किसानों के खिलाफ करदाताओं को खड़ा करने वाले विभाजनकारी अर्थशास्त्र के सहारे सरकार

अनेक ऐसे आलेखों और विश्लेषणों से समाचार माध्यम भरे पड़े हैं जिनका सार संक्षेप मात्र इतना ही है कि किसानों का यह अनुचित और मूर्खतापूर्ण हठ पूरे देश को ले डूबेगा। जो तर्क दिए जा रहे हैं वह पुराने जरूर हैं लेकिन उनकी प्रस्तुति में जो आक्रामकता अब है वह पहले नहीं थी।

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प्रधानमंत्री जी! लोकतांत्रिक सरकार की गाड़ी बिना रिवर्स गियर के चलाने की कोशिश मत करिए!

आदरणीय मोदी जी बोले तो अवश्य किंतु उनके लंबे भाषण में प्रधानमंत्री को तलाश पाना कठिन था। कभी वे किसी कॉरपोरेट घराने के कठोर मालिक की तरह नजर आते जो अपने श्रमिकों की हड़ताल से नाराज है; कभी वे सत्ता को साधने में लगे किसी ऐसे राजनेता की भांति दिखाई देते तो कभी वे उग्र दक्षिणपंथ में विश्वास करने वाले आरएसएस के प्रशिक्षित और समर्पित कार्यकर्त्ता के रूप में दिखते।

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जब तमाम राजनीतिक दलों का आर्थिक दर्शन एकसमान है, ऐसे में किसान आंदोलन का हासिल क्या होगा?

सरकार यह जानती है कि ये सारे जनसंघर्ष यदि एकीकृत हो जाएं तो फिर कोई बड़ा परिवर्तन होकर रहेगा। इसलिए वह इस किसान आंदोलन को कमजोर करना चाहती है। वह उन सारी रणनीतियों का सहारा ले रही है जो अभी तक उसके वर्चस्व को बनाए रखने और बढ़ाने में सहायक रही हैं।

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नयी संसद का भूमिपूजन: आधुनिक लोकतंत्र और संगठित धर्म के बीच आवाजाही का सवाल

प्रधानमंत्री बारंबार संसद भवन को लोकतंत्र के मंदिर की संज्ञा देते रहे हैं किंतु मंदिर की भूमिका धर्म के विमर्श तक ही सीमित रहनी चाहिए। नए संसद भवन को तो स्वतंत्रता, समानता, न्याय और तर्क के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए।

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इन महिलाओं के बिना पुरुषों तक ही सीमित रह जाती मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा

बिना महिलाओं के योगदान एवं हस्तक्षेप के मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा सर्वसमावेशी नहीं बन पाती बल्कि इसके एकांगी होकर पुरुषों के अधिकारों की सार्वभौम घोषणा बन जाने का खतरा था।

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धर्मांतरण विधेयक: पितृसत्ता के इस्लामिक मर्ज़ के खिलाफ़ पितृसत्ता का हिंदुत्ववादी पहरा

कुरान के नियम केवल यह बताते हैं कि कोई धार्मिक-नैतिक सिद्धांत पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवनकाल में सातवीं शताब्दी के अरब की तत्कालीन परिस्थितियों में किस प्रकार क्रियान्वित किया गया था। आज जब परिस्थितियां और संदर्भ पूरी तरह बदल चुके हैं तब उस समय बनाए गए नियम कानून उस मूल सिद्धांत को अभिव्यक्त नहीं कर सकते जिस पर ये आधारित हैं।

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US चुनाव से ठीक पहले किया गया BECA समझौता कहीं हमारी स्वायत्तता से समझौता तो नहीं?

इस समझौते पर हस्ताक्षर तब हुए हैं जब अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में एक हफ्ते से भी कम समय रह गया है। क्या यह अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता कि हम इन चुनावों के परिणामों की प्रतीक्षा करते और इसके बाद इन समझौतों के लिए आगे बढ़ते? यह हड़बड़ी क्यों की गई?

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भारत छोड़ो आंदोलन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सैद्धांतिक असहमतियाँ क्या थीं?

सावरकर गांधी जी की अहिंसक रणनीति से इस हद तक असहमत थे कि गांधी जी की आलोचना करते करते कई बार वे अमर्यादित लगने वाली भाषा का प्रयोग करने लगते थे। सावरकर की पुस्तक गांधी गोंधल पूर्ण रूप से गांधी की कटु आलोचना को समर्पित है।

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मौजूद नीतियों के चलते आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति का विलोपन एक अनिवार्य परिणति है!

अप्रैल से लेकर जून तक का समय माइनर फारेस्ट प्रोड्यूस (लघु वन उत्पाद) को एकत्रित करने का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। वर्ष भर एकत्रित होने वाले कुल एमएफपी का लगभग 60 प्रतिशत इसी अवधि में इकट्ठा किया जाता है किंतु दुर्भाग्य से कोविड-19 की रोकथाम के लिए लॉकडाउन भी इसी अवधि में लगाया गया।

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नीति से अधिक नीयत पर निर्भर है भारतीय शिक्षा का भविष्य

लोकतंत्र और हमारी समावेशी संस्कृति से जुड़ी मूल अवधारणाओं के माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम से विलोपन की कोशिश शायद इसलिए की जा रही है कि आने वाली पीढ़ी यह जान भी न पाए कि उससे क्या छीन लिया गया है।

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