किशनजी पर नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता


बांग्‍ला के कवि नवारुण भट्टाचार्य ने माओवादी नेता किशनजी की हत्‍या पर एक कविता लिखी है जिसका अनुवाद कृपाशंकर चौबे ने किया है। यह कविता हमने चंद्रिका के ब्‍लॉग ‘दखल की दुनिया’ से उठाई है। अनुवाद कैसा है, इसका तो नहीं पता लेकिन विषय की गंभीरता, काव्‍यात्‍मक हस्‍तक्षेप की तात्‍कालिकता और हिंदी कविता में फैले अकाल के लिहाज से इस कविता को पढ़ना ज़रूरी हो जाता है। बांग्‍ला का मूल पाठ हमें नहीं मिल सका है, लेकिन जो भी हिंदी में आया है वो अपनी बात कह जाता है। कविता का शीर्षक है ‘गौरैया’।
गौरैया

शराब नहीं पीने पर भी

स्ट्रोक नहीं होने पर भी
मेरा पांव लड़खड़ाता है
भूकंप आ जाता है मेरी छाती और सिर में

मोबाइल टावर चीखता है

गौरैया मरी पड़ी रहती हैं
उनका आकाश लुप्त हो गया है
तस्करों ने चुरा लिया है आकाश

पड़ी रहती है नितांत अकेली
गौरैया
उसके पंख पर जंगली निशान
चोट से नीले पड़े हैं होंठ व आंखें
पास में बिखरे पड़े हैं घास पतवार, एके फोर्टिसेवेन
इसी तरह खत्म हुआ इस बार का लेन-देन

ज़रा चुप करेंगे विशिष्ट गिद्धजन
रोकेंगे अपनी कर्कश आवाज़
कुछ देर, बिना श्रवण यंत्र के, गौरैया की किचिर-मिचिर
सुनी जाए।

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