पीछे हटना आखिरी विकल्प है : बाबूराम भट्टराई


नेपाल की माओवादी पार्टी सीपीएन(एम) के पोलित ब्यूरो सदस्य और नेपाल के पूर्व वित्त मंत्री बाबूराम भट्टराई ने भारत की अपनी चार दिन की यात्रा के दौरान भारत-नेपाल जन एकता मंच के सदस्यों के साथ नई दिल्ली में शुक्रवार को एक अनौपचारिक बैठक की। बैठक में नेपाल के राजनीतिक हालात पर विस्तार से चर्चा हुई। प्रस्तुत है इस बैठक में उठे सवालों और उनके जवाब के प्रमुख अंश।  

सन 2005 में हुए बारह सूत्रीय समझौते के बाद से लेकर अब तक पिछले पांच सालों के दौरान देखने में आया है कि माओवादी पार्टी ने सिर्फ वार्ताओं-समझौतों पर ही ध्यान केंद्रित किया है जिसके कारण नेपाल में पार्टी के नेतृत्व में उठा जनांदोलन अलग-थलग पड़ गया है। नेपाल में जारी राजनीतिक गतिरोध और माओवादी पार्टी में ठहराव की क्या यह एक वजह है?
बारह सूत्रीय समझौते के संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि हमने ‘टैक्टिकली’ सही स्टैंड लिया था। चूंकि यह एक नया प्रयोग था, इसलिए हम अपने सिद्धांत और व्यवहार में संतुलन नहीं साध पाए। गलती दो जगह हुई। हमने अपने आंदोलन में दो चीजें विकसित की थीं। एक, हमारे स्थानीय आधार इलाके और दूसरी पीएलए यानी जन मुक्ति सेना। पीएलए को तो हम अब तक किसी तरह बनाए हुए हैं, लेकिन आधार क्षेत्रों को कायम रखने के लिए हमें पुराने तरीके छोड़ कर नए तरीके अपनाने थे। हम ऐसा करने में विफल रहे जिसके कारण जन कमेटियां कायम नहीं रह सकीं। दूसरी गलती यह थी कि जब हम सत्ता में आए, तो पार्टी के भीतर कुछ आवाजें उठीं कि हम गलत कर रहे हैं। हालांकि सत्ता में आना भी टैक्टिक्स का ही हिस्सा था। लेकिन हम यह नहीं समझ सके कि सत्ता के शीर्ष पर आना दरअसल क्रांति को आगे बढ़ाने का एक मौका ही है, क्रांति की परिणति नहीं। दूसरी चूक यहां हुई।

इसे दुरुस्त करने के लिए आपकी रणनीति क्या है?
हम जानते हैं कि अब भी हम एकाध महीने में नेपाल के ग्रामीण इलाकों में बसे अपने आधार इलाकों पर दोबारा कब्जा जमा लेंगे। इसमें मधेस शामिल नहीं है। इसकी तैयारियां शुरू हो गई हैं।

लेकिन अब तो यह तय हो चुका है कि संविधान नहीं बनने जा रहा और 28 मई की समय सीमा समाप्त होने पर आपको दमन के लिए तैयार रहना होगा। इस संदर्भ में क्या आपने कोई योजना बनाई है या इसका क्या विकल्प है?
मेरी प्रणब मुखर्जी से मुलाकात हुई है। वह इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि नेपाल में आगे क्या होगा। सोलह दौर के चुनाव के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं चुने जाने पर उन्होंने चिंता जताई और मुझसे पूछा कि रास्ता क्या है। मैंने यही कहा कि अगर आप संविधान सभा की सबसे बड़ी पार्टी को बाहर रख कर कोई समाधान खोजते हैं तो यह संभव ही नहीं होगा। वे इस बात को समझ रहे हैं।

लेकिन जिस तरह से नेपाल की माओवादी पार्टी में दो लाइनों का संघर्ष उभरा है, यह संभव है कि आपके अंतर्विरोधों का फायदा उठा कर पार्टी को तोडऩे की कोशिश की जाए या फिर शीर्ष नेतृत्व की हत्या जैसे कदम उठाए जाएं?
पार्टी में दो लाइनों का संघर्ष जिस तरह यहां के अखबारों में पेश किया जाता है, वह अतिरंजित है। फिलहाल दो चीजों पर पार्टी के भीतर बहस चल रही है। पहला यह कि तत्काल किया क्या जाए। दूसरा यह कि हमारे लिए प्रधान अंतर्विरोध क्या होना चाहिए- राष्ट्रीय प्रश्न या जनतांत्रिक प्रश्न। बहुमत इस बात पर है कि आंतरिक ताकतों का खतरा प्रधान अंतर्विरोध है और भारतीय विस्तारवाद का खतरा द्वितीयक। हालांकि दोनों साथ-साथ ही चलेंगे। आंतरिक प्रश्न को हल करते हुए हमें भारत की भूमिका से जुड़ी चुनौती की तैयारी करनी होगी। जहां तक पार्टी की बात है, इसमें अटूट एकता कायम है। बाकी, दमन की तैयारी तो दूसरी ओर चल ही रही है।

क्या आप पीछे भी लौट सकते हैं?
वह तो आखिरी विकल्प है, उससे पहले हो सकता है कि दोनों पक्षों की ओर से और समय लिया जाए क्योंकि तैयारी दोनों ओर अधूरी है। असल सवाल यही है।

क्या आपको लगता है कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान  का नेपाल के संदर्भ में नरम रुख यहां के अस्थिर राजनीतिक हालात की भी देन है?
हो सकता है, लेकिन असल सवाल यह है कि अगले पांच महीनों में हम क्या करेंगे। इसे लेकर पार्टी के भीतर बहस जारी है। अगर हम पूरी तरह तैयार नहंीं है तो वे भी पूरी तरह तैयार नहीं हैं। हो सकता है कि कोई रास्ता निकल कर आए, हमें और ज्यादा समय मिले। ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे काडरों का पूरी तरह से वे संहार शुरू कर दें। निकट भविष्य में यह संभव नहीं होगा। पहले भारत ने पौडेल के लिए दबाव डाला। अब वह समझ रहा है कि ऐसा संभव नहीं। वह भले नेतृत्व हमारे हाथ में नहीं देना चाहता, लेकिन तीसरा विकल्प भारत को दिख रहा है जहां हमारी सहमति ली जा सके।

क्या भारत अगर कोई फॉर्मूला देता है तो यह आपको स्वीकार होगा?
कोई भी फॉर्मूला हमारे लिए एक राहत जैसा ही होगा। बातचीत और समझौते से अब कोई आगे की राह नहीं निकलने वाली।

ऐसे में क्या आपको लगता है कि 2005 में हुआ 12 सूत्रीय समझौता एक बड़ी गलती थी और ऐसा कर के आपने सिर्फ उन मर रही राजनीतिक पार्टियों में दोबारा जान ही फूंकने का काम किया जिन्होंने आपको बार-बार धोखा दिया?
नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता। 2003 के बाद हमारी कोई भी बड़ी फौजी कार्रवाई ‘क्लीन’ नहीं रही। हम सैन्य स्तर पर गतिरोध का शिकार तभी हो गए थे। दूसरे, अपने आधार इलाकों को बनाए रखने में हमें दिक्कत आ रही थी क्योंकि ये सभी इलाके पहाड़ों में थे और पहाड़ी क्षेत्र आर्थिक रूप से उत्पादक नहीं हैं। इसीलिए हमें इस रास्ते को चुनना पड़ा, हालांकि हम इस राहत का तैयारी करने के लिहाज से इस्तेमाल नहीं कर सके। मैं कहूंगा कि वस्तुगत स्तर पर बारह सूत्रीय एजेंडा सही था।
नेपाल में आपकी सरकार बनने तक हम इस किस्म की बातें सुनते थे कि शाही सेना में भी माओवादी काडर मौजूद हैं।

क्या यह सब अतिरंजित बातें थीं या फिर सच्चाई क्या है?
सेना में हमारे लोगों की मौजूदगी का सवाल राष्ट्रीय प्रश्न से जुड़ा है। हमें लगता था कि राष्ट्रवादी नारे देकर हम साठ के दशक में सेना में पैदा हुए भारत विरोधी रुझान को भडक़ा पाएंगे, जबकि असल बात तो यह थी कि सेना की रसद से लेकर हथियार आदि और समूची अर्थव्यवस्था का आधार ही भारतीय एकाधिकार है। हम यहीं पर गलत साबित हुए।  

दो लाइनों का जो संघर्ष आपकी पार्टी के भीतर चला है, उसके बाद माओवादी पार्टी का असल चेहरा किसे माना जाए, आपको या प्रचंड को?
इसमें किसी व्यक्ति का सवाल नहीं होना चाहिए। पार्टी जो भी फैसले लेती है वह सामूहिक होता है। पार्टी का अपना सामूहिक चेहरा है। जिन विवाद वाले मसलों पर बहस जारी थी, उस पर भी बहुमत की ही लाइन पार्टी की लाइन मानी जानी चाहिए।

भारत जैसे देशों में आपकी पार्टी और नेपाली क्रांति के जो समर्थक समूह और धड़े हैं, उनके बीच आपका काम और फीडबैक की प्रणाली कमजोर हुई है, जबकि आप ही कहते रहे हैं कि दक्षिण एशियाई क्रांति के बगैर नेपाली क्रांति कर परिकल्पना पूरी नहीं होती। ऐसा क्यों?
हां, मैं मानता हूं कि हमारा काम इधर बीच भारत के राजनीतिक समूहों के बीच कम हुआ है। इसकी वजह यही है कि हम आंतरिक प्रश्नों से इधर बीच ज्यादा जूझते रहे। हमारे भीतर इस बात का स्वीकार है और हम ऐसा कर के ही इस गलती को दुरुस्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

28 मई को संविधान निर्माण की आखिरी तारीख खत्म होने के बाद क्या होगा?
अन्य दल चाहते हैं कि संविधान नहीं बनता है तो ना बने, या फिर उनके हिसाब से बने जबकि संविधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी माओवादी हैं। जाहिर है, कोई आम सहमति का रास्ता निकलता है तो दोनों पक्षों को कुछ राहत मिलेगी वरना यह भी हो सकता है कि हमें क्रांति की प्रक्रिया पूरी करने के लिए फिर दस-पंद्रह वर्षों का इंतजार करना पड़े।

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