दोस्तों,
अच्छी बात है कि मेरे विवादास्पद पोस्ट की भाषा के बहाने वैयक्तिक स्तर पर ही सही, भाषा को लेकर चिट्ठाकारों के बीच कुछ सनसनी पैदा हुई है। मेरी मंशा, जैसा कि मैंने इससे पहले वाले पोस्ट में साफ किया था कि भाषा के जनपदीय चरित्र की उसके शहरी चरित्र से तुलना कर एक सार्थक विमर्श खड़ा करना था। कई चिट्ठाकारों ने भिन्न-भिन्न टिप्पणियां कीं, चाहे वे जैसी भी रही हों लेकिन अफसोस सिर्फ इस बात का है कि इन सबके केन्द्र में नारद से संलग्नता का सवाल प्रमुख रहा, जबकि भाषा पर बात सामान्यीकरण के मानक पर नहीं संभव है।
कुछ उदाहरण दूं। पिछले कुछ दिनों से हम बीस-पच्चीस मित्र, दिल्ली के रहवासी, इस बात को लेकर उलझे हुए हैं कि किसी भी सांस्कृतिक कर्म के केंद्र में क्या भाषा होनी चाहिए। इसी से जुड़ा सवाल राष्ट्रीयताओं का भी है। क्या भाषाएं ही राष्ट्रीयताओं को तय करती हैं…क्या भाषाई राष्ट्र की अवधारणा ही संभव है…कश्मीर में आतंकवाद और असम में उल्फा का संघर्ष क्या भाषा से उपजा राष्ट्रीयता का संघर्ष है और यदि है तो क्या उसकी व्याख्या भाषाई प्रस्थान बिंदु से जायज है, संभव है…।
इस तरह के तमाम सवाल हैं जो भाषा के बारे में हमारी समझ को रीइनवेन्ट कर सकते हैं। एक बार की बात है…मैं मधुकर उपाध्याय जी के यहां बैठा हुआ था…भाषा पर बात चली तो उन्होंने मुझे तथ्यात्मक आंकड़े दिखाए कि किस तरीके से हमारी खड़ी हिंदी पिछले दो सौ वर्षों में आंचलिक शब्दों और बोलियों को चट कर गई है, जैसे दीमक। लेकिन यह सवाल सिर्फ दीमक जैसे किसी आंतरिक शत्रु का नहीं है, बल्कि हिंदी के उस साम्राज्यवादी चरित्र का है जो खुद तो फैलता जाता है और अपने प्रति अंग्रेजी के बरक्स जनवाद की मांग के चक्कर में दूसरी भाषाओं, बोलियों और जनपदीयता के प्रति घोर असहिष्णु और अजनवादी हो जाता है। तीन साल पहले शायद राजकिशोर ने जनसत्ता में एक लेख लिखा था कि हमारी आंचलिक भाषा के संदर्भ में हिंदी क्यों अपराधी है। जब ऐसी बातें होती हैं तो उन्हें इस रूप में रिड्यूस कर देना, कि ‘आप अपने घर के बच्चों को भी गालियां सिखाएंगे क्या’ (जैसा कि एक टिप्पणी में किसी ने कहा है), दरअसल प्रकारांतर से पॉलिटिकल रिडक्शनिज्म ही होता है। वरना इतने गंभीर मसले पर चर्चा की शुरुआत करने से पहले ही सभी ब्लॉगर एक साथ नारद के बचाव में खड़े हो जाएं और हमारे द्वारा प्रयुक्त की जा रही खड़ी भाषा के वर्चस्ववादी स्वरूप के बारे में एक शब्द भी न कहें, यह अफसोसनाक है।
एक सज्जन कहते हैं कि यह सिर्फ भाव का ही नहीं, स्ट्रैटजी का भी सवाल है। कैसी स्ट्रैटजी…पूछा जाए। अंग्रेजी के साम्राज्य के विरोध में स्ट्रैटजी के स्तर पर आप अगर हिंदी का साम्राज्य ऑनलाइन फैला भी लेते हैं तो क्या उससे उन निम्न प्रसंग वाली भाषाओं और बोलियों का भला होने वाला है जहां से हमारी सभी प्रतिभाएं जन्म लेती हैं। मेरा मानना है कि इंटरनेट पर हिंदी का उपयोग इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि हम अंग्रेजी के समानांतर एक अन्य भाषा को खड़ा कर दें और प्रवासी हिंदी सम्मेलन टाइप के नोस्टैल्जिक सम्मेलनों में उत्साहित हो लें, बल्कि इसलिए कि यदि हमारे यहां प्रिंट और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हिंदी का एक विकृत रूप देखने को मिल रहा है तो साइबर स्पेस को हम एक ऐसे उदाहरण के रूप में पेश कर सकें जो मूल में सर्वसमावेशी है और डेमोक्रेटिक स्पेस का वाहक है।
आप, हम और सभी भलीभांति इस तथ्य से परिचित हैं कि अन्य माध्यमों में भाषा बाज़ार और ब्रांड से तय होती है इसलिए उनकी अपनी सीमाएं हैं। इस बात को समझ लेना होगा कि चूंकि आम तौर पर चिट्ठाकारी में बाज़ार की कोई भूमिका नहीं होती है, न ही अपने ऊपर कोई मुनाफा कमाने का दबाव होता है, इसलिए हम यदि सर्वस्वीकार्य भाषा शैली की बात करते हैं तो उसमें हाशिए को शामिल करना ही होगा। इस दृष्टि से नहीं कि हम अश्लीलता फैला रहे हैं और आपस में मज़ा ले रहे हैं, बल्कि उसके सामाजिक-राजनैतिक कार्यभारों का उल्लेख करते हुए भाषा को राजनैतिक लड़ाई का औज़ार बना रहे हैं।
और इस तथ्य को समझने में ज्यादा मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि राजनीतिक मुक्ति का रास्ता भाषा की मुक्ति से होकर जाता है…रूढियों से मुक्ति, पांडित्य से मुक्ति, अंग्रेजी नहीं अंग्रेज़ियत से मुक्ति…अब अगर हिंदी का चिट्ठा जगत पहले से ही राजनीतिक मुक्ति को महसूस कर रहा हो तो यह बात अलग है…लेकिन आज भी हिंदी प्रदेश की जनता ग़ुलामी के दुष्चक्र से जूझ रही है।
ब्लॉग जैसे माध्यम की सबसे बेहतर भूमिका यदि कुछ हो सकती है तो यही कि हम सामूहिक रूप से भाषा को औज़ार बना कर उसके खोए रूप को लौटा सकें और इस तरीके से अन्य माध्यमों पर यह दबाव बना सकें कि वे भी आंचलिकता को लेकर चलें वरना गुज़ारा नहीं।
और हां, आखिरी बात…एक टिप्पणीकार शायद किड़िच-पों के अर्थ में उलझ गए हैं…यह एक देसी शब्द है जिसका अर्थ है अनावश्यक अनुद्देश्य किसी को छेड़ना या परेशान करना। भाषा के मूल का संस्कार न होने से यही दिक्कतें आती हैं…खैर, उम्मीद है इस पर बातें होती रहेंगी और व्यक्तियों पर कम, विषय पर बात होगी। यह मानते हुए कि हम जनपथ के राही हैं, राजपथ के नहीं। हमें राजभाषा नहीं, जनभाषा चाहिए।
यदि आप इस विषय में कोई सार्थक योगदान दे सकें तो टिप्पणियों को प्रकाशित कर उनका एक सार्थक संकलन बनाया जा सकता है…
असभ्यता का पैमाना क्या हो पहले यह तक किया जाना जरूरी है. जरूरी नहीं है कि जो आपके लिए असभ्य हो वह सभी के लिये. एक छोटी सी गणित है कि इराक में अमेरिका के १० सैनिक मरे अमेरिका के लिये प्रथम पृष्ट खबर होगी लेकिन भारत के लिये नहीं . इसलिये ये बाते महत्वपूर्ण नहीं है. रही बात किसी के नजरिये की वह उसका अपना है. बाकी हमारी नजर में आप अच्छे हैं.
क्या चूतियापा है। बहुत लंबा लंबा लिखते हैं आप लोग। इतना टाइम नहीं है।
मैं फयर फौक्स में आपका चिट्ठा देख रहा हूंं। यह उसमें फैला फैला नजर आता है, ठीक से नहीं पढ़ाई में आ रहा हूं। इसे ठीक कर लेंगे तो अच्छा रहेगा। यह कुछ पोस्ट को justify होने के कारण होता है।
सभ्यता और असभ्यता की बात यहां सिर्फ अपने-अपने नजरिये को लेकर है. लेकिन मेरी नजर में इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसे लेकर कहा जाय कि भाषा असभ्य है. यह तो वही बात हुई कि जब हम खास लंगोटिया मित्र मिलते हैं तो बात की शुरुआत का बे भो…. से करते हैं . शायद यह लोगों के लिये गाली हैं लेकिन अपने लिये…. रही बात भाषाई पैमाने की तो आज के ८० फीसदी लोग दिन में कुर्ता पाजामा और रात को … इसलिये यह बहस का मुद्दा नहीं है. हमें तो सब पसंद है.. हो सके तो काशीनाथ को चिट्ठाजगत का अंश बनाए.
यहां आपके लिये एक प्राथना है, कुछ आपके चिट्टे के बारे मैं है। आप ठीक समझें तो लिखें।
इस चिट्ठे की नयी प्रविष्टियां हिन्दी चिट्ठे एवं पॉडकास्ट पर आती हैं पाठकगण इसकी नयी प्रविष्टियां वहां पढ़ सकते हैं।
आप भाषा के संदर्भ में बहस चलाना चाहते हैं, हो सकता है कि आपको यह बहस तमाम अन्य जरूरी विषयों से अधिक प्रासंगिक लगती हो। साहित्यिक-सांस्कृतिक विमर्श में भाषा संबंधी विमर्श का सार्थक महत्व है भी। लेकिन ब्लॉग एक ऐसा माध्यम है जो अपनी प्रकृति से ही अनौपचारिक है। यहाँ ज्यादातर बातें प्रथम पुरुष में की जाती हैं और वे हमलोगों की प्रत्यक्ष आपसी बातचीत की तरह होती हैं। चिट्ठाकार बस इतना ध्यान रखते हैं कि उनकी भाषा सरल, सहज और सभ्य हो, भले ही वह कितनी ही अनौपचारिक क्यों न हो। हास्य-व्यंग्य की शैली तो यहाँ लोकप्रियता में विशेष सहायक मानी जाती है।
चिट्ठाकारी एक अत्यंत नई विधा है और हिन्दी में तो यह अभी शैशवावस्था से ही गुजर रही है। इसके कोई प्रतिमान भी बने नहीं हैं अभी और न ही भाषा का कोई निश्चित मानदंड बना है।
आप जो भाषा संबंधी बहस चलाना चाहते हैं वह बेखटके चलाएँ, जिन्हें इसमें दिलचस्पी होगी, वे अपने विचार जरूर रखना चाहेंगे। अगर आज यह बहस प्रासंगिक न भी हों तो कभी-न-कभी, किसी न किसी के लिए जरूर होंगे। लेकिन हमारे लिए तो फिलहाल और भी ग़म हैं जमाने में भाषा पर बहस करने के सिवाय।
विवादास्पद पोस्ट गायब- जैसे गधे के सिर से सींग!नारद किसी चिट्ठे से पोस्ट नहीं हटा सकते।और विवादास्पद पोस्ट पर टिप्पणियों का सार्थक संकलन भी बनने जा रहा है!
नारद से संलग्नता को आपने समूह से टक्कर लेने के बजाय एक व्यक्ति पर लिया(किसी मुग़ालते में)- 'चौधराहट','कुवेत'के इस्तेमाल द्वारा। लाजिमीतौर पर प्रमुख सवाल बना ।अपने बचाव में यह कहना कि अंग्रेजी के वर्चस्व की जगह नेट पर 'शहरी','ब्राह्मणी' हिन्दी का वर्चस्व चाहते हैं,मूल मसले से हटना है।सच्चाई तो यह है कि भोजपुरी,मैथिली आदि के कई ब्लॊग स्थापित हैं।'लोकभाषा' के नाम पर जिस भाषा का चलन साथी चाहते हैं क्या उसका इस्तेमाल अपने घर में,प्रिंट मीडिया में अथवा टेलिविजन पर झेलने में 'जनभाषा'की मजबूती आएगी?
पूरे देश में प्रमुख गालियों का मतलब एक है और वह भले ही पुरुष द्वारा पुरुष को दी जा रही हों 'स्त्री के देश'(रघुवीर सहाय-स्त्री की देह ही उसका देश है)पर ही हमला होतीं हैं।नई संस्कृति ब्राह्मणवादी नहीं होगी,तो पुरुषप्रधान मानसिकता वाली और उपभोक्तावादी भी नहीं होगी।
काशी में अस्सी में होली पर एक विशिष्ट कवि सम्मेलन हुआ करता था,होली पर।सम्मेलन स्थल(चौराहा) से महिलाओं का गुजरना बन्द हो जाता था।जबकि बनारस में उस दिन दोपहर-बाद लोग सपरिवार मिलने-जुलने निकल पड़ते हैं और तब रंग का एक छीटा नहीं पड़ता।जनता के विरोध से पिछले कई वर्षों से बन्द है।
ऐसे ही वसन्त पंचमी के बाद से ही काशी विश्वविद्यालय के छात्रावासों के बीच गाली प्रतियोगिता शुरु हो जाती है 'लोकसंस्कृति' के नाम पर।पूर्वी उत्तर प्रदेश या पश्चिमी बिहार के किसी भी गाँव में यदि उस प्रतियोगिता को दोहराया जाए तो निश्चित मार पीट की नौबत आ जाएगी।भाषा के मामले में समझ रीइन्वेन्ट होने के पूर्व डिस्कवर करनी होगी।
किसी भी जनान्दोलन में सांस्कृतिक क्रान्ति के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि भी उभर कर आती है। '७४ के आन्दोलन के दौरान पटना की सड़कों पर देर रात तक लड़कियों का बेखटके घूमना संभव हो गया था।
आपने इस तथ्य को बखूबी समझा है कि ज़्यादार चिट्ठाकारों की सभ्य असभ्य भाषा की चिंता "नारद" के परिप्रेक्ष्य में ही रही। "नारद" को आम तौर पर हम पारिवारिक चैनल की तरह रखना चाहते हैं, हमारे चिट्ठाकार पाठकों में महिलायें, युवक और प्रौढ़ सभी शामिल हैं, इसलिये यह विचार उपजा। यकीन मानिये इसमें सेंसरशिप की कोई भावना नहीं है और न ही हम भाषा के प्रयोग का कोई पैमाना तैयार करने में लगे हैं। ब्लॉग आपका है, इंटरनेट किसी की बपौती नहीं, जो चाहे, जैसे चाहें लिख सकते हैं, बेखटके पर निःसंदेह हम में हर एक को यह हक तो है कि हम यह निर्णय ले सकें कि फलां ब्लॉग हम पढ़ें या नहीं, पढ़ायें या नहीं। नारद से संबंधित विषय इसी प्रकाश में देखें तो आपको हमारा पक्ष समझ आयेगा।
मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि किसी भी ब्लॉग को पूर्णतः हटाने की बजाय केवल आपत्तिजनक प्रविष्टि को नारद से हटाया जा सके तो बेहतर हो। आपत्तिजनक क्या है यह निर्णय लेने में पर भी पाठकों की आम राय शामिल हो। नारद पर तकनीकी रूप से यह करना यदि संभव होगा तो शायद आयोजक अवश्य यह करेंगे।
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