”बाबा की मेज़ पर मोदी की शील्ड” नामक रिपोर्ट पर बाबा शिवमंगल सिद्धांतकर का जवाब आया है। जवाब क्यों आया यह समझ नहीं पाया मैं, क्योंकि उक्त रिपोर्ट बाबा से आधे घंटे की बातचीत के बाद मैंने लिखी थी उन्हें बताते हुए कि मैं लिखने जा रहा हूं। वे खुद इसे स्वीकार करते हैं। उस रिपोर्ट में सौ में से साठ वाक्य तो बाबा के ही कहे हुए हैं। रिपोर्ट को पढ़ने पर मुझे कई लोगों ने कहा कि आपने खबर के बहाने बाबा का पक्ष प्रचारित कर दिया। इसके बावजूद बाबा ने जवाब भेजा, और खूब भेजा। न वे ”मेज़” का मेटाफर समझ सके, न ही यह बुनियादी बात कि पूरी रिपोर्ट में ”अभिषेक और उनके साथी संगी” कहीं हैं ही नहीं, यह सिर्फ एक खबर है जिसमें एकाध इनपुट सूत्रों के हवाले से है। चूंकि अपने जवाब में बाबा ने मुझे बच्चा कह ही दिया है, तो बातचीत की गुंजाइश बनती नहीं। बच्चों को माफ करने के बाद पता नहीं क्यों उन्होंने आखिरी टीप में अदालत बैठाने की बात कह दी है।
बहरहाल, बाबा का ये पत्र इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमारे प्रिय लेखकों मंगलेश डबराल और उदय प्रकाश के दक्षिणपंथी मंच पर जाने और पुरस्कार ग्रहण करने को सैद्धांतिक रूप से जायज़ ठहराया है। पिछले दो महीनों से जब इस विषय पर जनसत्ता समेत पूरे वाम हिंदी खेमे में मंगलेश जी और उदय जी पर बहस चल रही हो, एक कम्युनिस्ट पार्टी के बुजुर्गवार मुखिया द्वारा इनका समर्थन सबसे बड़ी खबर है। मार्क्सवाद के रास्ते यह अपने किस्म की अनूठी व्याख्या है। बाबा ऐसे ही सिद्धांतकार नहीं कहे जाते।
प्रिय अभिषेक जी,
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बाबा शिवमंगल सिद्धांतकर |
बाबा की मेज़ पर मोदी की शील्ड? ‘इससे क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि कहीं बाबा ने मोदी को यानी भाजपा को ज्वाइन तो नहीं कर लिया’? कोष्ठक के शब्द क्या यह ध्वनित नहीं करते कि यह मेरा व्यक्तिगत मामला है, मैं किसको ज्वाइन करता हूं; फिर आप महान विभूतियों के साथ बिरादराना संबंध रहा है, तो मीटिंग बुला लेते हैं।
आप जानते हैं कि चीजें जो दिखती हैं कोई जरूरी नहीं कि वैसी ही हों; जिसे आप मेरी मेज़ कहते हैं वह मेरी ही नहीं है। दरअसल मेरी बहुतेरी निजी वस्तुएं निज्येतर इस्तेमाल की होती हैं, सार्वजनिक इस्तेमाल की होती हैं; मेज़ के साथ भी यही बात है। मेरी मेज़ पर तमाम चीजें बिखरी होती हैं, दाहिनी तरफ एक बड़ी कुर्सी है, जिस पर मैं बैठता हूं और सामने के फर्श पर जब राग–विराग के छात्र नृत्य कर रहे होते हैं, उस समय उस कुर्सी पर नृत्य प्रक्षिक्षण देने वाली शिक्षिका बैठती है। मेज़ के दूसरे छोर पर मेरी भतीजी पुनीता की फाइलें इत्यादि होती हैं और एक कुर्सी भी होती है, जिस पर वह बैठती है। अब आपको स्पष्ट हो गया होगा कि बाबा की निजी मेज़ सार्वजनिक इस्तेमाल की वस्तु है। इसलिए जिसे आपने अपनी संजय–दृष्टि से देखा है, वह सच नहीं है।
यथार्थ और आभास के द्वन्द्व की वैज्ञानिकता को समझने वाले कहते हैं कि जो दिखता है, जरूरी नहीं है कि सच हो ही। कहना जरूरी है कि आप जो कह रहे हैं, वह सच नहीं है; वैज्ञानिक द्वन्द्ववाद के सिद्धांत और व्यवहार के बारे में कोई एक छोटी ही पुस्तिका यदि पढ़ लें और आत्मसात् कर लें तो किसी व्यक्ति और वस्तु पर टिप्पणी करने में सहूलियत होगी। मैं यह नहीं कहता कि आपने इस बारे में पढ़ा नहीं होगा। हां संजय–दृष्टि को प्रमाण मान लेने की वजह से आपने मेरे और मेरी भतीजी के बारे में ऐसी टिप्पणी कर दी है कि हम लोग जैसे आर्थिक अपराधी हैं और आप सरकारी मुखबिर की कोटि में दिखाई पड़ रहे हैं। आपको पता नहीं चल रहा है कि आप अपने पक्ष की सेवा कर रहे हैं अथवा मोदी या मनमोहन के पक्ष की। खैर, संजय द्वारा ही सही, ग्रेटर नोएडा में मेरे करोड़ों के फ्लैट की चाबी और अकूत सम्पत्ति का पता तो भेज देते। श्रीमती पुनीता शर्मा के नाम से यदि आप लोगों ने रायपुर में कोई प्लॉट खरीदा हो तो यह पुनीता शर्मा की नृत्य–कला का पुरस्कार ही होगा या उसे फंसाने का कोई षड्यंत्र आप लोग कर रहे होंगे क्योंकि बिहार की एक लड़की कथक नृत्य में पारंगत कैसे हो सकती है जिसके लिए आप जैसे बड़े भाइयों की इजाज़त जरूरी थी। पुनीता शर्मा का पति एक एन.आर.आई. इंजीनियर है और उसकी बड़ी बहन रायपुर में रहती है जिसके पति पैथोलॉजिस्ट हैं और नर्सिंग होम भी चलाते हैं जिनकी संपत्ति का पता मुझे नहीं है। मेरी समझ से श्रीमती पुनीता शर्मा के पति का अपनी जायज़ कमाई से पत्नी के नाम ज़मीन–जायदाद दिल्ली या रायपुर में खरीदना नारी अधिकार की उपलब्धि है, निन्दा का विषय नहीं। फिर पुनीता को आर्थिक अपराधी कैसे करार दिया जा सकता है। वैसे समाजवाद तो आया नहीं है जिसमें निजी संपत्ति का होना नहीं होता है।
एक बात और, महान लोग सार्वजनिक प्रतिष्ठान विशेष से निजी जीवन चलाते हैं जैसे कुछ लोग मंदिर में रहते हैं उसका अन्न खाते हैं और इसे अपनी महानता के तौर पर बतलाते होते हैं; इसके विपरीत मैं निजी आवास को सार्वजनिक बना देता हूं और निजी अन्न को सार्वजनिक अन्न के रूप में इस्तेमाल होने देता हूं तो अकूत संपत्तिवाला बन जाता हूं जिसके खिलाफ आयकर विभाग को कार्रवाई करनी चाहिए और आर्थिक अपराध शाखा को सक्रिय हो जाना चाहिए। फिर दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि आप जाने अनजाने किसकी सेवा कर रहे हैं। आप जिस वयोवृद्ध बाबा पर उंगली उठा रहे हैं उसे 1967 में ऐसा लगने लगा था कि मौजूदा अन्यायपूर्ण बूर्ज्वा सत्ता उखाड़ी जा सकती है और न्यायपूर्ण सत्ता स्थापित की जा सकती है। उस समय से अब तक वह अपनी अकूत ऊर्जा और सारी बचत को पार्टी हित में ही लगाता रहा है कि नई शक्ति की राजसत्ता स्थापित हो सके; इसलिए सोच लीजिए कि जाने–अनजाने आप किसकी सेवा कर रहे हैं।
कुछ सैद्धांतिक बातों से शुरू करूं कि भाववाद और भौतिकवाद की थोड़ी भी समझ का इस्तेमाल यदि आप लोगों ने किया होता तो किसके साथ मंच साझा करना है और किसके साथ नहीं करना है, नृत्य प्रदर्शन कहां करना है, कहां नहीं करना है; इसके बारे में वैज्ञानिक समझ साफ–साफ बना लेते। विपरीतों के सामंजस्य और संघर्ष, निषेध और नवसर्जन, उच्चतर और निम्नतर विकास इत्यादि की द्वन्द्वात्मक पद्धति के इस्तेमाल से ही नई दुनिया बनाने की तरफ बढ़ा जा सकता है। पिछली अपनी दुनिया जो सोवियत यूनियन के रूप में हमने बनाई, वह सामानांतरता की वजह से ही गिर गयी अन्यथा कोई ख्रुश्चेव या गोर्बाचेव उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता था। स्पाइरल गति से साम्राज्यवाद को पुल बनाते हुए यदि वह उससे उच्चतर हो गया होता तो दुनिया भर में नई अक्टूबर क्रांति आगे बढ़ गई होती। मृत्यु के पहले स्तालिन ने यह बात समझ ली थी, इसलिए दूसरी अक्टूबर क्रांति की आवश्यकता महसूस की थी और ज्यादा से ज्यादा व्यापार किये जाने के लेनिनवादी निर्देश को अपनी पुस्तक‘‘यू.एस.एस.आर. की आर्थिक समस्याएं’’ में उद्धृत किया था जिसे वे व्यवहार में नहीं ला पाये थे। बूर्ज्वा देशों ने दो बूर्ज्वा पार्टी व्यवस्था क्यों बनाई है। इसलिए न कि हर हाल में बूर्ज्वा व्यवस्था बनी रहे यानी शोषणकारी व्यवस्था कायम रहे। एक शासक पार्टी यदि दूसरे की आलोचना करती है तो इससे बूर्ज्वा व्यवस्था मजबूत ही होती है, कमजोर नहीं होती है और हम लोग जो सत्ता में नहीं है यदि एक दूसरे की अनावश्यक आलोचना शुरू करते हैं तो यह भ्रूण हत्या की तरह होता है क्योंकि हम इस अवस्था से आगे नहीं बढ़े हैं। हाल ही में सारकोजी की नवजनवादी पार्टी को समाजवादी पार्टी ने हरा दिया और समाजवादी पार्टी का राष्ट्रपति सरकार पर बैठ गया किंतु शोषणकारी व्यवस्था बनी की बनी हुई है।
फिर मंच साझा करने पर आता हूं कि मंगलेश डबराल को आप जैसे समझदार लोगों ने इतना घेरा कि उन्हें लगने लगा कि ‘चूक’ हो गई और ‘जनसत्ता’ में लिखित तौर पर चूक का इज़हार भी कर दिया। यदि वैज्ञानिक द्वन्द्वात्मक पद्धति के आधार पर सोचें तो मंगलेश से कोई चूक नहीं हुई। विपरीतों के मंच से यदि हम दो टूक विचार रखते हैं तो वह ज्यादा महत्वपूर्ण है बनिस्बत अपने ही दो चार लोगों के बीच अपनी बात रख कर सीना फुलाये चलना। यह एक भाववाद का शिकार होना है। हम जानते हैं कि जहां संघर्ष नहीं, टकराव नहीं वहां एकतरफापन ज्यादा होगा न कि संघषों के सामंजस्य से नया सर्जन।
वाल स्ट्रीट की दुर्दशा हुई पड़ी है और सिलिकन वैली अब तक क्यों फल–फूल रही है। सिलिकन वैली का इस्तेमाल कर कम्प्यूटर साइंस के एक अमरीकी प्रोफेसर ने दावा किया है कि सामान्यतः वह एक सेमेस्टर में चार सौ विद्यार्थियों को प्रशिक्षित करता रहा है किंतु कम्प्यूटर द्वारा प्रशिक्षण की एक नई तकनीक का इस्तेमाल करके उसने एक लाख छात्रों को प्रशिक्षित किया है जिसे पुरानी पद्धति के द्वारा पूरा करने में उसे 250 वर्ष लग जाते। ये चीजें हमारे बुद्धिजीवियों को आईना दिखाती हैं कि क्या कर रहे हो आप? किन टुच्ची चीजों में फंसे हुए हो? क्यों आत्महंता बन मोदी और मनमोहन को मजबूत कर रहे हो? यह तुम्हें पता नहीं चलता। नृत्य कलाकारों की तरह यदि आप कठिन साधना नहीं कर सकते तो कम्प्यूटर साइंस वैज्ञानिकों की नई तकनीक के इस्तेमाल से करोड़ों–करोड़ को नये बदलावकारी विचार और व्यवहार से लैस तो करो। मंगलेश डबराल हों या कोई और यदि विपरीतों के मंच से अपनी बात रखते हैं तो उच्चतर और निम्नतर की रेखा खींचते हैं। राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति और तकनीकी विकास को यदि हम समानांतर की ओर ले जाते हैं तो रिट्रीट की स्थिति पैदा होती है। इसे समझें। आज तो असमान सत्ताओं का संयुक्त युद्धाभ्यास तक चलता होता है।
उदयप्रकाश का आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार प्राप्त करना ज्यादा महत्वपूर्ण है बनिस्बत कि अपने ही भाई–बंधुओं से उसे हासिल करना। बहुत छोटी सी बात है कि अपना तो हमें सम्मानित करेगा ही, यदि विरोधी सम्मानित करता है तो सम्माननीय का महत्व बढ़ता है न कि सम्मानित करने वाले का। अब प्रश्न यह बनता है कि भाजपाई आदित्यनाथ पर आरोप लगायें कि आपने एक वाम लेखक को क्यों सम्मानित किया जबकि हम अपने को हीनतर और ग्रंथिपीड़ित समझ बैठे हैं कि जैसे अपने अस्तित्व पर खतरा देखने लगते हैं। वर्ग संघर्ष हर धरातल पर चलता है जो अलगाव में नहीं चल सकता है; विपरीतों की टकराहट और सामंजस्य से अंततः इतिहास आगे बढ़ता है; इसे समझना जरूरी है। आंखें खोलकर यदि हम अतीत को भी पढ़ें तो उदय प्रकाश का किसी भाजपाई के हाथ से पुरस्कार लेना संदिग्ध नहीं बन जाता। आज के भूमंडलीकरण के नये युग की ढलान और वित्तीय पूंजी की जारी सर्वव्यापकता के समय में इतिहास वहीं नहीं है जहां पहले था। इसलिए भाववाद के खोल से निकलकर वस्तुगत यथार्थवाद की तरफ आने की जरूरत है। विपरीत व्यक्तित्व के हाथों पुरस्कार प्राप्त कर उदय प्रकाश ने सही किया है जो द्वन्द्वात्मक पद्धति के अनुकूल है, द्वन्द्ववाद की बुनियाद में शुमार है जिसकी ओर मैंने इशारा किया है।
पुनीता शर्मा ने बिहार शताब्दी समारोह की श्रृंखला में ‘समस्त बिहार–झारखंड समाज, सूरत’ की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों जो विशिष्ट सेवा सम्मान हासिल किया है, वह गुनाह नहीं है जिसकी ओर संकेत मैंने अपनी फौरी प्रतिक्रिया में भी किया था कि पुनीता शर्मा ने नरेन्द्र मोदी को सम्मानित नहीं किया है बल्कि नरेन्द्र मोदी ने पुनीता शर्मा को सम्मानित किया है। विपरीत विचारों से सम्मानित होना ज्यादा महत्वपूर्ण है बनिस्बत समान विचार वालों से; वैसे भी राग–विराग कम्युनिस्ट संस्था नहीं है। पुनीता शर्मा भी कम्युनिस्ट नहीं है। परंपरागत नृत्य के साथ ही विषयवस्तु के धरातल पर उसने नये प्रयोग किये हैं जिसमें ‘भूख’ से लेकर नारी विद्रोह जैसी कविताएं कथक में निबद्ध की हैं। यही वजह है कि ‘हिन्दू’ में लिखित अपनी कला समीक्षाओं में लीला वेंकटरमण ने पुनीता की नयी कोरियोग्राफी और नई विषय वस्तु के कथक में समावेश के लिए कई बार प्रशंसा की है।
पुनीता शर्मा का वामेतर मंचों पर जाना मेरे लिए आलोचना का विषय नहीं बन सकता है। चीन में छह महीने तक उन्होंने हजारों दर्शकों के बीच अपनी टीम के साथ प्रदर्शन किया है। कई बार अमेरिका में जाकर प्रदर्शन किया है। देश के अंदर नॉर्थ–ईस्ट-सउथ और मध्य भारत में प्रदर्शन किया है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में नेतृत्वकारी हिस्सा लिया है जो नारी की आज़ादी का इज़हार है। बिहार के सामंती समाज से निकल कर सम्मानपूर्वक और स्वाभिमान के साथ पुनीता शर्मा का कथक प्रदर्शन करना आलोचना का विषय यदि बनता है तो हमारी समझदारी पर प्रश्नचिह्न लगता है।
सूरत में नृत्य करते हुए कथक नृत्यांगना पुनीता शर्मा के पीछे बैठे नरेन्द्र मोदी की ओर इशारा तो आप कर देते हैं लेकिन हजारों की संख्या में सामने बैठे दर्शकों का सम्मानपूर्वक उल्लेख करना जरूरी नहीं समझते जो नृत्य खत्म होने पर पुनीता का आटोग्राफ लेने के लिए उमड़ पड़ते हैं। पुनीता के नृत्य के दौरान मनोज तिवारी और दर्शक लगातार झूमते होते थे, इस पर आपका ध्यान नहीं जाता। नृत्य की गुणवत्ता पर यदि आप ध्यान देते तो भूल जाते कि किसके हाथों से नृत्यांगना को सम्मानित किया गया। पुनीता जैसे कलाकार के लिए हजारों दर्शकों की मंत्रमुग्धता ऊर्जा देती है न कि अन्य कोई कारक जो आपके लिए महत्वपूर्ण बन जाता है। मैं सनातनी नहीं हूं, ब्राह्मणवादी नहीं हूं, मनुवादी नहीं हूं और तालिबानी नहीं हूं कि अपने रिश्ते का इस्तेमाल कर पुनीता शर्मा की आज़ादी पर अंकुश लगाऊं, इसलिए जो लोग ऐसी अपेक्षा करते हैं वे न तो मुझे जानते हैं न ही मेरे परिवार को जो आज की तारीख में एक अंतरराष्ट्रीय परिवार है जिसे मैं किसी एक क्षेत्र, जाति या धर्म या विचारधारा में बांधने की गैर-जनतांत्रिक प्रक्रिया नहीं अपनाऊंगा। जो काम मैं कर रहा हूं उसमें मेरे नजदीकी दोस्त मुझे थोड़ी देर के लिए कष्ट पहुंचा सकते हैं; राजनीतिक तौर पर जिस घोषित रास्ते पर 1967 से चल रहा हूं और नया से नया जहां जो हासिल हो रहा है उसे अपने पक्ष के लिए मुहैय्या करा रहा हूं, कराता रहूंगा। ‘जनपथ’ दुर्जनपथ यदि हो जाता है तो इस पर अभिषेक सोचें और उनके साथी संगी भी।
बच्चे कभी–कभी बूढ़ों के सिर पर पेशाब कर देते हैं तो वे उन्हें जमीन पर पटक तो नहीं देते। इसलिए आप सब को माफी मांगने के लिए मजबूर करने के बजाय खुद आप सबको माफ कर दे रहा हूं।
शिवमंगल सिद्धांतकर
नोट: आपके द्वारा उठाये गये बहुतेरे अन्य प्रसंगों पर भी मुझे बहुत कुछ कहना था जिन्हें लिखकर मैं दूसरों को कठघरे में खड़ा करना नहीं चाहता। यदि आप अदालत बैठाते हैं तो मैं हाजिर होकर बहुत कुछ कहने–सुनने के लिए तैयार हूं, बशर्ते कि संबंधित सभी विभूतियां उपस्थित हों और कुछ स्वतंत्र लोग भी।
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बाबा की मेज़ पर मोदी की शील्ड