जितेन्द्र कुमार
चुनाव विश्लेषक और राजनीतिशास्त्री प्रोफेसर योगेन्द्र यादव हर चुनाव के बाद अक्सर टीवी पर बैठकर कहते हैं कि लोकतंत्र की जड़ें लगातार गहरी होती जा रही हैं (डीपेनिंग डेमोक्रेसी)। क्या योगेन्द्र यादव इसलिए यह बात कहते हैं क्योंकि लोकसभा और विधानसभाओं में (राज्यसभा और विधान परिषदों में नहीं) पिछड़ों की संख्या (दलित-अनुसूचित जाति और जनजाति तो उतने ही हैं) में लगातार बढ़ोतरी हो रही है? लेकिन अभी आंबेडकर के कार्टून को लेकर जिस तरह के विवाद हो रहे हैं, क्या उससे लगता है कि सचमुच भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी हो रही हैं या सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व के नाम पर एकांगी लोकतंत्र का ही विकास हो रहा है, जिसमें सभी तरह के विचार, व्यवहार, असहमति और बौद्धिक आज़ादी के लिए असहिष्णुता बढ़ रही है। या फिर कोई और बात है जो योगेन्द्र यादव जैसे विद्वानों को यह कहने के लिए प्रेरित कर रही है। लगता है कि प्रोफेसर यादव को अब पता चल रहा होगा कि वह जो कह रहे थे, उनका आकलन उतना सही नहीं था।
अगर सचमुच लोकतंत्र इतना ही मज़बूत हो गया है या हो रहा है तो क्या कारण है कि 1949 के बनाए मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर के उस एक कार्टून पर इतना बड़ा बखेड़ा हो जाए और लगभग छह साल पहले एनसीईआरटी की किताब में रीप्रिंट करने के लिए एनसीईआरटी के सलाहकार द्वय सुहास पलशिकर और योगेन्द्र यादव जैसे प्रबुद्ध विद्वानों को अपनी गरिमा बचाने के लिए इस्तीफा देना पड़े?
इसी कार्टून से शुरू हुआ है विवाद |
परेशानी का कारण यह नहीं है कि कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों ने इस मुद्दे को सबसे ज्यादा जोर-शोर से उठाया। लोगों को शायद इसकी जानकारी नहीं है कि इन दोनों पार्टियों ने बाबा साहब के ‘सम्मान’ में क्या-क्या किया है। जब बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का 1956 में दिल्ली के अलीपुर रोड में निधन हुआ था, तो पंडित जवाहरलाल नेहरू दिल्ली में मौजूद थे, लेकिन उनके पार्थिव शरीर पर फूल तक चढ़ाने नहीं गए थे। जबकि भाजपा ने अपनी पितृ संस्था आरएसएस के साथ मिलकर 6 दिसंबर को यानी ठीक उसी दिन बाबरी मस्जिद ढहा दी थी जिस दिन बाबा साहब का महानिर्वाण हुआ था। 6 दिसंबर के दिन पूरे देश के दलित बड़ी श्रद्धा के साथ बाबा साहब को याद करते हैं। जिस 6 दिसंबर के दिन बाबरी मस्जिद ढहाई गई, उस दिन को संघ और उग्रपंथी हिन्दू राष्ट्रवादी दल विजय दिवस के रूप में मनाते हैं। बाबा साहब का महानिर्वाण दिवस अब ‘विजय दिवस’ के रूप में तब्दील कर दिया गया है।
इसी तरह जब पिछले शुक्रवार को उस तथाकथित विवादास्पद कार्टून को लेकर हंगामा हो रहा था तो उसमें लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल थीं। इसमें समाजवादी पार्टी के उपनेता शैलेन्द्र कुमार भी थे, जिनकी पार्टी के मुख्यमंत्री ने अभी लगभग दो महीने पहले ही सत्ता संभाली है। लेकिन 14 अप्रैल को उन्होंने आंबेडकर जयंती पर बाबा साहब की प्रतिमा को फूल-माला भी पहनाना मुनासिब नहीं समझा। जबकि यह मामला प्रोटोकॉल का भी बनता है (कल्पना कीजिए कि केन्द्र में भाजपा या किसी अन्य पार्टी की सरकार हो और प्रधानमंत्री 14 नवबंर को नेहरू की प्रतिमा पर फूल चढ़ाने न जाएं…)।
इसलिए मुझे उन राजनीतिक दलों से बहुत परेशानी नहीं हुई क्योंकि लगभग सभी दलों के इतने ‘मुख और मुखौटे’ हैं कि परेशानी हो भी तो किस बात पर। लेकिन किसी को भी सबसे ज्यादा परेशानी मुख्यधारा के वामपंथी दलों और उनके समर्थित बुद्धिजीवियों से होनी चाहिए। ये वही लोग हैं जिन्होंने जाधवपुर विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा द्वारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कार्टून फेसबुक पर जारी करने के बाद ममता बनर्जी की फजीहत कर दी थी। इतना ही नहीं, पिछले साल जब एमके रामानुजन के शोधपत्र ‘थ्री हंड्रेड रामायणः फाइव इक्जाम्पल एंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन’ को दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउंसिल ने यह कहते हुए पढ़ाने से रोक दिया था कि इससे हिन्दू धर्म का अपमान होता है, तो अकादमिक लोगों के अलावा तमाम वामपंथी दल भी इसके खिलाफ खड़े हो गए थे। उन लोगों का कहना था कि अगर विद्यार्थियों को आलोचनात्मक रूप में पढ़ने की आदत नहीं डालेंगे तो उनका विकास कैसे हो पाएगा। इसी तरह संघ और भाजपा के लोग जब दिवंगत चित्रकार एमएफ हुसैन के ऊपर लगातार हमला कर रहे थे तो देश में बुद्धिजीवियों के अलावा सिर्फ वामपंथी दल ही उनके साथ खड़े थे।
लेकिन आज वही वामपंथी दल आंबेडकर के कार्टून को लेकर अकादमिक स्वतंत्रता की धज्जियां उड़ा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में बुद्धिजीवी इसलिए तो महापात्रा के पक्ष में खड़े दिखाई नहीं पड़े क्योंकि उन्होंने ममता बनर्जी का कार्टून बनाया था, जो उनके प्रतिद्वंद्वी हैं? आखिर क्या कारण है कि वामपंथी पार्टियां भी ‘अकादमिक आलोचना’ को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है? या फिर क्या कारण है कि वे लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि कार्टून और व्यंग्य जैसी विधा स्वस्थ्य लोकतंत्र की निशानी है?
योगेन्द्र यादव |
यह कार्टून विवाद वामपंथी दलों के दोहरे चरित्र की गवाही दे रहा है या कहें इस कार्टून के बहाने वामपंथी प्रोफेसर योगेन्द्र यादव से अपना बदला चुका रहे हैं, जो सोचते हैं कि योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषण के दौरान वामपंथी और तथाकथित तीसरे मोर्चे के नेताओं के लिए कुछ ज्यादा ही आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं! क्या यह नहीं हो सकता कि योगेन्द्र यादव सोचते हों कि कांग्रेस और भाजपा से तो होना-जाना कुछ भी नहीं है, अगर समाज में थोड़ा भी परिवर्तन होना है तो इन्हीं लोगों और दलों से होना है, इसलिए उनकी सार्थक आलोचना से वे दल और लोग बेहतर हो सकते हैं!
इस कार्टून को लेकर दलितों में भी जिस तरह का विरोध दिख रहा है, उसमें यह हो सकता है कि जिस असहिष्णु समाज को दलितों ने सदियों से झेला है, अपनी असहमतियों को दर्ज कराने के लिए उसी ब्राह्मणवादी असहिष्णुता की नकल करना दलितों की स्वाभाविक परिणति हो!
बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था, “आत्मा की शांति के लिए भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में व्यक्ति पूजा या भक्तिभाव देश को पतन और तानाशाही की ओर ले जाता है।”
गौर करने वाली बात है कि यह कार्टून विवाद बाबा साहब की गरिमा को बचाने का प्रयास है या खुद आंबेडकर और उनके विचारों की ही मुखालफत है।
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