अभिषेक श्रीवास्तव
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जनसत्ता का संपादकीय पृष्ठ |
बहरहाल, जिन्होंने यह लेख नहीं पढ़ा है, उनकी सहूलियत के लिए जल्दी से इस लेख के प्रकाशित वाक्यों पर एक संक्षिप्त बिंदुवार नज़र डाल लेते हैं।
1. हिंदू शास्त्रीय निर्देशों को भारत की वर्तमान न्याय-प्रणाली में कोई मान्यता नहीं है! इसीलिए हमारे न्यायाधीशों और बुद्धिजीवियों को भारतीय शास्त्र जानने की कभी जरूरत महसूस नहीं होती।
2. यह दुर्भाग्यपूर्ण और पूरे विश्व में अपूर्व स्थिति है कि किसी देश के न्यायकर्मियों, बुद्धिजीवियों को अपनी ही विधि-परंपरा की जानकारी न हो! बल्कि जब चाहे, उसकी हंसी उड़ाना आधुनिक होने का लक्षण माना जाता हो। जबकि विदेशी कानूनों को अपने लिए प्रामाणिक मान लिया गया हो। एक ही गांव में या समान-गोत्र में विवाह के प्रसंग में वही हो रहा है।
3. भारत का राष्ट्रपति भारत के धर्म का संरक्षक नहीं है। मगर वह कथित अल्पसंख्यकों के मजहबों का अधिकृत संरक्षक है! यह विचित्र स्थिति पूरी दुनिया में और कहीं नहीं।
4. यह अन्याय दोहरा-तिहरा है। क्योंकि एक मजहब के पैगंबर के जीवन-व्यवहार को उसके अनुयायियों के लिए इसी देश में कानून का दर्जा हासिल है! पर हिंदुओं के शास्त्रीय विधान को ऐसी कोई वैधता नहीं है। क्या कोई हिंदू मांग कर सकता है कि जो भगवान राम या कृष्ण ने किया था, उसे हमारे लिए कानून समझा जाए, जैसे पैगंबर मुहम्मद के कार्य को समझा जाता है? उस तर्क से आततायियों, व्यभिचारियों का वध करना हर हिंदू का अधिकार है, क्योंकि यही हिंदू धर्म-परंपरा है।
5. हरियाणा या उत्तर प्रदेश के ग्रामीण बुजुर्ग जो करते हैं, वह शास्त्रीय दृष्टि से उचित है। चाहे विदेशी प्रभाव में उसे कितना ही निंदित क्यों न किया जाए।
6. सगोत्र विवाह ही नहीं, एक गांव के किसी लड़के-लड़की का आपसी विवाह भी हिंदू परंपरा में नहीं है। यह सर्वविदित भी है। ऐसे प्रेम-विवाहों के विरुद्ध खाप पंचायतों की नाराजगी पर नाराज होने वालों को भी कभी ठहर कर सोचना चाहिए।
7. मगर खाप पर रंज होने का ऐसा फैशन चल पड़ा है कि उसकी भावना पर कोई सोचता ही नहीं।
8. शास्त्र और लोक, दोनों ही एक गांव के लड़के-लड़की की शादी को अमान्य करते हैं। इसलिए खाप कोई गलती नहीं कर रही है।
9. हिंदू धर्म में विवाह कोई निजी मामला नहीं, एक सामाजिक-धार्मिक कार्य है। इस्लामी शादियों की तरह यह कोई द्वि-पक्षीय ‘व्यावहारिक’ समझौता नहीं। किसी प्राइवेट बिजनेस डील से अलग हिंदुओं में विवाह जीवन के सोलह धर्म-संस्कारों में से एक है।
10. अत: खाप की स्थिति को हिंदू दृष्टि से देखना जरूरी है। विदेशी, व्यक्तिवादी या निरी कानूनी दृष्टि से उन पर रंज होना उचित नहीं।
उपर्युक्त वाक्यों के बीच-बीच में लेखक ने वे संदर्भ दिए हैं जिनसे सगोत्र विवाह वर्जित साबित होता है। इन संदर्भों के नाम देखें: याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति, आपस्तंब धर्मसूत्र, विष्णु धर्मसूत्र, वशिष्ठ धर्मसूत्र, बौधायन धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति, विष्णु स्मृति और पराशर स्मृति। इनके अलावा शंकर शरण अपनी बात के समर्थन में दो कानूनी मामले गिनाते हैं जो 1888 और 1908 के हैं। उनका कहना है कि ‘भारत की जिस परंपरा को ब्रिटिश सत्ता की अदालत भी मानती थी, उसे भारतीय सत्ताधीशों ने अमान्य कर दिया।’ (यह सब वेबसाइट से जस का तस उठाया गया है)
शंकर शरण के लेखन से जो लोग परिचित हैं, वे यही कहेंगे कि उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है। इसलिए लेखक ने तो जो किया, सो किया। किसी लेखक के मूढ़, प्रतिगामी, पोंगापंथी, खाप समर्थक और नकलची होने का किया भी क्या जा सकता है? लेकिन, चूंकि जनसत्ता ने यह लेख छापा है और अखबार में छपे शब्द व विचार का उसके पाठकों से लेना-देना होता है, इसलिए सवाल अखबार और उसके संपादक पर हैं। वेबसाइट से उड़ाई गई बेनामी सामग्री और लेख की मौलिकता को किनारे रख दें, तो कुछ बुनियादी वैचारिक सवाल अखबार और उसके संपादक से बनते हैं जो मैं नीचे दे रहा हूं:
1. यह लेख क्या सोच कर छापा गया? क्या इसे संपादक की स्वतंत्रता और ‘आवाजाही के हक़’ में ओम थानवी की ‘लोकतांत्रिक’ वैचारिकी का परिणाम माना जाए? (जैसा कि मंगलेश डबराल और विष्णु खरे के प्रकरण में ओम थानवी लंबे ‘अनंतर’ के माध्यम से स्पष्ट कर चुके हैं)
2. क्या अखबार और उसके संपादक खाप के समर्थन में हैं और वास्तव में ‘खाप की भावना’ के हमदर्द हैं? यदि नहीं, तो ऐसा कौन सा विचार है जो दर्जनों हत्याओं की जि़म्मेदार एक संस्था को सहानुभूति से देखने का आवाहन करने वाला लेख छापने के लिए उन्हें बाध्य/कनविंस करता है?
3. क्या अखबार और उसके संपादक को हिंदू विवाह से जुड़े भारतीय कानूनों पर विश्वास नहीं है? यदि है, तो ‘लॉ ऑफ दि लैंड’ के बाहर जाकर यह वाक्य छापने का क्या मंतव्य माना जाए: ”वस्तुत: यह स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों की दोहरी जबर्दस्ती थी। उन्होंने एक देश में एक नागरिक कानून की संवैधानिक भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए मुसलिम पर्सनल लॉ को तो रहने दिया, जबकि हिंदू नियमों को मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा। इसमें न शास्त्रों का आदर रखा गया न लौकिक परंपरा का।”
4. क्या जनसत्ता और उसके संपादक भी मानते हैं कि ”हरियाणा या उत्तर प्रदेश के ग्रामीण बुजुर्ग जो करते हैं, वह शास्त्रीय दृष्टि से उचित है।” यदि नहीं, तो इस वाक्य को छापने का मंतव्य क्या है?
5. ”खाप कोई गलती नहीं कर रही है”, क्या लेखक के इस विचार से अखबार इत्तेफ़ाक़ रखता है? यह ज़रूरी है क्योंकि इस वाक्य को छापने का अर्थ होगा अब तक खाप द्वारा की गई प्रेमी युगलों की हत्या को जायज़ ठहराना।
6. ”आततायियों, व्यभिचारियों का वध करना हर हिंदू का अधिकार है, क्योंकि यही हिंदू धर्म-परंपरा है”। ”आततायी, व्यभिचारी” कौन है? चूंकि हिंदू विवाह नियमों को लेख में मुस्लिम पर्सनल लॉ के बरक्स रखकर दलीलें दी गई हैं, लिहाज़ा क्यों न माना जाए कि उपर्युक्त शब्द मुसलमानों और सामान्य तौर पर सभी अहिंदुओं के लिए लिखे गए हैं? इसका राजनीतिक निहितार्थ यह बनता है कि भारत में अब तक हुए सभी अल्पसंख्यक विरोधी नरसंहार जायज़ हैं। क्या अखबार और उसके संपादक इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं? यदि नहीं, तो क्या उन्हें लेख के उक्त वाक्य के सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील होने का अंदाज़ा नहीं था? यदि था, तो इसे क्यों छापा गया?
सवाल और भी बनते हैं। लेख की हर पंक्ति सवालों के घेरे में है और उतनी ही बार अखबार और उसके संपादक भी सवालिया घेरे में आ जाते हैं। जनसत्ता की संपादकीय और वैचारिक परंपरा के विरुद्ध छपा यह आलेख आज इस अखबार को उसी कठघरे में खड़ा कर रहा है जो स्थिति आज से ठीक 25 साल पहले सती रूप कुंवर के मामले में बनी थी। उस वक्त सती को महिमामंडित करता हुआ संपादकीय छापने के खिलाफ सौ एक लेखकों ने जनसत्ता का बहिष्कार किया था, जिसके बाद प्रभाष जोशी ने सारा दायित्व अपने ऊपर लेकर संपादकीय लेखक बनवारी को बरी कर दिया था। इस घटना के 19 साल बाद 30 नवंबर 2006 को जनसत्ता के उसी संपादकीय पन्ने पर श्रीभगवान सिंह ने सती के बहाने पुरानी विवाह परंपरा की प्रासंगिकता के पक्ष में लिखा। 1987 के संपादकीय विवाद के अलावा जनसत्ता ने कभी सचेत रूप से ऐसे विचारों और मूल्यों का समर्थन नहीं किया था। श्रीभगवान सिंह के मामले में भी यह कहना संभव नहीं था कि उनके विचार जनसत्ता के विचार हैं क्योंकि वह ‘दुनिया मेरे आगे` में छपा था जो संस्मरणात्मक होता है। लेकिन शंकर शरण का लेख न तो संस्मरणात्मक है, न ही उसे किसी संपादकीय गलती के खाते में डाला जा सकता है क्योंकि जनसत्ता में संपादकीय पृष्ठ पर एक ही राजनीतिक लेख छपता है, लिहाज़ा वह निगरानी के कई स्तरों से होकर गुज़रता है। सवाल है कि क्या यह लेख कोई वितंडा खड़ा करने के उद्देश्य से छापा गया है? क्या इस बार का लेख, जो एक साथ नरेंद्र मोदी से लेकर खाप तक इस लोकतंत्र के सभी हत्यारों को हिंदू धर्मग्रंथों की आड़ में ज़मानत दे देता है, सती वाले संपादकीय से कई गुना ज्यादा ख़तरनाक नहीं है? क्या जनसत्ता के सुधी पाठकों को इस पर अखबार और उसके संपादक ओम थानवी की ओर से स्पष्टीकरण की उम्मीद नहीं करनी चाहिए?
जनसत्ता को अपने बचे-खुचे पाठकों को बनाए रखने के लिए यह महती जि़म्मेदारी निभानी ही होगी। यदि ओम थानवी इस लेख पर अखबार का पक्ष नहीं रखते हैं, तो एक बार फिर सन् 1987 की तरह सौ नहीं, तो दस लेखक-पाठक ही सही, अखबार का बहिष्कार करने को विवश होंगे।
एक समय सती परम्परा का समर्थन कर चुका जनसत्ता आज खाप के पक्ष में लेख छाप रहा है तो किमाश्चर्यम?
सम्पादकीय नियमित तौर पर अशोक कुमार पांडे से लिखाया जाना चाहिए ,या फिर वागीश सारस्वत जैसे अशोक के मित्रों से ,और बदले में इन्हें मोटा पारिश्रमिक देना चाहिए |
अभिषेक जी , मुझे तो लगता है यह लेख का प्रकाशित होना नीरी संपादकीय लापरवाही है .
जनसत्ता का मैं भी बहिष्कार करता हूँ.
पर, सवाल ये भी तो है कि जनसत्ता आखिर के कितने संस्करण निकलते हैं और उसे गिनती के कितने लोग पढ़ते हैं? तो फिर नोटिस ही क्यों लिया जाए?
तथाकथित संपादक और खाप-पंचायत एक ही थैले के चट्टे बट्टे हैं यह अब पूरी तरह सिद्ध हो गया है!
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
इस मुद्दे पर मैं आपसे सहमत हूँ अभिषेक जी। मैंने अभी पूरा वक्त लगाकर शंकर शरण का वह आलेख पढ़ा . …और उसके बाद अब तक हुए पत्राचार को भी। 'जनसत्ता ' द्वारा (क्योंकि कोई भी अखबार अपने अस्तित्व का अंतत: प्रतिनिधित्व सम्पादक को ही सौंपता है) आपके उत्तर में दिए गए तर्क -' विश्वास रखें, ऐसा मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ करता हूँ। और इसी ज़िम्मेवारी और दरियादिली के चलते किसी "खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिंदू आतंकी" का लेख भी छाप दे सकता हूँ, बशर्ते उसमें कुछ ऐसा हो जो छपने के लायक़ हो।' के तर्क से स्वयं शंकर शरण 'खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिन्दू आतंकी' सिद्ध हो जाते हैं।
लेकिन 'जनसत्ता ' का पुराना पाठक होने के कारण इसके कई विरोधाभासों को मैं जानता हूँ। सिर्फ दिवराला की रूप कुंवर सती प्रकरण या आपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद जनरल सुन्दर जी को सतश्री अकाल का सम्पादकीय और सफ़दर हाशमी की शहादत के वक्त चले राम बहादुर प्रकरण के प्रसंग ही नहीं, अगर इसके आर्काइव को उलटा-पलटा जाय तो बहुतेरे ऐसे उदाहरण मिलेंगे। लेकिन दूसरी तरफ इसी 'जनसत्ता' में ए . के . रामानुजन का भारतीय न्याय प्रणाली पर वह लेख भी अनूदित होकर छपा था, जिसमें उन्होंने शंकर शरण से ठीक विपरीत निष्कर्ष न्यायालयों के बारे में निकाले थे। उनके अनुसार भारतीय संविधान (भारतीय दंड संहिता ) भले ही ब्रिटेन या पश्चिम से ली गयी हो, लोकतांत्रिक ढांचों और संस्थानों की तरह, लेकिन वह हमेशा हिन्दू धर्म के पूर्व आधुनिक 'विधिनांगों' द्वारा ही संचालित होती रही है। ( अभी हाल में अयोध्या के बारे में किये गए फैसले को ही आप देख सकते हैं।) स्पष्ट है कि जब वे 'विधिनांगों' का उल्लेख कर रहे थे तो उन्हें स्मृति ग्रंथों का पूरा ध्यान रहा होगा, जिनमें से कुछ का सन्दर्भ शंकर शरण ने अपने लेख में किया है। (हांलाकि शायद वह कहीं से 'ज्यों का त्यों ' उठाया गया है और जिसके बारे में 'जनसत्ता ' ज़रा-सा 'डिफेंसिव' है।) सब जानते हैं कि हिन्दू धर्म के अधिकतर 'विधिनांग' स्मृति ग्रंथों या ब्राह्मण ग्रंथों में ही बनाए गए हैं। लेकिन शंकर शरण होशियारी के साथ ऐसे स्मृति ग्रन्थ के सर्वोच्च प्रतिनिधि -'मनु स्मृति' का ज़िक्र छोड़ देते हैं, जो कट्टर हिंदुत्ववादियों के मनोविज्ञान को समझने का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
आपके द्वारा उठाये गए प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और 'जनसत्ता' को ऐसे 'विचारों' से अपनी दूरी बढाते रहना चाहिए। (लेकिन संचार माध्यमों ही नहीं , समूचे सत्ता-तंत्र की साम्प्रदायिक जातीय संरचना को देखते हुए क्या यह संभव लगता है?)