स्मृति सिंह |
मेरी माँ ने एक बार एक कहानी सुना कर मुझसे कहा था, “अहंकार खुद अपना काल पैदा कर लेता है!” इस बात को अब तक भी पूरी तरह गुन नहीं पायी हूँ क्योंकि बात की गहराई बढ़ती जाती है।
कन्हैया कुमार का भाषण सुनने के बाद आज जो एक बात साफ़ होती नज़र आ रही है, वह ये है कि शायद मौजूदा राजनैतिक सन्दर्भ में छात्रों और विश्वविद्यालयों को विपक्ष की भूमिका ग्रहण करनी होगी। देश वोट-मात्र से चलाने के दिन नहीं रहे… आप वोट दे कर अपनी लोकतान्त्रिक ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते… अब आवाज़ में नेता की जय-जयकार की नहीं, सवालों की ज़रूरत है।
इस सब प्रकरण के दौरान एक चीज़ जो और हुई है, वो ये कि समाज के कामचलाऊ कच्ची पट्टी से ढंके गहरे घाव अब सबकी नज़रों के आगे हैं। यहाँ से आपके पास नज़र चुराने का विकल्प नहीं है। ये है, और हो रहा है… आप “नीरो” की दावत में आए अतिथि नहीं रह सकते। आपको जानना होगा कि आपकी दावत रौशन करने के लिए किसे बाँध के फूँका जा रहा है…
आपको जानना होगा कि महिंषासुर शहादत दिवस क्यों मनाया जाता है, कौन मनाता है… आपको जानना होगा कि अफज़ल गुरु की फाँसी पर सवालिया निशान क्यों लगाया गया… आपको जानना होगा कि दलित छात्र-छात्राएं किन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं… आपको जानना होगा कि सरकार के पास क्या ताकत है और उसका कैसा उपयोग किया जा सकता है… आपको जानना होगा कि क्यों उद्योगपतियों के कर्जे माफ़ किए जा रहे हैं जबकि गरीब किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं… आपको जानना होगा कि “मेक इन इंडिया” का फायदा किसको होगा… आपको जानना होगा कि पटेल और जाट आरक्षण की माँग क्यों कर रहे हैं… इनकी आरक्षण की मांग का किसानों के बिगड़ते हालात से क्या सरोकार है… आपको जानना होगा कि राजनीति और जनसंचार-माध्यम की साँठ-गाँठ के क्या मायने हैं।
ये बात अब लेक्चर हॉल में ग्राम्शी, मार्क्स, दुरखेइम के विचारों की नहीं, ये अब हकीकत का नंगा रूप है और आपके पास अब आँखें चुराने का विकल्प नहीं है।
(स्मृति जेएनयू में शिक्षाशास्त्र की अंतिम वर्ष की शोध छात्रा हैं और फिलहाल मिशिगन यूनिवर्सिटी में फुलब्राइट स्कॉलर हैं. दिल्ली के एलएसआर कॉलेज और बंगलुरु की अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में इन्हें अध्यापन का भी अनुभव है.)
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