अभिषेक श्रीवास्तव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से देश की जनता को तमाम हितोपदेश देने के साथ-साथ जो इकलौती कार्यकारी घोषणा की थी वह योजना आयोग को समाप्त किए जाने की थी। इस पर हफ्ते भर के भीतर काम काफी तेजी से शुरू हो चुका है। एक थिंक टैंक की बात बार-बार आ रही है जो आयोग की जगह लेगा। सवाल उठता है कि योजना आयोग को खत्म करने के पीछे प्रधानमंत्री के पास कोई वाजिब तर्क है या फिर यह उनकी निजी नापसंदगी का मसला है।
यह संयोग नहीं है कि आज से तीन साल पहले यानी 2011 में अंग्रेजी के एक अख़बार में अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय ने भी योजना आयोग को समाप्त करने की सिफारिश करते हुए लिखा था, ”यदि हम योजना आयोग के माध्यम से राज्यों को किए जाने वाले सभी हस्तांतरणों को हटा रहे हैं और अनुसंधान के काम से भी उसे फ़ारिग कर रहे हैं, तो योजना आयोग आखिर करेगा क्या? यह तो दिलचस्प सवाल है।” ठीक तीन साल बाद नरेंद्र मोदी ने यही किया। संसद में किसी भी परिचर्चा के बगैर मोदी ने अपने स्वतंत्रता दिवस अभिभाषण में कह डाला, ”हम बहुत जल्द योजना आयोग की जगह एक नई संस्था का गठन करेंगे।” इस घोषणा के तुरंत बाद ख़बर आ गई कि प्रधानमंत्री प्रस्तावित संस्था में बिबेक देबरॉय को भी शामिल करेंगे। आखिर मोदी और देबरॉय के बीच क्या रिश्ता है?
देबरॉय की किताब से ”पटरी पर आने” की सीख लेते मोदी |
प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में देबरॉय द्वारा संपादित एक पुस्तक का लोकार्पण किया था। लोकार्पण समारोह में अपनी शुरुआती टिप्पणी उन्होंने यह की थी कि उनका बोझ काफी कम हो गया है क्योंकि सारा काम इस पुस्तक के लेखकों ने कर डाला है। यही वह सिरा है जहां से हम योजना आयोग के असली दुश्मन की शिनाख्त कर सकते हैं। दरअसल, मोदी पर बिबेक देबरॉय का खासा प्रभाव रहा है। दोनों के बीच रिश्ता बहुत पुराना है। देबरॉय ने 2005 में राजीव गांधी इंस्टिट्यूट फॉर कन्टेम्पोररी स्टडीज़ (आरजीआइसीएस) में निदेशक के पद पर काम करते हुए एक रिपोर्ट लिखी थी जिसमें भातीय राज्यों की आर्थिक स्वतंत्रता का आकलन किया गया था। इस सूची में गुजरात को शीर्ष पर बताया गया था। इस रिपोर्ट के बारे में मोदी ने अखबारों में अपने राज्य में विज्ञापन जारी कर के प्रशंसा बटोरी थी। इसका भारी मीडिया कवरेज हुआ था।
चूंकि देबरॉय आरजीआइसीएस के रास्ते राजीव गांधी फाउंडेशन से भी जुड़े थे, इसलिए एक गलत धारणा का प्रचार यह हुआ कि खुद सोनिया गांधी ने गुजरात के तथाकथित आर्थिक विकास को स्वीकार्यता दे दी है। लोगों में इस खबर के जोरदार विज्ञापन का असर यह हुआ कि वे मानने लगे थे कि मोदी की अर्थनीति इतनी अच्छी है कि उनके राजनीतिक दुश्मन भी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। रातोरात देबरॉय ने इस रिपोर्ट के माध्यम से मोदी को देश में विकासनीति का सुपरस्टार बना दिया। मोदी ने 2012 में गुजरात के विधानसभा चुनाव प्रचार में इस रिपोर्ट का एक हथियार के तौर पर सोनिया व राहुल गांधी के खिलाफ़ जमकर इस्तेमाल भी किया और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने अपने कई संबोधनों में इस रिपोर्ट का जि़क्र किया था।
देबरॉय और मोदी दोनों ही इस एक तथ्य का जि़क्र करना भूल गए कि देबरॉय के परचे में प्रयोग किए गए आंकड़े 2002 से पहले के थे जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं हुआ करते थे। इसका उद्घाटन गुजरात की एक अर्थशास्त्री ऋतिका खेड़ा ने बहुत पहले एक रिपोर्ट में कर डाला था। इससे कहीं ज्यादा अहम बात यह थी कि देबरॉय का परचा पूरी तरह भ्रामक था क्योंकि वह एक दक्षिणपंथी वैश्विक थिंकटैंक फ्रेज़र इंस्टिट्यूट द्वारा तैयार की गई प्रविधि पर आधारित था। फ्रेज़र इंस्टिट्यूट स्टेट पॉलिसी नेटवर्क (एसपीएन) का हिस्सा है जो अपने बारे में कहता है कि वह ”ऐसे थिंकटैंक समूहों का एक संगठन है जो मोटे तौर पर प्रमुख कॉरपोरेशनों और दक्षिणपंथी दानदाताओं के लिए प्रच्छन्न तरीके से पैरोकारी करने वाली मशीनरी के तौर पर भूमिका निभाता है।” उसके मुताबिक:
”उसकी नीतियों में कर कटौती, जलवायु परिवर्तन संबंधी नियमनों का विरोध, श्रम संरक्षण में कटौती की पैरोकारी, दिहाड़ी में कटौती की पैरोकारी, शिक्षा का निजीकरण, मताधिकार पर बंदिश लगाना और तम्बाकू उद्योग के लिए लॉबींग शामिल हैं।”
इंस्टिट्यूट अपने आय के स्रोतों के बारे में कहता है, ”इस नेटवर्क का सालाना 83.2 मिलियन डॉलर का राजस्व प्रमुख दानदाताओं से आता है। इनमें कोश बंधु शामिल हैं जो ऊर्जा के क्षेत्र के बड़े खिलाड़ी हैं जो अमेरिका के टी पार्टी समूहों व जलवायु परिवर्तन नियमन के विरोधियों के पीछे की ताकत हैं। इसके अलावा इसमें तम्बाकू कंपनी फिलिप मौरिस और उसकी मातृ संस्था एट्रिया समूह शामिल है। इसमें खाद्य क्षेत्र की बड़ी कंपनी क्राफ्ट भी है और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन भी शामिल है।”
गौरतलब है कि जिस तम्बाकू कंपनी फिलिप मौरिस का दानदाता के तौर पर जि़क्र ऊपर किया गया है, नरेंद्र मोदी और गुजरात सरकार की आधिकारिक जनसंपर्क एजेंसी ऐपको वर्ल्डवाइड उसी की एक शाखा है। ज़ाहिर है, यह संयोग नहीं है क्योंकि गुजरात सरकार ने नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग के लिए ऐपको को 2007 के बाद ही ठेका दिया था जब देबरॉय के मोदी से निजी रिश्ते पर्याप्त पनप चुके थे।
बहरहाल, अपनी भ्रामक रिपोर्ट के कारण बिबेक देबरॉय को आरजीआइसीएस से इस्तीफा देना पड़ा था क्योंकि उन पर आरोप था कि उन्होंने अपने संरक्षकों को बाहरी ताकतों द्वारा प्रायोजित रिपोर्ट तैयार कर शर्मसार किया है। देबरॉय दिल्ली के लिबर्टी इंस्टिट्यूट से भी जुड़े हुए हैं और उसकी गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं। देबरॉय की उक्त पुस्तक में एक खंड लिखने वाले वरुण मित्रा लिबर्टी इंस्टिट्यूट के प्रबंधकीय ट्रस्टी हैं और यह संस्थान ऐटलस नेटवर्क का सहयोगी है। पत्रकार जॉर्ज मॉनबियो लॉबीवॉच में लिखते हैं, ”मित्रा और लिबर्टी इंस्टिट्यूट ने मोनसेंटो कंपनी के जीएम कपास के लिए भारी लॉबींग की थी और दावा किया था कि सरकारी दखलंदाज़ी के बगैर नई प्रौद्योगिकी तक मुफ्त पहुंच होनी चाहिए।”
बिबेक देबरॉय: मोदी का दायां हाथ |
आरजीआइसीएस आने से पहले बिबेक देबरॉय को अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कोई नहीं जानता था। देबरॉय के भारत सरकार के भीतर रिश्ते तब बनना शुरू हुए जब वे 1993 से 1998 के बीच हुए कानून सुधारों पर वित्त मंत्रालय द्वारा बाहरी पर्यवेक्षकों से पर्यवेक्षण की एक परियोजना के संयोजक बने। आरजीआइसीएस में देबरॉय को 1998 में आबिद हुसैन लेकर आए जो वहां के उपाध्यक्ष हुआ करते थे और पूर्व नौकरशाह भी थे जिनकी भूमिका राजीव गांधी के कार्यकाल में नवउदारवादी सुधारों की पहली लहर देश में कायम करने में बड़ी अहम रही थी। यह पहली लहर ही थी जिसके कारण देश में 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान व्यापार संतुलन घाटा पैदा हो गया था और जिसका बहाना बनाकर नरसिंह राव उदारीकरण का दूसरा चरण लेकर आए।
नब्बे के दशक के मध्य से लेकर अंत तक आरजीआइसीएस भारत का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संस्थान था जिसके संरक्षक दुनिया भर की शख्सियतें थीं। यहां का निदेशक बनने के बाद ही देबरॉय के संपर्क तमाम क्षेत्रों में अहम बने। बिबेक देबरॉय नाम के अनजान शिक्षक के फ़र्श से अर्श पर पहुंचने की कहानी यहीं से शुरू होती है जो अब नरेंद्र मोदी का आर्थिक सलाहकार बन चुका है और जिसकी किताब से मोदी को लगता है कि उनका सारा बोझ कम हो गया है।
साफ़ है कि योजना आयोग को समाप्त करने समेत अन्य आर्थिक कदमों के पीछे मोदी का अपना विवेक नहीं, देबरॉय का दिमाग है जिसे विदेशी कॉरपोरेट दानदाताओं से खाद-पानी मिल रहा है। मीडिया और पत्रकारों के बीच बिबेक देबरॉय की ताकत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की एक बड़ी पत्रिका की एक वरिष्ठ संपादक ने नई सरकार के बजट पर उनसे एक प्रायोजित टिप्पणी लिखवाने के अनुरोध के बहाने अपने लिए ”अच्छी नौकरी” की मांग आधिकारिक ई-मेल से कर डाली थी, जिसका मजमून इस लेखक के पास सुरक्षित है।
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Not only planning commission there are many more organization which doesn't have independent ideology. Thanks for this article
Good…