एक आंदोलन के अंतिम पलों की गवाही


मारुति प्रबंधन के सताए मज़दूरों के जले पर नमक छिड़क गए योगेंद्र यादव 


न कहीं कोई कवरेज हुई, न किसी को कोई ख़बर। न टीवी के कैमरे आए, न अख़बारों के रिपोर्टर। हरियाणा के कैथल से 300 किलोमीटर पैदल चलकर पंद्रह दिनों के बाद इंसाफ़ की आस में दिल्‍ली पहुंचे मारुति सुज़ुकी के जेल में बंद मज़दूरों के परिजनों को क्‍या मिला? हर सुनवाई के एवज में हरियाणा सरकार से सवा ग्‍यारह लाख लेने वाले केटीएस तुलसी की दलीलों पर अदालत की ओर से एक और तारीख़! हर नागरिक को टोपी पहनाकर आम आदमी बनाने वाले और हर आंदोलन को संसदीय सुअरबाड़े में खींच लाने वाले ”आप” की ओर से कुछ और नमक! 
विश्‍वास नहीं होता कि 31 जनवरी को दिल्‍ली के जंतर-मंतर पर हुआ धरना मारुति सुज़ुकी के कामगारों का ही था। वो दिन और था जब उद्योग भवन पर हजारों मज़दूर और आंदोलनकारी इकट्ठा हुए थे और फूटे हुए सिर लेकर बाहर आए थे। यह दिन लेकिन और था। कुछ औरतें थीं, कुछ कामगार, कुछ नेता, कुछ किशोरियां और एक भयावह सन्‍नाटा, जो कैथल से लेकर दिल्‍ली तक पसरा हुआ था। सुविधा की दुपहरी में गुनगुनी धूप सेंकते दो-ढाई बजे तक दिल्‍ली के कुछ आंदोलनपसंद चेहरे भी आए समर्थन में, लेकिन पड़ोस में मुख्‍यमंत्री केजरीवाल जी खुद आए हुए थे रेहड़ी-पटरी वाले एनजीओ नास्‍वी का समर्थन करने- इसलिए ज़ाहिर है सारा मजमा उधर ही था। इधर आवाज़ें, कुछ थकी हुई सी थीं। 
इंकलाब जि़ंदाबाद के नारों के बीच अचानक आम आदमी पार्टी के चाणक्‍य योगेंद्र यादव के यहां पहुंचने की घोषणा हुई। वे मंच पर चढ़े और अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे। उन्‍हें बहुत देर नहीं ठहरना था, इसलिए संचालक ने अगले ही वक्‍ता के रूप में यादव जी को बुला डाला। अपनी सधी हुई प्‍लास्टिक शालीनता और विनम्रता को ओढ़े माहौल की ठंड से बचते-बचाते योगेंद्र यादव ने बोलने की शुरुआत एक डिसक्‍लेमर से की कि उनके पास जब भी कोई पक्ष अपनी बात या शिकायत लेकर आता है, तो सार्वजनिक जीवन के लंबे अनुभव या पुराने संकोच के चलते वे सोचते हैं कि उक्‍त विषय के बारे में दूसरे पक्ष की क्‍या राय होगी।
संतुलन साधने के साथ ईमानदारी जताने की भी ज़रूरत थी, सो वे बोले कि जब घटना के बाद मेरे पास मारुति के मज़दूर आए थे और मुझसे कहा था कि हमारे साथ ज्‍यादती हो रही है तो ”मैं आपको ईमानदारी से बताता हूं कि मैंने उस वक्‍त जाने से इनकार कर दिया था।” वे बोले, ”एक हत्‍या हुई है, एक व्‍यक्ति मरा है, किसी बच्‍चे का बाप मरा है, हमें पहले माफी मांगनी चाहिए।”  
योगेंद्र यादव यह भूल गए थे कि उनके सामने बैठी महिलाएं जो रो रही थीं, उनके भी घरवाले पिछले डेढ़ साल से जेल में बंद थे और मारे गए अधिकारी के प्रति सद्भावना जताकर वे इन परिजनों के मन में कोई सहानुभूति नहीं पैदा कर रहे होंगे। बात यहीं तक नहीं रही, यादव ने मजदूरों से यह तक कह डाला कि सबसे पहले हत्‍या के दोषियों को पकड़ा जाना चाहिए और बाकी मजदूरों को उनका बचाव नहीं करना चाहिए क्‍योंकि हरियाणा सरकार एक के बदले डेढ़ सौ मजदूरों को जेल में डाले रखना चाहती है।  पूरे भाषण में न तो मारुति प्रबंधन का जि़क्र आया, न ही डेढ़ साल से जेल में सड़ रहे मजदूरों का और न ही सरकार व कंपनी की साठगांठ की कोई बात। 
”हत्‍यारों” और ”निर्दोषों” के बीच फांक डालकर यादव मंच से नीचे उतरे, बाकायदा फोटो ऑप की मुद्रा में झुक कर एक रोती हुई महिला के हाथ थामे, और काफी तेज़ी से उस एनजीओ के धरने की तरफ बढ़ गए जहां इस देश का सबसे बड़ा आम आदमी अब भी भाषण दे रहा था। शायद बहुत से लोग उस वक्‍त योगेंद्र यादव से कुछ कहना चाह रहे थे, उन्‍हें बीच में रोकना चाह रहे थे लेकिन इसका साहस पत्रकार पाणिनि आनंद ने अकेले किया। यादव के जाने के तुरंत बाद उन्‍होंने माइक हाथ में लिया और नीचे खड़े-खड़े ही यादव के दावों और वादों को दो मिनट के भीतर तार-तार कर डाला। 
ऐसा शायद पहली बार रहा होगा कि भेडि़ये के आने और भेडि़ये के जाने के बीच ही उसके मंसूबे का परदाफाश हो गया। मारुति के कामगारों ने जितने धैर्य से योगेंद्र को सुना और ताली बजाई, उतने ही धैर्य से पाणिनि को भी सुना और ताली बजाई। इसके तुरंत बाद कुछ यूनीफॉर्मधारी मजदूर नेता उस ओर दौड़ते दिखे जिधर अरविंद केजरीवाल एक एनजीओ के धरने को संबोधित कर के उठे थे। 
योगेंद्र कहते हैं कि उनके पास दो-तीन बार मारुति कामगारों का डेलीगेशन गया था, लेकिन उनके समर्थन में वे संकोचवश आगे नहीं आए। पाणिनि कहते हैं कि दर्जन भर से ज्‍यादा बार मारुति के कामगार ”आप” वालों के पास गए थे लेकिन उन्‍हें भगा दिया गया। जनता दोनों पर ताली बजाती है। आखिर चूक कहां हुई है? मारुति के मजदूर आंदोलन को किसका ग्रहण लगा है? 
मारुति सुजुकी के आंदोलन से जुड़ा हर एक आंदोलनकर्ता, लीडर, पत्रकार, जनपक्षधर संगठन और एक्टिविस्‍ट कल निराश दिखा। साल भर पहले ऐसा नहीं था। चुनावी मौसम में सीपीआइ से लेकर आम आदमी पार्टी तक के मजदूरों को मिले अचानक संदिग्‍ध समर्थन के बीच कुछ लोग दबी-छुपी ज़बान में कहते पाए गए कि देश के इस सर्वाधिक संभावनाशील मजदूर आंदोलन में कोई मोदी भी घुस आया है। आखिर कौन है यह मोदी? 

(अभिषेक श्रीवास्‍तव) 
Read more

3 Comments on “एक आंदोलन के अंतिम पलों की गवाही”

  1. सचमुच, कौन है यह मोदी?

    मजदूर और कार्यकर्ता पिट रहे हैं, जेलों में बंद हैं, उनके परिजन हद दर्जे की बदहाली में जी रहे हैं. उन्हें कोई अधिकार नहीं है और वे इतनी मुश्किलों में अपनी बात कहने और उसे मनवाने के लंबे, थका देने वाले लेकिन एक शानदार संघर्ष में जुटे हैं. इसलिए नहीं कि भीतर घुस आए मोदी को हर शाम मेमने जुटाए जाएं.

    यह हम सबको सोचना है जो इस आंदोलन की कामयाबी से कम किसी चीज के लिए राजी नहीं हैं.

    एक बहुत ही बढ़िया रिपोर्ट अभिषेक, बल्कि रिपोर्ट से ज्यादा ही.

  2. दूसरा पक्ष देखना सही बात है – पर हम कैसे दूसरा पक्ष चुनते हैं, यह सवाल है। नेहरू-आंबेडकर कार्टून विवाद पर हम किस पक्ष में खड़े थे, खाप पंचायत का 'भला' पक्ष देखते हुए हम किस दूसरे पक्ष के साथ खड़े हैं, सोमनाथ भारती के साथ हम किस पक्ष में हैं, यही सिलसिला मारूति कांड में 'दूसरा पक्ष' क्या है, बतलाता है। 'हत्या' एक पक्ष है, हत्या करने वाले पैदाइश हत्यारे नहीं हैं और कैसी स्थितियों में कौन हत्या कर रहा है, यह भी एक पक्ष है। आंद्रे मालरो के उपन्यास 'La Condition Humaine (मानव नियति)' में हेमेलरीख (नाम ग़लत हो सकता है; जहाँ तक स्मृति में है) राष्ट्रवादियों के साथ लड़ाई में कम्युनिस्टों की मदद करने से इन्कार करता है, प्यार की वजह से; और जब राष्ट्रवादी उसके बीमार बच्चे की हत्या कर देते हैं, तो वह लड़ने मरने के लिए निकल पड़ता है -प्यार की वजह से।
    यह मान लेना कि मजदूर हत्यारों के साथ हैं, यह शोषकों के समर्थन में भारतीय सामंती बुद्धिजीवियों और मुख्यधारा की मीडिया का पहला पक्ष है। दूसरा पक्ष देखने के लिए हम खुद से पूछें कि किस पक्ष के साथ हम खड़े हैं।

  3. रिपोर्ट और लाल्टू जी की बातों से सहमति। यहां तो योगेंद्र यादव की बातें बड़े हत्यारों के पक्ष में जा रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *