटल दिखते हैं। इनमें एक पर हम रुकते हैं। कैलाश बताते हैं कि इन होटलों में बैठकर शराब पीने की छूट होती है। ये सरकारी लाइसेंसधारी होटल हैं। अहाते में घुसते ही जो माहौल आंखों के सामने खुलता है, ऐसा हिंदी पट्टी में हमने कभी नहीं देखा। तकरीबन हर मेज़ पर सफेद कपड़े पहने दो से चार किसान बैठे हैं, बोतलें खुली हुई हैं और अहाते के पीछे एक विशाल गड्ढे में बियर की हज़ारों बोतलों का अंबार लगा हुआ है। फिलहाल हम यह मान लेते हैं कि शायद 14 अप्रैल के कारण ऐसा माहौल रहा हो, लेकिन हमारे मानने या न मानने से अखबार की खबरों पर असर नहीं पड़ना चाहिए। मराठवाड़ा के अखबारों में तकरीबन हर रोज़ किसी न किसी किसान के शराब पीकर धूप लगने से हुई मौत या फिर शराबबंदी को लेकर कोई खबर मौजूद है।
बहरहाल, जैसे-जैसे शाम हो रही है, रास्ते में पड़ने वाले बाजारों में लाउडस्पीकर पर भीम गीतों की आवाज़ तेज़ होती जा रही है। शहर पहुंचने तक अंधेरा हो चुका है और हर ओर से मराठी में भीम गीतों की आवाज़ आ रही है। कैलाश हमें छोड़कर अपने जलसे में निकल जाते हैं और हम शहर में खाने-पीने की एक मशहूर जगह चौपाटी पर पहुंच जाते हैं। यहां बैठने की जगह नहीं है। आगे तीन किलोमीटर की दूरी पर पीर बाज़ार में खूब गहमागहमी है। यहां के मशहूर इंडियन होटल के बाहर मेला सा लगा हुआ है। रंग-बिरंगी साड़ियों में महिलाएं और सफेद शर्ट में पुरुष अपने बच्चों को गुब्बारे दिलवा रहे हैं। रात के सिर्फ नौ बजे हैं लेकिन हैदराबादी बिरयानी खत्म हो चुकी है। पुलिस थाने के बाहर निशुल्क पानी पिलाने का केंद्र भी बंद हो चुका है। पूरा थाना छुट्टी पर गया दिखता है, लेकिन पानी के कई विकल्प यहां मौजूद हैं। तरबूज़ से लेकर हाइवे पर दुकानों से लटकती मिनरल वॉटर की बोतलों और बियर से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक प्यास बुझाने के तमाम साधन हैं। जहां पैसा है, वहां पानी है। पानी से और पैसा बनाने की कोशिशें जारी हैं। जहां न पैसा है न पानी, वहां भी कम से कम आज जय भीम का नारा प्यासे बंधों को तोड़ने के लिए काफी है। कल की कल देखी जाएगी।
कौन कहता है यहां पानी नहीं: रंग-बिरंगी बोतलों की नुमाइश आम दृश्य है |
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