दीपावली का पर्व आसपास हो तो पर्यावरण की बात करते ही चिंतित सोशल मीडिया के जागरूकों को सबसे पहले वायु और ध्वनि प्रदूषण की याद आती है. यह अच्छा है, पर पर्यावरण की चिंता में जीवनदायिनी नदियों की चिंता कम लोगों को होती है. देश में नदियों के सूखने या मृतप्राय होते जाने पर खबर नहीं बनती. चुनावी घोषणापत्रों में अमूमन इनका जिक्र नहीं होता. बिहार को जल संसाधन में संपन्न माना जाता है और अतिवृष्टि ने बाज़दफा लोगों को दिक् भी किया है. पिछली दफा तो बिहार उप-मुख्यमंत्री भी बाढ़ में बेघर हो गए थे.
इसके बरअक्स एक कड़वी सचाई यह भी है कि एक समय में बिहार में लगभग 600 नदियों की धाराएं बहती थीं, लेकिन अब इनमें से अधिकतर या तो सूख चुकी हैं और अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदी की इन धाराओं की वजह से न केवल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया था, बल्कि इससे क्षेत्र का भूजल भी रिचार्ज होता था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ बिहार में ही लगभग 100 नदियां, जिनमें लखंदी, नून, बलान, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फालगू आदि खत्म होने की कगार पर हैं. इसलिए दिवाली के ठीक बाद बिहार और पूर्वांचल के पवित्र पर्व छठ के मौके पर मैं ऐसी नदी की बात करना चाहता हूं जिसका संबंध सूर्योपासना से है.
बिहार के भी पूरब में बसा है खूबसूरत शहर पूर्णिया, जो अब उतना खूबसूरत नहीं रहा. ब्रिटिशकाल की छाप लिए इस शहर में एक नदी सौरा बहती थी. नदी बहती तो अब भी है, पर बीमार हो रही है. बहुत बीमार.
पूर्णिया में नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाने वाले अखिलेश चंद्रा के मुताबिक, यह नदी लंदन की टेम्स की तरह थी, जो पूर्णिया शहर के बीचों-बीच से गुजरती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है और यहां अब शहर का कचरा डाला जा रहा है.
अखिलेश अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, “कभी ‘पुरैनियां’ में एक सौम्य नदी बहती थी सौरा. कोसी की तरह इसकी केशराशि सामान्य दिनों में छितराती नहीं थी. जो ‘जट’ कभी अपनी ‘जटिन’ को मंगटिक्का देने का वादा कर ‘पू-भर पुरैनियां’ आते थे, उन्हें यह कमला नदी की तरह दिखती थी. जटिन जब अपनी कोख बचाने के लिए खुद पुरैनियां आती थी, तो गुहार लगाती थी, “हे सौरा माय, कनी हौले बहो…ननकिरबा बेमार छै…जट से भेंट के बेगरता छै…(हे सौरा माई, आहिस्ते बहिए. बच्चा बीमार है. जट से मुलाकात की सख्त जरूरत है)”…
…और दुख से कातर हो सौरा नदी शांत हो जाती थी.
अपने लेख में अखिलेश सौरा को ‘जब्बर नदी’ कहते हैं. जब्बर ऐसी कि कभी सूखती ही नहीं थी पर बदलते वक्त ने, बदलती जरूरतों, इंंसानी लालच और आदतों ने इसे दुबला बना दिया है. नदी का दाना-पानी बंद हो गया है. लोग सांस थामे इसे मरते देख रहे हैं. अखिलेश लिखते हैं, हमारी मजबूरी ऐसी है कि हम शोकगीत भी नहीं गा सकते!
असल में, बदलते भारत की एक विडंबना यह भी है कि हमने जिन भी प्रतीकों को मां का दर्जा दिया है, उन सबकी दुर्गति हो गई है. चाहे घर की बूढ़ी मां हो या गंगा, गाय और हां, पूर्णिया की सौरा नदी भी. इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हमें जिन प्रतीकों की दुर्गति करनी होती है, उसे हम मां का दर्जा दे देते हैं.
चंद्रा लिखते हैं कि पूर्णिया शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली सौरा नदी सौर्य संस्कृति की संवाहक है, पर पिछले कुछ वर्षों से इस पर जमीन के कारोबारियों की काली नजर लग गई. नतीजतन, अनवरत कल-कल बहने वाली नदी की जगह पर कंक्रीट के जंगल फैल गए हैं.
एक समय था जब सौरा नदी में आकर पूर्णिया और आसपास के इलाकों में सैकड़ों धाराएं मिलती थीं और इसकी प्रवाह को ताकत देती थीं, लेकिन अब ऐसी धाराएं गिनती की रह गई हैं. इन धाराओं के पेटे में जगह-जगह पक्के के मकान खड़े कर दिए गए. नतीजतन सौरा की चौड़ाई कम होती जा रही है.
सौरा बेहद सौम्य-सी दिखने वाली नदी है, पर इसका बहुत सांस्कृतिक महत्व है. इसके नामकरण को लेकर अब भी शोध किये जा रहे हैं. यह माना जाता है कि सूर्य से सौर्य और सौर्य से सौरा हुआ, जिसका तारतम्य जिले के पूर्वी अंतिम हिस्से से सटे सुरजापुर परगना से जुड़ा रहा है.
पूर्णिया-किशनगंज के बीच एक कस्बा है सुरजापुर, जो परगना के रूप में जाना जाता है. बायसी-अमौर के इलाके को छूता हुआ इसका हिस्सा अररिया सीमा में प्रवेश करता है. यह इलाका महाभारतकालीन माना जाता है, जहां विशाल सूर्य मंदिर का जिक्र आया है. पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट में भी सौर्य संस्कृति के इतिहास की पुष्टि है. वैसे यही वह नदी है, जहां आज भी छठ महापर्व के मौके पर अर्घ्य देने वालों का बड़ा जमघट लगता है.
अररिया जिले के गिधवास के समीप से सौरा नदी अपना आकार लेना शुरू करती है. वहां से पतली-सी धारा के आकार में वह निकलती है और करीब 10 किलोमीटर तक उसी रूप में चलती है. श्रीनगर-जलालगढ़ का चिरकुटीघाट, बनैली-गढ़बनैली का धनखनिया घाट और कसबा-पूर्णिया का गेरुआ घाट होते हुए सौरा जब बाहर निकलती है, तो इसका आकार व्यापक हो जाता है और पूर्णिया के कप्तानपुल आते-आते इसका बड़ा स्वरूप दिखने लगता है.
यह नदी आगे जाकर कोसी में मिल जाती है. एक समय था, जब सौरा अपने बहाव के सम पर थी, इस इलाके में सिंचाई का सशक्त माध्यम थी. मगर, बदलते दौर में न केवल इसके अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, बल्कि इसकी महत्ता भी विलुप्त होती जा रही है.
नदी के आसपास के हिस्से पर आज कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं. पूर्णिया में सौरा नदी के पानी के सभी लिंक चैनल बंद हो गए. अंग्रेजों के समय सौरा नदी का पानी निकलने के लिए लाइन बाजार चौक से कप्तान पुल के बीच चार पुल बनाए गए थे. ऊपर से वाहन और नीचे से बरसात के समय सौरा का अतिरिक्त पानी निकलता चला जाता था. आज पुल यथावत है, पर उसके नीचे जहां नदी की धारा बहती थी, वहां इमारतें खड़ी हैं. इधर मूल नदी का आकार भी काफी छोटा हो गया है. नदी के किनारे से शहर सट गया है.
सोशल मीडिया पर अब पूर्णियावासी सौरा को बचाने के लिए सक्रिय हो गए हैं. फेसबुक पर सौरा नदी बचाओ अभियान नाम का एक पेज बनाया गया है और पूर्णिया शहर के नाम पर बने पेज पर भी लगातार सौरा के बारे में लिखा जा रहा है. स्थानीय अखबारों की मदद से सौरा से जुड़े अभियानों पर लगातार लिखा जा रहा है और जागरूकता भी फैलाई जा रही है. पूर्णिया का प्रशासन खासकर, वहां के जिलाधिकारी ने जागरूक पत्रकारों और समाजसेवियों की मदद से इसको जिलाने की कोशिशें की हैं, पर असली मसला तो भू-माफिया के चंगुल से सौरा को निकालना है. उससे भी बड़ा दोष तो एक इंच और जमीन कब्जा कर लेने की हम सबकी बुनियादी लालची प्रवृत्ति की तरफ जाता है.
सौरा को संजीवनी देनेवाली धाराओं के मुंह बंद किए जा रहे हैं. ऐसे में लग तो यही रहा है कि अगली पीढ़ी सौरा को ‘सरस्वती’ के रूप में याद करेगी और उसके अस्तित्व की तलाश करेगी. दुख है कि पूर्णिया की सौरा नदी अगली सरस्वती बन रही है.