मैं बनारस में क्यों हूं, मुझे नहीं पता। मैं नहीं होता तो भी यह चुनाव ऐसे ही चलता, ऐसा ही दिखता जैसा दिख रहा है। मैंने कोशिश की कि इस सब झंझट से खुद को दूर रखूं, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। दरअसल, एक धोखा, एक परदा होने के बावजूद चुनाव का मौसम होता तो अच्छा ही है चूंकि कई परदे अनायास गिर जाते हैं। कई गिरा दिए जाते हैं। पीछे का मंज़र सामने आता है और जनता का मनेारंजन होता है। मैंने सोचा कि क्यों न अपना भी मनोरंजन कर लिया जाए, लेकिन महती जि़म्मेदारी के सतत भार से इस बार भी खुद को बचा न सका।
बावजूद इसके कि तमाम कैमरे लंका से दशाश्वमेध तक बनारस में अपने-अपने ट्राइपॉड पर निश्चल और अहर्निश खड़े हैं, वे पुरज़ोर कोशिश कर के भी बरसों से निश्चल खड़े इस शहर की तासीर को पकड़ नहीं पाए हैं। ज़ाहिर है, वे ऐसा करने आए भी नहीं थे। उन्हें जो करना है, वे कर रहे हैं। हमें न ये करना था, न हम करेंगे।
हम ज्यादा से ज्यादा ये कर सकते हैं कि जो रिपोर्ट नहीं किया जा रहा, जो कैमरों के अत्याधुनिक लेन्स की सीमा से बाहर की बात है, उसे दिखा सकें। इसके लिए सिर्फ कान खुले रखने हैं और नज़रें चौकस। बिल्कुल घाट पर बैठे उस श्वान की तरह जो दरअसल दिखता तो साधनारत है, लेकिन जिसकी इंद्रियां लगातार अपने परिवेश के प्रति ग्रहणशील बनी रहती हैं। ‘ग्रेपवाइन’ का अर्थ भी यही है- देखा और सुना, जिसमें स्रोत की विश्वसनीयता का मसला नहीं है।
आगामी 5 मई से 11 मई तक यानी हफ्ता भर जनपथ पर आप कुछ आंखों देखे मंज़र और कानों सुने किस्से पढ़ कर अपना मनोरंजन और ज्ञानवर्धन कर सकते हैं। नहीं पढ़ेंगे तो कोई नुकसान नहीं होगा, इसकी गारंटी है।
डिसक्लेमर यह है कि पात्रों के नाम असली होंगे, किस्से भी असली होंगे और लोकेशन भी। यह कवायद किसी की भावना को चोट पहुंचाने के लिए नहीं है। न इसमें राजनीति है, न अर्थनीति।
यह विशुद्ध मनोरंजन है, बिल्कुल इस बार के चुनावों की तरह।
tumhaara intazaara hi….