बढ़ती उम्र के साथ विकास की लहर निगल गई सोमनाथ की कला को |
यहां हम जिस घर में रुके, वह गांव का इकलौता गैर-आदिवासी घर था। इसमें सोमनाथ गौड़ा (यहां गौड़ा को ओबीसी श्रेणी में माना जाता है), उनकी पत्नी और दो लड़के रहते हैं। मूवमेंट के लोग आम तौर से इसी घर में रुकते हैं। सोमनाथ किसी जमाने में गांव-गांव घूम कर 50 कलाकारों की अपनी मंडली के साथ ऐतिहासिक कथाओं पर नाटक खेला करते थे। ऐसे ही नाटक खेलने के लिए वे राजुलगुड़ा जब 25 साल पहले आए तो गांव वालों ने उन्हें यहां रोक लिया और अपने साथ बस जाने का आग्रह किया। प्रेमभाव में वे यहीं रह गए। वेदांता ने 2002 में जब प्रोजेक्ट शुरू किया तो उसने 12 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा कस्बे में अपना दफ्तर बनाया। इसके असर से वहां गेस्ट हाउस खुले, लॉज बने। बाजार बना। गाड़ियों की चहल-पहल भी शुरू हो गई। फिर मुनिगुड़ा-भवानीपटना स्टेट हाइवे तक बाजार घिसटते-घिसटते आ गया। राजुलगुड़ा के बाहर हाइवे पर आधा दर्जन दुकानें खुल गईं। पेप्सी मिलने लगी। गांव में टीवी भी आ गया। टीवी के साथ डीटीएच भी आया। मोबाइल टावर नहीं है, लेकिन गाना सुनने और वीडियो देखने के लिए 3000 वाला मोबाइल आ गया। इस ”विकास” का असर देखिए कि पांच साल पहले मुनिगुड़ा कस्बे में जो मकान 700 रुपये माहवार में किराये पर मिला करता था, आज उसका मासिक किराया 50,000 रुपये हो चुका है (यह कंपनी का गेस्ट हाउस है)। इस तरह के ”विकास” का एक असर यह भी हुआ कि हमारे मेज़बान सोमनाथ गौड़ा की कला ने धीरे-धीरे यहीं दम तोड़ दिया और वे जन्म से विकलांग अपने बड़े बेटे वृंदावन की छिटपुट कमाई व धान के कुछ रकबे पर अपनी बीवी की हाड़तोड़ मेहनत तक सिमट कर जीर्ण हो गए। यह कहानी तकरीबन समूचे गांव में मरने के कगार पर खड़ी उस पिछली पीढ़ी की है, जिसने कभी जमींदारों से जमीन कब्जाने के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी। नई पीढ़ी में पंकज है, सूरत है, नंदिनी है। ये नाम शहरी हैं, आदिवासी नहीं। जैसे नाम बदले, वैसे ही आदिवासी जीवन की तासीर भी बदली।
राजुलगुड़ा के स्कूल में 15 अगस्त |
बहरहाल, हमारे यहां पहुंचने से एक दिन पहले ही 13 अगस्त को 11वीं पल्लीसभा (ग्रामसभा) खम्बेसी गांव में संपन्न हुई थी जहां के लोगों ने एक बार फिर वेदांता को एक स्वर में खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य सरकार ने वेदांता के प्रोजेक्ट पर जनसुनवाई के लिए जिन 12 पल्लीसभाओं को चुना था, उसमें 11-0 से पलड़ा अब तक आदिवासियों के पक्ष में था और आखिरी रायशुमारी 19 अगस्त को जरपा गांव में होनी थी। जाहिर है, सोमनाथ को भी गांव की इकलौती प्राथमिक पाठशाला में 15 अगस्त का झंडा फहराते वक्त दरअसल इसी कयामत के दिन का इंतजार था जब कंपनी के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी जाती और 67 साल के बूढ़े, जर्जर लोकतंत्र में न्यायिक सक्रियता का यह किस्सा एक तारीखी नजीर बनकर विकास की नई पैमाइश कर रहा होता। लेकिन बात इतनी आसान नहीं थी, मोर्चे इतने भी साफ नहीं थे, यह बात हमें 15 अगस्त की शाम समझ में आई जब गांव में एक चमचमाती मोटरसाइकिल आकर रुकी। सफेद टीशर्ट में सुपुष्ट देहयष्टि वाले एक नौजवान ने उतरते ही नमस्कार किया। उसके पीछे सोमनाथ का लड़का वृंदावन बैठा था। नौजवान ने विकलांग वृंदावन को सहारा देकर जमीन पर बैठाया और खुद खटिये पर बैठ गया। उसे हिंदी आती थी। काम भर की अंग्रेजी भी। फिर उसने बोलना शुरू किया, ”सर, मैं यहां हाइवे पर साइकिल रिपेयर की दुकान चलाता हूं। वृंदा उसी में मिस्त्री का काम करता है। मैं तमिलनाडु और वाइजैग में भी रहा हूं। अब भी महीना में 20 दिन वाइजैग जाता रहता हूं माल लाने के लिए। पापा तो अब कुछ कर नहीं पाते, तो वे ही दुकान पर बैठते हैं। मैं बिजनेस में लगा हूं। और आप लोग…?”
शायद वृंदा से उसे हमारी खबर लगी थी। उसका नाम सूरत था। वह भी कुटिया कोंध था और पड़ोस के पात्रागुड़ा गांव का रहने वाला था। चेहरे पर दूसरों से श्रेष्ठ होने का भाव था। वह बार-बार मोटरसाइकिल की ओर देखकर आत्मविश्वास से भर उठता। हमने मोटरसाइकिल के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि दहेज में मिली है। गांव के कुछ बूढ़े-बुजुर्ग हमें घेरे बैठे थे। मैंने जानना चाहा कि क्या यहां के आदिवासियों में दहेज चलता है, जवाब सूरत ने दिया, ”पहले नहीं था सर, लेकिन अब शुरू हो गया है। मेरे गांव में तो कई मोटरसाइकिलें है। कुछ ने अपने पैसे से भी खरीदी हैं, कुछ दहेज में…।” बीच में उसने मोबाइल निकाल कर वक्त देखा और हम उसे अपने आने का कारण बताते रहे। जवाब में वह ”ओके, ओके” कहता रहा। ”आपका क्या विचार है वेदांता के बारे में…”, मैंने जानना चाहा। पहले वह मुस्कराया, फिर बोला, ”देखो सर, नियमगिरि तो हमारी मां है, सब कुछ उसी से हमें मिलता है। लेकिन कंपनी आएगी तो ज्यादा साइकिल आएगी, ज्यादा साइकिल पंचर होगी, फिर ज्यादा धंधा भी आएगा… है कि नहीं।” मैंने देखा कि आसपास बैठे लोग उससे पहले से ही कुछ कटे से थे और इस बयान के बाद उनकी आंखों में संदेह का पानी तैरने लगा था। उसने खुद को संभाला, ”देखो साब, दुख तो हमको भी होगा अगर नियमगिरि जाएगा, लेकिन क्या करें, कुछ डेवलपमेंट भी तो होना चाहिए… क्या?” अगले ही पल अचानक वह तेजी से उठा और चलने को हुआ, ”मेरे को निकलना है साब, कल मिलते हैं हाइवे पर।” मैंने उससे मोबाइल नंबर मांगा, तो उसने एक अनपेक्षित सा जवाब हमारी ओर उछाल दिया, ”हम लोग तो रोज सिम बदलते हैं, नंबर का क्या है…।”
देश-दुनिया पर चर्चा की एक शाम |
जहां नेटवर्क नहीं था वहां रोज सिम बदले जा रहे थे, यह हमें पहली बार पता चला। अंधेरा होते ही कई युवक अपने-अपने मोबाइल की स्क्रीन निहारते हुए गांव में चहलकदमी करने लगे। एक दूसरे को काटती संगीत की तेज आवाजें बिल्कुल नोएडा के खोड़ा कॉलोनी का सा माहौल बना रही थीं। एक जगह कांवरिया का गीत था। दूसरा भोजपुरी गीत। तीसरा मैथिली। चौथा फिल्मी। दो घरों से टीवी की तेज आवाज आ रही थी। यहां के आदिवासी गांवों में प्रथा है कि सभी कुंवारे लड़के एक कमरे में सोएंगे और सारी कुंवारी लड़कियां किसी दूसरे कमरे में। वे अपने परिवारों के साथ नहीं सोते हैं। मैं जिज्ञासावश कुंवारे लड़कों के कमरे में यह जानने के लिए गया कि क्या वे जो बजाते हैं, उसे समझते भी हैं। उनमें सिर्फ एक को काम भर की हिंदी आती थी, दूसरा जबरन अंग्रेजी बोलने की कोशिश कर रहा था। पता चला कि इस गांव से पिछले साल कुल 13 लड़के नौकरी के सिलसिले में केरल गए थे। ये सब धान रोपाई के लिए फिलहाल गांव आए हुए हैं। केरल में इन्हें रोजाना 150 से 200 रुपये मिलते हैं। हर साल ठेकेदार को फोन कर के ये छोटे-छोटे काम करने वहां जाते हैं। वहीं से टीवी, मोबाइल, छिटपुट इलेक्ट्रॉनिक सामान गांवों में लेकर आते हैं। सौ रुपये में मोबाइल में एक चिप पड़ती है जिसमें गानों के वीडियो होते हैं जो दुकानदार की मर्जी के होते हैं। ”जब समझ में नहीं आता तो आप लोग भोजपुरी या मैथिली वीडियो क्यों देखते हैं”, मैंने जानना चाहा। एक लड़का शर्माते हुए बोला, ”माइंड फ्रेश करने के लिए।” मैंने उससे नियमगिरि के बारे में जानने की इच्छा जताई, तो उसने जवाब दिया, ”ये सब जाकर गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछो। मेरे को क्या मालूम।” सहमति में दर्जन भर युवकों ने सिर हिला दिया और पहले की तरह बेसाख्ता मुस्कराने लगे।
बदलती पीढ़ी के साथ बदल रहे हैं सरोकार |
राजुलगुड़ा गांव में बमुश्किल आधा दर्जन बुजुर्ग बचे हैं। कोई दर्जन भर अधेड़ होंगे। सबसे ज्यादा संख्या औरतों, बच्चों और युवाओं की है। कहते हैं कि यहां पुरुष लंबी उम्र तक नहीं जी पाते क्योंकि महुआ, मांडिया और तंबाकू उन्हें जल्दी लील लेते हैं। यह कहानी इस समूचे इलाके की है, नीचे चाहे ऊपर। नए लड़के बाहर जा रहे हैं तो शराब भी पी रहे हैं। उन्हें न तो नियमगिरि के अस्तित्व से खास मतलब है, न ही वेदांता कंपनी से। शाम को चौपाल पर जब गांव के बूढ़े और प्रौढ़ बैठकर दीन दुनिया का हालचाल लेते देते हैं, तो नौजवान आबादी अजनबी संगीत से घनघनाते मोबाइल हाथ में झुलाते हुए ”माइंड फ्रेश करने” हाइवे की ओर निकल पड़ती है। दरअसल, जिस किस्म की सामाजिक संस्कृति नियमगिरि की तलहटी में बसे ऐसे गांवों में दिखती है, वह मोटे तौर पर सीमावर्ती आंध्र प्रदेश के सामाजिक ढांचे से प्रभावित रही है। यहां से आंध्र का सबसे करीबी कस्बा बॉबिली लगता है और रायगढ़ा में एक बड़ी आबादी पार्वतीपुरम और बॉबिली से आकर बसी है। इसी का असर है कि शहरी और कस्बाई राजनीति में तेलुगु फिल्मी सितारों का असर बहुत चलता है। कभी आंध्र के पड़ोसी कस्बे पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं, ”हमारे शहर में सब तेलुगु फिल्में देखते हैं, तेलुगु बोलते हैं। लोगों की दिलचस्पी ओड़िशा की राजनीति में ज्यादा नहीं है। यहां तो फिल्मी सितारों के झुकाव के हिसाब से राजनीति तय होती है।” सूरत ने भी ऐसी ही बात हमसे कही थी, ”अभी देखो, सिद्धांत और अनुभव जिस पार्टी में चले जाते हैं लोग उसी को वोट देते हैं। पहले यहां सब गांव कांग्रेसी था, लेकिन अब बदलाव आ रहा है।” सिद्धांत और अनुभव उड़िया के दो लोकप्रिय फिल्मी सितारे हैं।
लांजीगढ़ में वेदांता का बनवाया उजाड़ बाज़ार परिसर |
मूवमेंट के गांव में आए इस बदलाव की स्वाभाविक परिणति देखनी हो तो हाइवे पर सिर्फ बीस किलोमीटर आगे वेदांता के प्रोजेक्ट साइट लांजीगढ़ कस्बे तक चले जाइए। माथे पर टीका लगाए, मुंह में पुड़ी (गुटखा) दबाए चमचमाती हीरो होंडा पर तफरीह करते दर्जनों आदिवासी-गैर आदिवासी नौजवान कंपनी के गेट के सामने ”माइंड फ्रेश” करते मिल जाएंगे। अंगद बताते हैं कि इनमें नब्बे फीसदी मोटरसाइकिलें कंपनी की दी हुई हैं और तकरीबन इतने ही लोग कंपनी के अघोषित एजेंट बन चुके हैं। इस गांव में कभी एक लड़का अकसर आया करता था जिसका नाम था जीतू। जुझारू था, एंटी-वेदांता आंदोलन का सबसे लोकप्रिय स्थानीय चेहरा। हमने उसे 15 अगस्त की शाम मुनिगुड़ा बस स्टैंड पर टहलते हुए देखा। साथी अंगद ने उसकी पहचान कराते हुए बताया, ”पहले बहुत आंदोलनकारी था, पर अब बिक गया है। चार हजार का जूता पहनता है। अभी ये सब चुप हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का काम चल रहा है वरना आपसे दस सवाल पूछता कि कौन, क्या, क्यों…।” राजुलगुड़ा गांव के भीतर भी ऐसा ही एक शख्स है। पूरे गांव में अकेले उसी के पास बाइक है। अंगद के मुताबिक आजकल वह भी ”चुप” है। (जारी)
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बहुत बढ़िया. पहले भाग से बेहतर.
दिलचस्पी और जिज्ञासा बढ़ती जा रही है।
दिलचस्पी और जिज्ञासा बढ़ती जा रही है।
वास्तव में यदि नियमगिरि को आदिवासी अपने देवता के रूप में पूजते है तो ,उनके साथ सरकारे अन्याय कर रही है …वहुत सार्थक रहा