गुजरात की सरकार पिछले कई दिनों से एक विज्ञापन कर रही है जिसमें परदे पर अमिताभ बच्चन कहते हैं, ”जिसने कच्छ नहीं देखा, उसने कुछ नहीं देखा”। आप अमिताभ बच्चन और नरेंद्र मोदी की आलोचना करने को आज़ाद हैं, लेकिन विज्ञापन में वाकई दम है। ये एक अलग बात है कि विज्ञापन देखने के बाद मैंने कच्छ यात्रा का मन नहीं बनाया, बल्कि कच्छ के रण में घूमने की योजना करीब तीन साल पहले देव बेनेगल की फिल्म ”रोड, मूवी” देखने के कारण बनी।
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ऐसा ही दिखता था ‘रोड मूवी’ में अभय देओल का ट्रक |
सात जनवरी की सुबह गुजरात के साबरमती स्टेशन पर उतरने के बाद सीधे वहां से निकल पड़ने को मन हो रहा था, हालांकि मुझे करीब पांच घंटे इंतज़ार करना पड़ा। मेरे साले साहब का ऑफिस था एक बजे तक, जिनके साथ बाइक से मुझे सफ़र करना था। करीब डेढ़ बजे हम अहमदाबाद की चौड़ी सड़कों से होते हुए साणंद की ओर निकले, जहां टाटा कंपनी ने नैनो की फैक्ट्री लगाई है। मोबाइल के स्क्रीन पर गूगल मैप और नोकिया मैप लगातार खुले हुए थे। आगे जाकर रास्ता चौड़ा हो गया और कुछ-कुछ हॉलीवुड फिल्मों का आभास देती रेल की पटरी सड़क के समानांतर चलने लगी। करीब 35 किलोमीटर हाइवे पर चलने के बाद हमें बाएं जाना था, जहां पहला रिहायशी इलाका था विरमगांव।
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घुघरा: बाहर से गुझिया, भीतर से समोसा |
यहां की अधिकांश आबादी मुस्लिम है। यहां ठहर कर एक ठेले पर हमने दाबेली और घुघरा का स्वाद लिया। दाबेली को आप बर्गर का कच्छी संस्करण मान सकते हैं। इसका आविष्कार कच्छ के मांडवी जि़ले में हुआ था, और दिल्ली के छोले-कुल्चे की तरह ये आज पूरे गुजरात की लाइफलाइन बना हुआ है। ब्रेड पकोड़े, दाबेली, घुघरा और वड़ा पाव सबमें मीठे का स्वाद आया, तो हम समझ गए कि कच्छ करीब है। हालांकि अब भी नमक बनाने वालों के गांव और रण के इलाके से हम साठ किलोमीटर दूर थे। करीब पैंतालीस मिनट में फुलकी और पाटड़ी होते हुए हम उस गांव के साइन बोर्ड के सामने पहुंचे, जिसकी खोज मैंने तीन दिन पहले ही गूगल पर की थी।
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खारा बच गया, घोड़ा भाग गया |
अगर कभी आपने कोई इलाका नक्शे पर देखा हो, वहां जाने की इच्छा की हो और अगले ही पल खुद को वहां पाया हो, तो आप उस सुख का अहसास कर सकेंगे जो मुझे अहमदाबाद से करीब 120 किलोमीटर दूर यहां पहुंच कर मिल रहा था। ये था खाराघोड़ा। नमक बनाने वालों का गांव। करीब दसहज़ार की आबादी है इस जगह की। पहले अहमदाबाद जि़ले में ही आता था, अब सुरेंद्रनगर जि़ले का हिस्सा है। गांव में घुसते ही आपको नमक के पहाड़ दीख जाते हैं। छोटे-बड़े पहाड़ और उनमें काम करते मजदूर। स्कूल बंद। सड़कों पर सन्नाटा। ग्राम पंचायत का दफ्तर भी बंद। तेज़ धूप और राहत भरी हवा के बीच हम नमक से पटे हुए रास्ते पर बाइक दौड़ाते रहे। अधिकांश मुस्लिम आबादी वाला एक छोटा सा इलाका पार करने के बाद आगे खुला मैदान था और दूर क्षितिज पर समुंदर दिख रहा था। हमने गति बढ़ा दी।
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कच्छ के छोटे रण में ऐसे हुआ अंधेरा |
शाम हो रही थी, सूरज नीचे ढल रहा था और समुंदर चमकदार होता जा रहा था। बीच-बीच में एकाध ट्रक दिख जाते थे धूल उड़ाते, वरना चारों दिशाएं सुनसान थीं। इसी तरह हम करीब बीस मिनट चलते रहे। रास्ता खत्म नहीं होता था और समुंदर चमकदार होता जाता। बीच में सोचा कि ढलते सूरज की एकाध तस्वीरें उतार ली जाएं। मोटरसाइकिल खड़ी की और अंगड़ाई ली, तो देखा कि अपने पीछे जो आबादी हम छोड़ आए थे, वो ओझल हो चुकी थी।उसकी जगह एक विशाल और चमकदार समुंदर दिख रहा था।
पहले तो कुछ समझ में नहीं आया। फिर लगा कि शायद हम दूर निकल आए हैं। रण की फटी हुई धरती और डराने वाली हवा की आवाज़ के बीच सिर्फ मैं और मेरा साला। चारों ओर के क्षितिज पर चमकदार समुंदर। हमने दिमाग नहीं लगाया। चुपचाप तस्वीरें खींचीं, पानी पिया और फिर एक्सीलेटर दबा दिया। ये अलग बात है कि समुंदर को लेकर एक आशंका ज़रूर मन में घर कर गई थी,फिर भी इस तर्क में दम था कि अगर यही रण है, यहीं नमक है तो समुंदर भी सामने ही होगा। अगर आधे घंटे बाद एक झोंपड़ा न आया होता तो सच मानिए, गाड़ी का तेल खत्म हो जाता समुंदर की आस में।
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अनंत तक फैली कच्छ की धरती |
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लालजी का मोबाइल जिसे चार्ज करने 12 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है |
झोंपड़े के बाहर एक नौजवान खड़ा था। तर्कबुद्धि ने काम किया। हमने उससे समुंदर की दूरी पूछी। वो मुस्कराया। गुजराती में उसने जो कुछ भी कहा, उसका एक ही मतलब समझ में आया कि आगे समुंदर नहीं है। बात आगे बढ़ी, तो एक अर्थ और निकला कि आगे पाकिस्तान की सीमा है और बीएसएफ की चौकी है। हिंदी और गुजराती के संघर्ष में तीसरा अर्थ यह निकला कि अगर अब हम लौटे तो रास्ता भूल जाएंगे क्योंकि रण में सूर्यास्त के बाद रास्ते गुम हो जाते हैं। चौथा अर्थ हमने खुद निकाल लिया- रात इसी झोंपड़े में बितानी है।
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बच्चों के साथ लालजी की घरवाली |
तो लालजी नाम है नौजवान का, जिसके झोंपड़े में हमें रात बितानी है। वो अपनी पत्नी, तीन बच्चों और मां-बाप के साथ यहां रहता है। बाप-बेटा दोनों नमक मजदूर हैं। इनके पूर्वज भी नमक बनाते थे। परिवार में सबसे हमारी मुलाकात कराई गई। आतिथ्य सत्कार किया गया एक काले पेय से, जिससे हम ब्लैक टी कहते हैं। पीने पर मामला कुछ नमकीन टाइप लगा। हमने पूछा, इसमें नमक पड़ा है क्या। लालजी ने कहा, ”ना, पानी में मीठू है।” रण के पानी में अगर मीठू है, तो फिर चाय नमकीन कैसे…? हमने लालजी से पूछा। लालजी के पिता कुछ-कुछ हिंदी बोल लेते हैं। उन्होंने ठहाका लगाया और कहा, ”यहां के पानी में मीठू होता है, इसीलिए चाय ऐसा लगता है।”
क्या आपको ये जवाब समझ में आया… नहीं? कच्छ के छोटे रण में मीठा-मीठू के इस खेल का दर्दनाक सच खुलेगा अगले अध्याय में।
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कच्छ का काला जादू: अंदर मीठू, बाहर नमकीन |
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यही रास्ता धौलावीरा तक जाता है?
दिलचस्प…
राहुल जी, ये रास्ता सीधे पाकिस्तान में घुस जाता है। धौलावीरा यहां से करीब सवा पांच सौ किलोमीटर दूर है। उसके लिए ढाई सौ किलोमीटर दूर भुज जाना होगा, फिर वहां से करीब 300 किलोमीटर और चलना होगा।
रोचक फीचर है । मेरे मोहल्ले में भी नमक बनता है । नमक बनानेवाले यहाँ मीठगर कहते हैं। बहुत अच्छा विवरण है और तुम अच्छी तरह बधाई के पात्र हो।