व्यालोक |
इस शहर का मौसम बदल गया है। अब यह शहर हो गया है, सही मायनों में और पहले जो मेरा मोहल्ला होता था, वह अब ‘कॉलोनी’ में बदल गया है। पहले यहां के बच्चे अपने मुहल्ले के झाजी चा, कर्ण चाची, महतो भैया और रामेसर काका इत्यादि को अपनी हाथ की उंगली की तरह पहचानते थे, लेकिन अब मेरे बगल वाले घर में कौन सा परिवार रहने आया है, नहीं जानता? पहले इस मुहल्ले में कोई शराब नहीं पीता था, लेकिन अब शायद ही कोई घर हो, जहां कोई नहीं पीता है। महज 10-12 साल पहले तक, जब इस मुहल्ले के किसी लड़के को गुटखा भी खाना होता था, तो वह छिपकर जाता था। अब इसी कॉलोनी की चौक पर ही जाम टकराए जाते हैं-खुलेआम।
मेरे मुहल्ले में कदंब का एक पेड़ हुआ करता था। उस पर सावन के महीने में लड़कियां झूला नहीं झूलती थीं, लेकिन हां, वह अपनी जगह खड़ा था- अपनी मस्ती में झूमता, अपने फलों की सुंगंध पर इतराता, इठलाता। कई साल पहले वह काट दिया गया। विकास के लिए जगह बनानी थी। अब उसकी ठूंठ पर एक मोबाइल कंपनी का टावर उग आया है। रिहाइश के बीचोंबीच उस टावर के लगाने वक्त कानाफूसी भी हुई, पर सबने- ‘मैं ही क्यों?’– सोचकर विरोध नहीं किया। हां, लोग इस बात पर सहमत ज़रूर हैं कि मोबाइल टावर से नुकसान ही होगा, फायदा नहीं।
हमारी इसी कॉलोनी या मुहल्ले (क्या लिखूं, समझ नहीं आता) में एक पुराना मंदिर भी था। आस्था की छोड़िए, वह सामाजिक गतिविधियों का केंद्र भी था। वहां अब दो-चार जुआ खेलनेवालों के अलावा कोई नहीं जाता। मंदिर की दीवारों से पीपल और बरगद की जड़ें झांकने लगी हैं….उसकी चारदीवारी भी जगह-जगह से टूट गयी है, जिससे अहाते में गाय-भैंस-बकरी-सूअर, सब का अबाध प्रवेश होने लगा है। मंदिर के ठीक सामने का पोखर आधा भर दिया गया है और सार्वजनिक सहमति से बाकी बचे को पूरी कॉलोनी का कूड़ेदान बना दिया गया है। पोखर के आसपास की ज़मीन के टुकड़ों की प्लॉटिंग कर उस पर अट्टालिकाएं खड़ी हो गयी हैं। जिस मैदान की छाती को कूटकर ये इमारतें बनायी गयीं हैं, वहीं कहीं हमारा बचपन भी दफ्न है। अब मुहल्ले के लड़कों को खेलने के लिए मैदान नहीं मयस्सर है। वैसे, अब मुहल्ले में बच्चों के लिए खेल के मैदान की ज़रूरत भी नहीं। अव्वल तो, हरेक घर में केवल बूढ़े ही बच गए हैं, जवान अपने बेटों सहित दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरू-हैदराबाद निकल गए हैं।
इस मुहल्ले का सरकारी स्कूल अब बड़ा हो गया है। खपरैल की जगह अब ईंट की पक्की इमारत बन गयी है। हालांकि, लोग कहते हैं कि प्रिंसिपल साहब ने इसके बनने में काफी रक़म बनायी है। हमारे बचपन में सवर्ण-अवर्ण कोई भी, प्रोफेसर से चपरासी तक की संतान इसी में पढ़ते हैं। अब सरकारी स्कूल में केवल तथाकथित पिछड़ी जातियों के बच्चे पढ़ते हैं। वह भी पढ़ते कम हैं, स्कूल ड्रेस लेने, लड़कियां साइकिल लेने और दोपहर की खिचड़ी खाने आते हैं। तथाकथित सवर्णों के बच्चे अब शहर के ‘कान्वेंट’ में पढ़ने जाते हैं। मेरा शहर अब सचमुच शहर हो गया है। यहां पचीसों कान्वेंट खुल गए हैं। सरकारी स्कूलों में मास्टर साब और मैम मक्खियां मारते अपना वक्त गुज़ारते हैं….वही सरकारी स्कूल, जिसे हमारी पीढ़ी गर्व से ‘सेंट बोरिस’ कहती थी, क्योंकि वहां बोरा लेकर जाना होता था।
मेरा शहर बदल गया है…बड़ा हो गया है, सचमुच का शहर हो गया है। सार्वजनिक उत्सवों के सारे बहाने अब लगभग बंद हो गए हैं। हमारे शहर को चारों ओर से पुराने राजा के महल की चार दीवारों ने घेर रखा था। अब उसे जगह-जगह तोड़ कर कूबड़ की तरह कई बदशक्ल मकान निकल आए हैं। कहने को एक स्टेडियम भी बना दिया गया है, लेकिन उसमें बारिश का पानी ही जमा होता है। बाक़ी समय वहां नेताओं का हेलीकॉप्टर उतरता है या कुछ अनाम बच्चे अभी भी टी. रहमान बनने की ख्वाहिश में रहते हैं। टी. रहमान यानी तारिकुर्रहमान…..हमारे ज़माने का हीरो, हमारे ज़माने का सबसे ऊंचा क्रिकेटर…शायद रणजी में भी खेला था। अब के युवा आज तक उसी ‘नोस्टैल्जिया’ में जी रहे हैं।
वैसे, हमारा शहर अब सचमुच शहर हो गया है। बड़ा अच्छा लगता है। अब यहां तीन मॉल खुल गए हैं। यह बात दीगर कि बिजली नहीं होने की वजह से अक्सरहां उसका ए.सी. बंद ही रहता है। तो, महानगरों की तरह केवल ‘विंडो शॉपिंग’ के लिए जाना भी थोड़ा पीड़ादायक हो सकता है। हां, यहां अपार्टमेंट की संस्कृति भी आ गयी है। शहर से थोड़ी ही दूर अपार्टमेंट बनाए जाने लगे हैं। लोग उसे लेकर तरह-तरह की बातें भी कर रहे हैं। पुराना बस-स्टैंड कुछ ही दिनों का मेहमान है। उसे शहर से दूर बसाने की बात है। ख़ाली होनेवाली ज़मीन पर भू-माफिया की नज़रें अभी से गड़ गयी हैं। लोग इसे लेकर काफी रोमांचित महसूस कर रहे हैं। पहले का शांत शहर अब गतिविधियों से भरा-पूरा है। अच्छा लगता है।
जिस शहर में कभी भूले-भटके अपराध की घटनाएं होती थीं, अब रोजाना ही अपहरण, लूट, हत्या की ख़बरें आती हैं। शहर बड़ा ‘हैपनिंग’ हो गया है। तंग गलियों पर ट्रैफिक की भरमार से ‘रोड रेज़’ की घटनाएं भी सामने आ रही हैं, शहर अब सचमुच का शहर हो गया है।
हरेक हाथ में मोबाइल और कानों में इयरप्लग लग चुका है। स्मार्टफोन से लेकर चायनीज मॉडल तक, सब के पास मोबाइल है।
लोग बोल बहुत ज्यादा रहे हैं, कह कुछ भी नहीं पा रहे। पहले वे मुहल्ले और कस्बे में रहते थे। अब वे कॉलोनी और शहर वाले हो गए हैं।
मेरा शहर सचमुच का शहर हो गया है।
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वक्त के सितम की तस्वीरें खिंच ली आपने साहब—
उम्दा,कल और आज के बीच कथित तौर विकसिक हो रहे समाज का यथार्थ….ये समाज की त्रासदी है जिसका असर आने वाले कल पर पड़ेगा…इस शानदार लेख के लिए लेखक एवं जनपथ दोनों का आभार
….वही सरकारी स्कूल, जिसे हमारी पीढ़ी गर्व से ‘सेंट बोरिस’ कहती थी, क्योंकि वहां बोरा लेकर जाना होता था।