केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में हो रहे आंदोलन को अब 50 दिन से ज्यादा हो गया है। 15 जनवरी को किसान संगठनों और सरकार की नौवें दौर की वार्ता भी बेनतीजा रही। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि यह बैठक सरकार बेनतीजा ही रही। अगले दौर की बैठक 19 जनवरी को होगी।
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा कि वार्ता में मुकदमे की तरह तारीखें मिल रहीं हैं, इसीलिए किसान भी पेशी की तरह जाते रहेंगे। टिकैत ने कहा कि इस आंदोलन का हल बातचीत से ही निकलेगा। इस बात को किसान भी मानते हैं और सरकार भी।
किसान अब इस बात पर अड़े हुए हैं कि अगर सरकार कानून को वापस नहीं लेती है तो वह 26 तारीख यानी गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली निकालेगें, हालांकि टिकैत ने कहा है कि अगर सुप्रीम कोर्ट उन्हें रैली निकालने से मना करता तो वह ऐसा नहीं करेंगे। वहीं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई गई है कि सुरक्षा के मद्देनजर गणतंत्र दिवस के मौके पर प्रस्तावित इस ट्रैक्टर रैली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रवेश पर रोक के लिए आदेश पारित करे।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का आदेश जो भी हो लेकिन किसान संगठनों और सरकार के बीच एक टेबल पर बातचीत तो हो रही है लेकिन कायदे से देखें तो बातचीत में दोनों ओर से सिर्फ अपनी अपनी ही बात कही जा रही रही है। ना सरकार किसानों की बात मान रही और ना ही किसान सरकार की बात मान रहे हैं।
किसान संगठनों का दो टूक कहना है कि जब तक तीनों कृषि कानून रद्द नहीं होते हैं और एमएसपी गारंटी कानून नहीं बनता है, तब तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा।
कड़ाके की सर्दी हो या झमाझम बारिश, किसी भी तरह की बाधा अब तक किसानों के आंदोलन को कमजोर नहीं कर सकी है। अब तो सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भी गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर समाधान न निकलने पर, जनवरी के अंत में दिल्ली में किसानों के मुद्दे पर अंतिम भूख हड़ताल करने की बात भी कही है।
सवाल ये है कि किसानों और सरकार के बीच कृषि कानूनों पर बना हुआ गतिरोध किसानों का अड़ियल रवैया है या फिर सरकार का?
आखिर इन कानूनों में ऐसा क्या है जिससे सरकार की नजर में तो फायदा है लेकिन किसानों कि नजर में नहीं। आखिर क्यों किसान सरकार की बात नहीं समझ पा रहे हैं। या उस फायदे को नहीं देख पा रहे हैं, जिसके लिए सरकार यह कानून ला रही है।
किसान अपनी जिद पर अड़े हुए हैं मगर किसानों के ही हक की बात करने वाली सरकार किसानों के ही मुद्दे पर किसानों की ही नहीं सुन रही है। आखिर इन कानूनों से ऐसा कौन सा फायदा है जिसे सरकार किसानों को नहीं समझा पा रही है। 19 जनवरी को अगली वार्ता है। बहुत संभव है कि इस वार्ता में भी कोई खास प्रभावी परिणाम ना निकल कर आए। और फिर इसके एक हफ्ते बाद ही राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस का समारोह भी है। क्या 26 जनवरी को होने वाले इस गणतंत्र दिवस में देश के किसान हर्षोल्लास से भरे होंगे या फिर अपना आंदोलन ही कर रहे होंगे। जो भी हो लेकिन यह लोकतंत्र और गणतंत्र के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 जनवरी यानी मंगलवार को इन तीनों कृषि कानून को अगले आदेश तक स्थगित करने का निर्देश दिया था। न्यायालय ने किसानों की शिकायतों को सुनने और सरकार की राय जानने के लिए एक समिति गठित करने का भी आदेश दिया था। इस बीच, उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित चार सदस्यीय समिति में शामिल एक सदस्य भूपिन्दर सिंह मान ने अपना नाम वापस भी ले लिया। अब यह रास्ता भी समाधान खोजता दिखाई नहीं दे रहा।
सवाल यह है कि अगर इस फैसले से किसान खुश नहीं है, आंदोलन कर रहे हैं, आंदोलन में 50 से ज्यादा किसानों की अब तक जान भी जा चुकी है, नौवें स्तर तक की वार्ताएं भी लगभग असफल ही हुई हैं तो फिर सरकार इन कानूनों को वापिस ही क्यों नहीं ले लेती? इन तीनों कृषि कानूनों के वापस ले लेने से ऐसा क्या नुकसान हो जाएगा? अगर है तो यही बात क्यों नहीं सरकार किसानों को समझा देती?
सरकार के अपने रवैया पर अड़ियल होने का एक कारण यह भी है कि इस सरकार ने अपने फैसलों को लेकर अब तक जो छवि बनाई है उससे स्पष्ट है कि यह सरकार अपने फैसले से एक इंच भी पीछे नहीं हटती। कोई भी फैसला उसके लिए नाक का सवाल हो जाता है और इसीलिए भी सरकार अपने फैसले से रत्ती भर पीछे हटने को तैयार नहीं होती। मगर लोकतंत्र में सरकारों का ऐसा अड़ियल रवैया बेहद बुरा साबित हो सकता है क्योंकि एक समय के बाद आंदोलन के हिंसात्मक रूप अख्तियार कर लेने की संभावना बनी ही रहती, जो और भी खतरनाक है। अगर किसान आंदोलन जन आंदोलन में बदला और सरकार ने किसानों और आम जनता के उपर से अपना भरोसा खोया तो फिर यह पार्टी और सरकार दोनों के लिए बुरा हो सकता है।
लेखक बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के छात्र हैं