बनारस: एक भ्रम, एक सवाल, एक उधार


मैं पांच दिन के बाद बनारस से लौट रहा हूं। ठीक पांच दिन पहले बनारस लौटा था। दोनों ही स्थितियों में फर्क है। मन:स्थिति का फर्क। जब तीन बरस बाद इस नौ को बनारस लौटा, तो बेहद बेचैन था। बेचैनी का आलम ये कि रात एक बजे घाट चला गया और भोर होने तक वहीं रहा। बनारस में दरअसल कुछ है नहीं, जो बेचैनी को हर सके। रोहित जोशी को जब पहली बार मलइयो का स्‍वाद चखाया, तो उन्‍होंने बड़े काम की बात कही कि मलइयो की ही तरह एक भ्रम है बनारस। वास्‍तव में। दरअसल, जिस भ्रम में हम बड़े शहरों की आपाधापी में जीते हैं, उस भ्रम से बिल्‍कुल अलग किस्‍म का भ्रम है बनारस।
मसलन, बनारस आपको गति का अहसास देता है। मैं टंडन जी की दुकान पर लंका पहुंचा तो वे दिखे नहीं, उनका लड़का था। मैंने पूछा टंडन जी कहां हैं। उसने बताया कि वे बीते जून गुज़र गए। बीबीसी पर भी खबर आई थी, आपने सुनी नहीं? मैं झेंपा। एक भ्रम टूटा, लगा कि जीवन किसी के नोस्‍टाल्जिया के लिए ठहरता नहीं। भीतर घुसा विश्‍वविद्यालय में तो सब कुछ भ्रम के मुताबिक था। स्थिर। वैसा ही, जैसा नौ बरस पहले छोड़ आया था। लौटती में सिंहद्वार नहीं दिखा। उसकी जगह दाहिने हाथ पर दो बहुमंजिला इमारतें सिर ताने खड़ी थीं। सिंहद्वार बौना हो चुका था। अचानक याद आया, ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर ये सर्वविद्या की राजधानी।’ लगा कि वक्‍त आगे बढ़ चुका है, मैं ही भ्रम में था।
अस्‍सी पहुंचा। दो भ्रम टूट चुके थे, किसी भी साक्षात्‍कार के लिए तैयार था। कल्‍पनाएं आकार ले चुकी थीं। फिर झटका लगा। मनोज की दुकान यानी पप्‍पू की चाय की दुकान जस की तस थी। अस्‍सी पर मिट्टी के ढूहे बिल्‍कुल पानी उतरने के बाद जैसे पहले बचे रह जाया करते थे, वैसे ही थे। घाट पर व्‍यास महोत्‍सव चल रहा था। कोई हरियाणवी गीत बज रहा था जो अस्‍सीवासियों की समझ में नहीं आ रहा था। सीढि़यों पर ही चाय की गुमटी लगाने वाले ने डेक पर बिस्मिल्‍ला खान की शहनाई बजा कर उसे चुनौती दे डाली। शहनाई पर राग बागेश्‍वरी टाइप कुछ बज रहा था और सीढि़यों पर वही डांस चल रहा था जो मैंने पहली बार अपने एक मुसहर दोस्‍त की शादी में देखा था। बगल में भौकाल चाट वाला दो अंग्रेजिनों से मजा ले रहा था टमाटर का चाट खिला कर। कुछ भी तो नहीं बदला था।   
बदला था तो अंधरा पुल और पांडेपुर। दो नए फ्लाईओवरों को समेटी पुरानी सड़कों पर जाम की नई संभावनाएं पैदा हो गई थीं। फ्लाईओवर हर शहर को सूट नहीं करते। जब पांडेपुर का फ्लाईओवर शुरू नहीं हुआ था तो लोग उसका इस्‍तेमाल गर्मियों में हवा खाने के लिए करते थे। मामला उपयोग मूल्‍य का है। और हां, अंधरा पुल पार करते ही बाएं हाथ पर ऑटोमोबाइल्‍स की दुकानों की जो कतार है, उनमें से एक दुकान गायब थी। सिंधी ऑटोमोबाइल्‍स। यही वो दुकान थी जिस पर खड़े होकर मैं बलुआघाट और धौरहरा की बसों का इंतज़ार किया करता था, क्‍योंकि उसी एक दुकान पर टीवी हुआ करती थी। पानी का फिल्‍टर भी था। पानी पी-पी कर दुकानदार अंकल का खून जलाता था। वो दुकान अब यहां नहीं है। ये तब की बात है जब कैंट स्‍टेशन पर बस मालिकों के बीच गोली चलने के बाद बस अड्डे को अंधरा पुल पर शिफ्ट कर दिया गया था। शायद 1993…
बहरहाल, बनारस में वरुणापार, या कहें कैंट के आगे ही हमेशा तस्‍वीर बदली होती है। वरना मैदागिन से लेकर चौक, बांसफाटक, बुलानाला और गोदौलिया के पास न तो जगह है नएपन के लिए, न ही वक्‍त। ऐसा लगता है कि एक शहर है जो अपने कुछ बाशिंदों को समेटे हुए मरने को अभिशप्‍त है। एक हिस्‍सा बदलाव को रोक कर मरे जा रहा है, दूसरा बदलाव को अपना कर। बीच का कुछ भी नहीं है इस शहर में। और यहीं पैदा होता है भ्रम। स्थिरता और गति के बीच का भ्रम। आप स्थिर हैं तो भी भ्रम होगा। गतिमान हैं तब भी।
गोया भ्रम एक ऐसा सवाल हुआ जिसे पकड़ पाना ही मोक्ष हो। सूत्र यहीं से निकलता है। एक संन्‍यासी अपनी आजीविका के लिए दिन भर बैठ कर मोबाइल रखने वाला कपड़े का केस सिलता है। दूसरी ओर एक झालमुडी वाला छोटा सा खोमचा इस उम्‍मीद में लगाए बैठा है कि कोई तो आएगा। दिन के अंत में उसके पास लाई का एक दाना नहीं बचता और वो जी जाता है उसी के भरोसे। ये भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच का कोई लफड़ा है। कुछ मेंटल केस है बनारस।
मणिकर्णिका पर हम लोग खड़े थे। एक चिता के पास से अचानक आवाज़ आई… एक लात मारा साले के…। मुर्दे का कोई अंग अटक गया था चिता में। कोई सलाह दे रहा था डाक्‍टर को कि एक लात मारे, सीधा हो जाएगा (डाक्‍टर यानी श्‍मशान घाट पर काम करने वाला डोम)। हमारे साथी बड़े दुखी हुए कि बताइए, यहां मरने के बाद भी इंसान की इज्‍जत नहीं है। गाली दे रहे हैं मुर्दे को…। क्‍यों करे वो शहर किसी मुर्दे की इज्‍जत जो उसकी पैदाइश से ही उसका मोल जानता है? कुल मिला कर मामला दो मन लकड़ी का ही है न, आप चाहे कहीं के कलेक्‍टर हों।
मेरे पहले वाले भ्रम दूर हो चुके हैं। कुछ नए भ्रमों के साथ ट्रेन में बैठा हूं। दिमाग बिल्‍कुल अंतरिक्ष हुआ पड़ा है। खाली समझिए तो भी ठीक, भरा समझे तो भी। फिलहाल बेचैनी तो नहीं ही है, हां, लौट जाने का अफसोस भी नहीं। बनारस हर बार कुछ न कुछ उधार चढ़ा देता है। इस बार यही सही… ।  
उड़ जाएगा हंस अकेला…
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5 Comments on “बनारस: एक भ्रम, एक सवाल, एक उधार”

  1. ''एक हिस्‍सा बदलाव को रोक कर मरे जा रहा है, दूसरा बदलाव को अपना कर।'' सहजता-आसानी से कह दी गई बड़ी मुश्किल बात, हैट्स ऑफ.

  2. बहुत दिन बाद बनारस के बारे में अच्छा पोस्ट पढ़ने को मिला…हर एक लाइन…अपने अंदर जैसे वर्षों के मर्म को समेटे हुए है…..इस शहर को हर इक आंख ने अपनी तरह से देखा है और समझा है….अनुभवों की विविधता में सिमटे इस शहर पर ये अंदाज़ इस पोस्ट के जरिए दिल को छू लिया…..इसकी तारीफ बनरसिया अंदाज़ में…बजइला त गुरू..(बिस्मिल्लाह खां के एक कार्यक्रम में एक बनारसी ने कुछ इसी तरह तारीफ की थी)

  3. ज़बरदस्त…बनारस के बारे में आपका पोस्ट लाजवाब है सर…फेसबुक पर लिंक देखकर भ्रम को टटोलने का मन हो गया…वाकई मज़ा आ गया पढ़कर…इस भ्रम के बारे में जानकर मन हो रहा है कि और भ्रमित हुआ जाए…बनारस जाने का मौक़ा कई बार लगा…लेकिन जिस अंदाज़ में आपने बनारस को बयां किया है उससे दिल्ली में बैठे हुए बनारस का एहसास हो रहा है…बना रहे बनारस…

  4. ज़बरदस्त…बनारस के बारे में आपका पोस्ट लाजवाब है सर…फेसबुक पर लिंक देखकर भ्रम को टटोलने का मन हो गया…वाकई मज़ा आ गया पढ़कर…इस भ्रम के बारे में जानकर मन हो रहा है कि और भ्रमित हुआ जाए…बनारस जाने का मौक़ा कई बार लगा…लेकिन जिस अंदाज़ में आपने बनारस को बयां किया है उससे दिल्ली में बैठे हुए बनारस का एहसास हो रहा है…बना रहे बनारस…

  5. ज़बरदस्त…बनारस के बारे में आपका पोस्ट लाजवाब है सर…फेसबुक पर लिंक देखकर भ्रम को टटोलने का मन हो गया…वाकई मज़ा आ गया पढ़कर…इस भ्रम के बारे में जानकर मन हो रहा है कि और भ्रमित हुआ जाए…बनारस जाने का मौक़ा कई बार लगा…लेकिन जिस अंदाज़ में आपने बनारस को बयां किया है उससे दिल्ली में बैठे हुए बनारस का एहसास हो रहा है…बना रहे बनारस…

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