त्रिलोचन, माओरी और भाषाधर्मी…

दरअसल, भाषा के प्रति किसी का रवैया जीवन के प्रति उसके रवैये को प्रतिबिंबित करता है। यह कुछ महत्वपूर्ण चीजों के प्रति उसके वास्तविक रवैये का विस्तार है- जैसे संबंध, …

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क्‍या बुद्धिजीवी इतने नादान होते हैं…

अभी पिछले ही दिनों 21 से 24 सितम्‍बर के बीच दिल्‍ली में एक महत्‍वपूर्ण आयोजन हुआ जिसे हम मीडिया की भाषा में ‘अंडर रिपोर्टेड’ की संज्ञा दे सकते हैं। जवाहरलाल …

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एक उम्‍मीद जो तकलीफ जैसी है…

ये पंक्तियां आलोक धन्‍वा की एक कविता की हैं…बरबस याद आ गईं। दरअसल, मैं दो दिनों पहले दिल्‍ली में आयोजित एक पुरस्‍कार समारोह के बारे में सोच रहा था। शहीद …

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दिल्ली ब्रांड संघर्ष के मायने

(यह लेख कुछ ही दिनों पहले दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित हो चुका है। चूंकि इस पर काफी प्रतिक्रियाएं आईं और किसी रूद्र वर्मा नाम के सज्‍जन ने इसे ए से …

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देर आयद, दुरुस्‍त आयद…

नारद के बारे में पिछले कुछ दिनों के भीतर हिंदी चिट्ठाकारों के बीच भड़का असंतोष दरअसल एक ऐसी स्थिति को बयान करता है जहां व्‍यावसायिक हित ओर लोकप्रियता का चरम …

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कुमार मुकुल की एक उपयोगी कविता

जो हलाल नहीं होता…मेरे सामने बैठामोटे कद का नाटा आदमीएक लोकतांत्रिक अखबार कारघुवंशी संपादक हैपहले यह समाजवादी थापर सोवियत संघ के पतन के बादआम आदमी का दुख इससे देखा नहीं …

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सबसे अच्‍छा होता है मौन से निकला सवाल…

अविनाश ने मोहल्‍ले में मेरे सुबह के पत्र को जगह दे ही दी, कम से कम टिप्‍पणी में ही सही। उसका जवाब भी दिया है…जवाब क्‍या सवाल है बाकायदा। अब …

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अविनाश भाई, आपका अविकल पत्र आखिर मीडियायुग पर एक टिप्‍पणी के रूप में आया…यह बात समझ में नहीं आई कि आपने जनपथ पर टिप्‍पणी क्‍यों नहीं की, जबकि दोनों ही …

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जो हलाल नहीं होता, वो दलाल होता है…

भाई पंकज पराशर ने ठीक ही कहा था, कि मोहल्‍ले में इतना लोकतंत्र नहीं कि वहां की जम्‍हूरिया उस पत्र को प्रकाशित कर सके…मैं अब तक अपने जनपथ पर इसे …

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एक प्रयास के लिए एक अपील…

साथियों,बहुत छोटे में बात रखना चाहूंगा। दरअसल, पिछले काफी वक्‍त से दिल्‍ली में काम कर रहे कुछ पत्रकार, लेखक इस बात को बहुत शिद्दत से महसूसते रहे हैं कि कम …

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