बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान कल है जिसमें 71 विधायकों का फैसला हो जाएगा। बाकी के दो चरणों में बची हुई 172 सीटों पर अगले दो और चरण में मतदान होंगे। पिछले 15 वर्षों में यह दूसरा मौका है जब बहुकोणीय दिखने के बावजूद यह चुनाव दो ध्रुवों में सीधा बंटा हुआ साबित हो सकता है। नीतीश कुमार पहली बार अपनी जुबान पर काबू नहीं कर पा रहे हैं, तो दूसरी तरफ तीस वर्षीय तेजस्वी यादव हर बाण निशाने पर चला रहे हैं। बिहार में बैठे चुनावी विश्लेषकों को यह पूरी तरह दो ध्रुवों में बंटा हुआ चुनाव दिख रहा है, तो राज्य से बाहर के अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकारों को बीजेपी का लाभ होता दिख रहा है।
अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार एनडीए व महागठबंधन में मौजूद घटक दलों, किस मजबूत जाति का नेता किस गठबंधन के साथ है और किसका वोट परंपरागत रूप से किसे पड़ता रहा है, या फिर मोदी जी कितने चमत्कारिक रह गये हैं- के आधार पर बातों का विश्लेषण कर रहे हैं जबकि पिछले 15 वर्षों में बिहार कितना बसा और कितने बिहारी उजड़े- यह कहीं भी विश्लेषण में दिखायी नहीं पड़ता है।
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कोरोना के शुरुआती दौर में जिस तरह लॉकडाउन की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की और जिस अवस्था में उसी दौरान 28 लाख बिहारी मजदूरों को बिहार लौटकर आना पड़ा- मतलब लगभग 25 लाख परिवार लॉकडाउन से सीधे प्रभावित हुए, जिन्हें कई दिन सड़कों पर चलते हुए बिताना पड़ा, कई जगह मार खानी पड़ी, भूखे-प्यासे रहना पड़ा- उन्हें एकाएक जाति के खांचे में डालकर कुछ विश्लेषक उनकी पूरी पीड़ा को ही खारिज कर दे रहे हैं। वापस लौटकर आये मजदूरों को इस रूप में खारिज किया जा रहा है जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। आखिर लॉकडाउन से पीडित 25 लाख परिवार किसे वोट करेंगे? क्या वे मजदूर अपनी उस पीड़ा को भूलकर सिर्फ इस आधार पर किसी को वोट कर देंगे कि उनकी जाति का कोई इंसान बीजेपी-जेडीयू का उम्मीदवार है या फिर वे इसलिए महागठबंधन को वोट नहीं करेंगे क्योंकि पंद्रह साल पहले लालू-राबड़ी के शासनकाल को मीडिया ने जंगलराज कहना शुरू कर दिया था और उन्हें जंगलराज में डरकर राज्य के बाहर पलायन करना पड़ा?
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जो भी राजनीतिक टिप्पणीकार इस बात को यह कहकर नजरअंदाज कर दे रहे हैं कि लॉकडाउन में बिहार लौटे अधिकांश मजदूर फिर से शहरों की ओर लौट आए हैं, वे इस तथ्य को समझने से भी इंकार कर रहे हैं कि लॉकडाउन के बाद जब से उनके परिवार के सदस्य शहर लौटकर आए हैं, उनकी जिन्दगी खतरे में है। यहां से जब वे बिहार में बैठे अपने परिवार वालों से बात करते हैं तो उनका दर्द फिर से पूरे परिवार को सुनायी पड़ता है।
यह सही है कि पिछले कुछ वर्षों में राज्य सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं जिसका लाभ सामान्य जनता को हुआ है, लेकिन बाद में इन योजनाओं से लोगों में निराशा भी बढ़ी है। आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के कारण राज्य की अधिकांश जनता सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं पर काफी हद तक निर्भर रहती है। जब कभी किसी नयी योजना की शुरूआत हुई है, इसका लाभ पहले दौर में लोगों को मिला है, लेकिन ज्यों-ज्यों ये योजनाएं पुरानी होती चली गयीं, उनका लाभ पाने के लिए आमजन को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। आम लोगों को इसका लाभ लेने में पंचायत से लेकर जिला स्तर तक व्याप्त भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ रहा है, जिससे आम जनता में नीतीश-बीजेपी सरकार को लेकर भयानक नाराजगी है। जिन्हें भ्रष्टाचार के बाद भी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है और उनके पड़ोसियों को मिल गया है, क्या वे नीतीश-मोदी को वोट करेंगे?
इसी तरह एक और मुद्दा है जिसके बारे में राजनीतिक टिप्पणीकार सिर्फ सुनी सुनायी बातों के आधार पर टिप्पणी कर रहे हैं- वह है शराबबंदी। नीतीश सरकार के शराबबंदी के फैसले के बाद कम से कम दो लाख व्यक्ति आज पूरे बिहार में जेल में बंद हैं, जिनमें अधिकांश (मतलब 60 फीसदी से अधिक) लोग दलित-पिछड़े हैं और बचे हुए लोगों में बहुतायत गरीब हैं। शराब पीने के जुर्म में जेल में बंद दो लाख लोगों के परिवारों से यह सवाल पूछा जाए कि वे नीतीश कुमार के शराबबंदी के फैसले से खुश हैं या दुखी, तो हमें जवाब का अंदाजा लगाने में कोई भूल नहीं होनी चाहिए।
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जिस शराबबंदी को नीतीश कुमार अपनी सफलता के रूप में पूरे देश में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं, उसी बात को बिहार में रहने वाले लोग बखूबी जानते हैं कि अब शराब खरीदने के लिए दुकान पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती है बल्कि शराब पाने के लिए एक फोन कॉल करने की जरूरत होती है जिसके लिए तीन से चार गुणा ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है। नीतीश कुमार शराबबंदी की ‘इसी सफलता’ को जनता में यह कहते हुए बताते हैं कि उनकी सरकार के इस निर्णय से बिहार की महिलाएं बहुत खुश हैं और इसलिए उन्हें ही वोट देती हैं। हकीकत यह है कि जब शराबबंदी नहीं थी, तब उन महिलाओं के पतियों को एक-चौथाई खर्च करना पड़ता था। आज वही शराब पाने के लिए चौगुनी राशि खर्च करनी पड़ रही है। हालात तो ऐसे हो गए हैं कि इस शराबबंदी के कारण महिलाओं के जेवर या घर का महंगा सामान तक बिकने लगा है।
बिहार में नीतीश कुमार की शराबबंदी, प्रधानमंत्री मोदी की नोटबंदी और जीएसटी की तरह हवा-हवाई साबित हुई है। अगर आंकड़ों के सहारे शराबबंदी को ठीक से समझने की कोशिश करें, तो बिहार की आबादी लगभग 12 करोड़ है जिसमें आधी आबादी महिलाओं की है। अर्थात छह करोड़ महिलाओं को शराब पीने वालों से बाहर कर दीजिए क्योंकि सामान्यतया बिहार में महिलाएं शराब नहीं पीती हैं। इसी तरह 16 साल से कम उम्र के बच्चे-बच्चियों की संख्या पचास फीसदी के करीब है। मतलब यह कि लगभग तीन करोड़ बच्चे-बच्चियां शराब पीने से दूर हैं (अर्थात इसमें 3 करोड़ अवयस्क लड़के शराब नहीं पीते हैं)। मतलब यह कि 9 करोड़ लोग पूरी तरह शराबखोरी से बाहर हैं।
अब बचे 3 करोड़ लोगों में से कुछ वैसे होंगे जो कभी-कभार पर्व त्योहार में नशा कर लेते होंगे। अगर उन बचे हुए तीन करोड़ में से पचास फीसदी लोगों को कभी-कभार नशा करने वालों में शुमार करें, तो कुल मिलाकर डेढ़ करोड़ लोग वैसे हैं जो शराब पीते होंगे। हालिया आंकड़ों के मुताबिक 28 लाख प्रवासी बिहारी मजदूर देश के अन्य भागों से बिहार लौटकर आए हैं। मतलब यह कि 12 करोड़ में से बचे हुए सभी लोगों को शराबी ही मान लिया जाए (जो नामुमकिन है) तब भी बिहार में शराब पीने वालों की संख्या 1 करोड़ 22 लाख से अधिक नहीं है, मतलब यह कि राज्य की जनसंख्या का 12 फीसदी। और अगर वे नाराजगी में नीतीश-बीजेपी सरकार के खिलाफ यह सोचकर वोट करें कि इसी के चलते उन्हें चौगुनी कीमत पर शराब खरीदनी पड़ रही है तब क्या होगा?
इसलिए राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होता, कभी-कभी दो और दो मिलकर शून्य भी हो जा जा सकता है जिसका नुकसान सत्ताधारी पार्टी को उठाना पड़ सकता है!