जनपथ कब से?
जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका।
दस साल के परिचालन में इस पर आखिरी प्रकाशित पोस्ट नवम्बर 2016 में नोटबंदी के खिलाफ़ जनता का गीत थी जिसे पत्रकार पीयूष बबेले ने लिखा था और यहां प्रकाशित होने के बाद यह गीत काफी चर्चित हुआ था।
जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। तब से लेकर अब तक अंतर आया है तो बस इस संकट की तीव्रता में। आज गंभीर से गंभीर लेखक- बड़ा हो चाहे मामूली- लेख लिख के अपने फ़ेसबुक पर डालता है क्योंकि अखबार प्रायोजित सामग्री छापने के व्यापार में लगे हुए हैं।
जनपथ क्यों?
इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक के पूर्वार्ध में अख़बारों में जगह ख़त्म हो रही थी, तब ब्लॉग आए। अब स्थिति यह है कि डिजिटल स्पेस अपने अस्तित्व के एक दशक में ही घुटनों पर बैठ चुका है। पेज व्यू, ट्रैफिक और रेवेन्यू के दबाव में डिजिटल मीडिया अच्छे कंटेंट से समझौता कर चुका है। कह सकते हैं कि अखबारों को भ्रष्ट होने में पचास साल लगे, टीवी को बीस साल, डिजिटल को दस साल और सोशल मीडिया को पांच साल।
ब्रेकिंग न्यूज़ और फेक न्यूज़ के ताबड़तोड़ हमले में गंभीर विचार और तटस्थ विश्लेषण कहीं किनारे टांग दिए गए हैं। वीडियो की अंधी दौड़ में शब्द गायब हो चुके हैं। विमर्श की दुनिया में रोजाना हर नए मुद्दे पर दो परस्पर विरोधी पाले खींच दिए जाते हैं और बीच की जमीन ही गायब है जहां पक्ष चुनने की बाध्यता से मुक्त होकर बात कही जा सके। ऐसे में लेखक निराश होता है और लेखन से दूर चला जाता है या बाइनरी में फंस जाता है।
ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।
बेहतर ढंग से कहें तो जनपथ एक मंच से ज्यादा एक प्रक्रिया है लिखने वालों को जोड़ने की। जैसे एक चाय की दुकान पर बैठ के दस लोग किसी मसले पर दस तरह की बात करते हैं और ऐसे ही बात निकलते-निकलते दूर तलाक जा पहुँचती है! बस इतना ही उद्देश्य है इस मंच का, कि बोलने-बतियाने वाला समाज बोलता रहे, लिखता रहे।
प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल का सदस्य
जनपथ को उन लोगों ने अपने सहयोग और योगदान से बचाए रखा है जो इस दौर में एक साझा मंच और साझा प्रक्रिया की अहमियत को समझते हैं। जनपथ के पास न तो संसाधन हैं, न दफ्तर है और न ही काम करने वाले पेशेवर वैतनिक हाथ। जनपथ की कुल पूंजी लिखने-पढ़ने और सोचने-समझने वाले लोग हैं। यह उन्हीं के द्वारा, उन्हीं के लिए और उन्हीं की वेबसाइट है। यही लोग मिल कर जनपथ को चलाते हैं।
जनपथ के विचार को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता 2021 में मिली जब दुनिया भर के वैकल्पिक मीडिया और जन-संगठनों के साझा मंच प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल ने इसे अपना सदस्य बनाया। इससे जनपथ के लेखकों को एक नया आकाश मिला और उनके लेखन को विस्तार क्योंकि प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल अपने सदस्यों की चुनिंदा सामग्री विदेश की कई भाषाओं में प्रकाशित करता है। प्रत्येक सदस्य को यह सुविधा है कि वह प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल के मंच से सामग्री उठाकर अपने यहाँ दोबारा प्रकाशित कर सके।
प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल के इकलौते हिन्दी सदस्य के रूप में जनपथ का पन्ना यहाँ देखा जा सकता है।
जनपथ के खंड और सोशल मीडिया
जनपथ के दस साल के चुनिंदा आरकाइव्स Blog खंड के अंतर्गत वेबसाइट पर मौजूद हैं। उनमें से कुछ चुनिंदा सामग्री Editor’s Choice और Lounge में भी उपलब्ध है। Open Space एक खुला मंच है। Voices जनता के लिए बोलने वालों की आवाज़ को जगह देने का एक खंड है। Column जनपथ का एक विशिष्ट कोना है जहां कुछ लेखक बगैर किसी अपेक्षा के नियमित अपनी बात लिखते हैं। ये लेखक जनपथ की रीढ़ हैं, पहचान हैं।
जनपथ की मौजूदगी सोशल मीडिया पर भी है। इसे आप फ़ेसबुक और ट्विटर पर फॉलो कर सकते हैं। जनपथ से संपर्क का केवल एक ही पता है: junputh@gmail.com