अत्याचार का विस्मरण एक आरामतलब समाज को जन्म देता है। ऐसा समाज अपने सदस्यों को अन्याय को बर्दाश्त कर लेने के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है। इससे ऊपरी तौर पर समाज शांत एवं समरस दिखाई पड़ने लगता है लेकिन अंदर ही अंदर समाज में असमानता बढ़ती है। वह किसी पुराने पेड़ की तरह खोखला होने लगता है। प्राय: कमजोर समुदाय चुप दिखाई पड़ते हैं लेकिन वे अपने ऊपर हुए जुल्मों को आत्मा के कोने में छिपाए रहते हैं और जब अनुकूल परिस्थितियां आती हैं तो इसे अपने पक्ष में बदलने का प्रयास करते हैं। कुछ समाजों को स्पार्टकस और डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे लोग मिल जाते हैं, कुछ को नहीं मिलते हैं। फिर भी, ऐसे समाज भी धीरे-धीरे खुदमुख्तार होते जाते हैं और एक ठोस इकाई के रूप में अत्याचार, हिंसा और बहिष्करण के विभिन्न रूपों और संरचनाओं से लड़ने लगते हैं।
घुमंतू और विमुक्त जन ने अपनी लड़ाई ऐसी ही लड़ी है। वे पिछली एक शताब्दी से गरिमामय, न्यायपूर्ण और भागीदारी आधारित समाज की स्थापना के लिए लड़ रहे हैं। अब उनकी लड़ाई जगह-जगह दिखने लगी है। अभी पिछले 12 अक्टूबर 2020 को भारत भर के घुमंतू एवं विमुक्त समुदाय के बुद्धिजीवियों, नेताओं और शोधकर्ताओं ने 1871 के ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ की 150वीं वर्षगाँठ मनाने का निर्णय लिया है। यह भारतीय इतिहास का कोई गौरवशाली क्षण नहीं है बल्कि यह अन्याय और हिंसा की राज्य नियंत्रित परियोजनाओं का सामूहिक प्रत्याख्यान है। यह घुमंतू और विमुक्त जनों के हजारों कार्यकर्त्ताओं, लेखकों, आंगिक बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के परिश्रम का परिणाम है कि अब उन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। वे अब भारत के संविधान को अपने जीवन में महसूस करना चाहते हैं।
इसी के साथ नौजवान शोधकर्ताओं का एक समूह भी उभरा है जो भारत के लगभग प्रत्येक विश्वविद्यालय और शोध संस्थानों में घुमंतू एवं विमुक्त जनों पर न केवल शोध कर रहा है बल्कि न्याय की लड़ाई में उनके साथ खड़ा है।
आज घुमंतू एवं विमुक्त समुदाय दो काम कर रहे हैं : पहला वे अपना संतप्त इतिहास सुना रहे हैं और दूसरा, वे लोकतंत्र में अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं। उन्होंने शिक्षा, सरकारी नौकरियों और राजनीतिक दायरों में अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया है। वे यह भी पूछ रहे हैं कि हमारी आजादी कहाँ गयी? यह विश्वास उन्हें उनकी गोलबंदियों से मिला है और उन्होंने अपने संताप को एक राजनीतिक स्वर देने की कोशिश की है।
शोलापुर के नागनाथ विट्ठलराव गायकवाड़ की एक कविता कहती है :
उठ मेरे विमुक्त भाई
अपनी दुनिया ही है निराली, पैदा होते ही हम अपराधी
न गाँव, न घर, न जंगल, न कोई हक, कहाँ के हम शिकारी?
उठ मेरे विमुक्त भाई, गुलामी के जंजीरों से बाहर निकल
क्रांति की फैली है किरण, संघर्ष कर, न्याय मिलेगा, आज नहीं तो कल
घुमंतू और विमुक्त जन कौन हैं?
इन समुदायों के बारे में पहले आप शायर असराल-उल-हक़ मजाज़ को पढ़िए:
बस्ती से थोड़ी दूर, चट्टानों के दरमियां
ठहरा हुआ है ख़ानाबदोशों का कारवां
उनकी कहीं जमीन, न उनका कहीं मकां
फिरते हैं यूं ही शामो-सहर ज़ेरे आसमां।
घुमंतू और विमुक्त जन बस्ती से दूर के समुदाय रहे हैं। वे हमेशा सामुदायिक रहवास के हाशिये पर बसने वाले लोग रहे हैं। वास्तव में घुमंतू समुदाय वे समुदाय हैं जो सदैव अपना भोजन-पानी, पशु-पक्षी, कुत्तों के साथ एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहे हैं। उनका कोई एक निश्चित स्थान हुआ करता है जहां वे वर्ष के निश्चित महीनों में रहते हैं, बाकी समय वे प्रवास में रहते हैं। यह प्रवास न तो मौज-मस्ती के लिए होता है और न ही उद्देश्यविहीन। इस दौरान वे एक कठिन जीवनचर्या के साथ व्यापारिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। आयुर्वेदिक औषधियां, पशु-उत्पाद, ऊन और अर्ध-मूल्यवान रत्न आदि बेचते रहते हैं। वे खेल-तमाशे दिखाने और कुश्ती सिखाने का काम करते रहे हैं।
ऐतिहासिक समय से लेकर आधुनिक समय तक भारत की एक बड़ी जनसंख्या घुमंतू रही है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र और अमरकोष में उन्हें नाचने, गाने और करतब दिखाने वाला बताया गया है। कौटिल्य ने तो उन पर राज्य द्वारा हमेशा नजर रखने का सुझाव दिया है। यह समूह मुख्यधारा की बस्तियों से आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर गहन रूप से जुड़े होते थे, स्थानीय शक्तिशाली लोगों और शासक की वंशावलियों को गा-गाकर सुरक्षित रखते थे। गुप्तकाल में पुराणों के लिखे जाने से पहले वे एक तरह से भारत के आदिम इतिहासकार भी थे। वे वंशावलियों को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करते रहते थे। उन्हें उस समय सूत, मागध और कुशीलव कहा जाता था।
विश्वंभरशरण पाठक और रोमिला थापर का काम दिखाता है कि सूत, मागध और कुशीलवों ने एक लंबे समय तक भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास को सुरक्षित एवं संरक्षित रखा। पुराणों के आगमन के बाद वे इस पेशे से क्रमश: बाहर हो गए। ए.एल. बाशम ने लिखा है कि आठवीं शताब्दी में अरबों की सिंध विजय के बाद मनोरंजन करने वाले घुमंतू समूह यूरोप और अफ्रीका तक जाते थे। पाँचवीं शताब्दी में ससानी राजा बहराम गूर ने दस हजार संगीतज्ञों को आमंत्रित किया और उन्हें पशु, अन्न और गधे दिए, जिससे वे वहां बस सकें। उन्होंने पशुओं और अन्न को खा लिया और पहले की भांति घूमते रहे।
फिर भी यह घूमना निरुद्देश्य नहीं होता था। वास्तव में घुमंतू समूह भारतीय उपमहाद्वीप, यूरोप और पश्चिमी एशिया के बीच लगातार आवाजाही करते थे। वे इन महाद्वीपों में प्रचलित परिवहन के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से का निर्माण करते थे। घोड़ों, खच्चरों, ऊँटों और बैलों के कारवां के द्वारा उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को शेष दुनिया से जोड़ दिया था। आधुनिक राज्य की उत्पत्ति के समय से ही घुमंतू समुदायों को बहिष्करण का सामना करना पड़ा। वे उसकी संरचना में अवांछित कर दिए गए। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के समय उन्हें बड़ा झटका लगा।
बहिष्करण और कलंक की गाथा
भाषाविद गणेश देवी का मानना है कि इंग्लैण्ड और यूरोप में भी घुमंतुओं के प्रति एक अलग नजरिया काम कर रहा था। उन्हें कम प्रतिष्ठा प्राप्त थी, इसका कारण था सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच जारी युद्धों में बड़ी संख्या में सैनिक रखने और उन्हें वेतन देने के लिए बहुत सारे धन की जरूरत। धन जुटाने के लिए उन्होंने कर संग्रह के प्रारूप में बदलाव किया। पहले उपजाऊ फसलों पर कर का प्रावधान था लेकिन अब भूमि मापन के आधार पर कर आरोपण किया गया। जो कर अदा कर सकते थे समाज में उनकी इज्जत थी और जो भूमिहीन थे, कर नहीं अदा कर सकते थे, समाज में उनकी इज्जत कम होने लगी। भूमिहीन घुमंतुओं की भी समाज में इज्जत इतनी कम हो गयी कि इन्हें संशय की दृष्टि से देखा जाने लगा। यूरोप के जिप्सी समुदाय को वहां प्रताड़ना सहनी पड़ी। इस बात का असर औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज प्रशासकों पर भी हुआ, जिसके परिणामस्वरूप घुमंतू लोगों को आपराधिक जनजातियों की सूची में रख दिया गया।
मामला केवल इतना भर नहीं था। ब्रिटिश भारत का अध्ययन करने वाले विद्वान् इस बात को रेखांकित करते रहे हैं कि औपनिवेशिक शासन ‘प्रजाकरण’ की एक कठोर परियोजना भी थी। इस शासन में कोई भी व्यक्ति या समुदाय बिना प्रजा हुए बचा नहीं रह सकता था। वे लोग जो शहरों में बसे थे, गांवों में बसे थे, उन्हें आसानी से प्रजा बना लिया गया। घुमंतू समुदाय उनकी इस परियोजना में सबसे बड़ी बाधा थे। इसके साथ ही 1857 के विद्रोह के बाद नए तरीके से भारत पर कब्ज़ा जमाया गया। हिजड़े, भारतीय नरेशों की भंग हुई सेनाओं में काम करने वाले लोग, सिक्का ढालने वाले समुदाय, नदियों में नाव चलाने वाले लोग तो आपराधिक घोषित किए ही गए, वे समूह भी आपराधिक घोषित किए गए जो पुलिस के लिए दिक्कत पैदा कर सकते थे। यह दुनिया में बड़ा ही विचित्र मामला था जब कोई व्यक्ति किसी समुदाय में पैदा होते ही अपराधी मान लिया जाता था।
इसी पृष्ठभूमि में औपनिवेशिक शासन ने भारत में 1871 में ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ पास किया, जिसमें 190 के करीब समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया गया। इस एक्ट को पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब और अवध में लागू किया गया। इसने पुलिस को बहुत अधिकार दिए। समुदायों को पुलिस थाने में जाकर अपना पंजीकरण करवाना होता था। पुलिस उन्हें एक लाइसेंस देती थी। वे पुलिस की अनुमति के बिना जिले से बाहर नहीं जा सकते थे। यदि वे अपना स्थान बदलते तो इसकी सूचना पुलिस को देनी होती थी। बिना पुलिस की अनुमति से यदि समुदाय का कोई सदस्य एक से अधिक बार अपनी बस्ती या गाँव से अनुपस्थित रहता था तो उसे तीन वर्ष तक का कठोर कारावास का भागीदार होना पड़ता था।
उनके लिए स्पेशल रिफॉर्म कैंप की भी व्यवस्था की गई जिसमें उन्हें सुधारा जाना होता था। इसका एक प्रभाव यह पड़ा कि घुमंतू लोग बसने लगे और इसी के साथ वे जहां भी बसे, उस बस्ती को पुलिस की सीधी नजर में लाया गया। इन बस्तियों को कलंकित बस्ती होने में देर ना लगी। 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट से स्थानीय जमींदारों को भी जोड़ दिया गया। जमींदारों को न केवल पंजीकरण में पुलिस की सहायता करनी होती थी बल्कि वे पंजीकृत समुदायों के सदस्यों की खोज-खबर भी रखते थे।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का यह पुलिसिया गठजोड़ अब भी कायम है। इलाकाई दबंग पुलिस के एक्स्टेंशन के रूप में काम करते देखे जा सकते हैं। कमजोर तबकों पर अत्याचार में यह गठजोड़ काम करता है। पुलिस और दबंगों का इकबाल बना रहता है।
हमारी आज़ादी कहां गयी?
फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचल के एक गीत में जिक्र आता है कि भारतमाता हाथी पर चढ़कर आयी हैं और डोली में बैठकर सुराज आया है। इस सुराज का मुँह देश की एक बड़ी जनसंख्या ने उस समय नहीं देखा। उस समय, एक अनुमान के मुताबिक ऐसे लोगों की संख्या लगभग एक करोड़ के आसपास थी।
दिसम्बर 1946 में जब भारत की संविधान सभा का गठन हुआ तो ‘आपराधिक जनजातियों’ की बात उठी। सेंट्रल प्रोविंस और बरार से आए एच. जे. खांडेकर ने बड़ी ही शिद्दत 22 जनवरी 1947 को कहा कि यह दुःख की बात है कि हिंदुस्तान के अंदर एक करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें जन्म लेते ही बिना किसी जुल्म के जरायमपेशा बना दिया जाता है और हिंदुस्तान के अंदर करीबन कई लाख लोग हैं जिनकी औरतें, आदमी और बच्चों को इस कानून के मातहत जरायमपेशा बना दिया गया है। चाहे वह चोर हों या न हों, लेकिन जिस दिन वे जन्मते हैं, उस दिन से उन्हें चोर बना दिया जाता है।
जब भारत का संविधान लगभग बनकर तैयार हो गया था तो 21 नवम्बर 1949 को उन्होंने संविधान सभा का ध्यान एक बार फिर आकर्षित करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि इस संविधान के अधीन बोलने की आजादी और कहीं भी आने-जाने की आजादी दी जा रही है लेकिन देश के एक करोड़ अभागे नागरिकों को आने जाने की आजादी नहीं है। यहां की अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने-जाने की सुविधा अभी प्राप्त नहीं है। इस संविधान में इनके बारे में कुछ नहीं कहा गया है। क्या शासन ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को हटाकर उन लोगों को स्वतंतत्रा प्रदान करेगा?
उसी साल, 28 सितम्बर 1949 को गृह मंत्रालय ने अनंतशयनम अयंगर की अध्यक्षता में एक ‘क्रिमिनल ट्राइब्स इनक्वायरी कमेटी’ का गठन किया और 1950 में जब इसकी रिपोर्ट आयी तो इन समुदायों का दुर्भाग्य देखिए कि एक बार फिर कहा गया कि यह समुदाय बस तो जाएंगे लेकिन अपराध करते रहेंगे। इसलिए उन्हें ‘आदतन अपराधी’ अधिनियम में पाबन्द किया जाय। साथ ही उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए ईमानदारी और कर्मठता के जीवन में लाने की बात की गयी। इसी दौर में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मद्रास आदि प्रांतों में 1871 का क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त किया जा रहा था। अंतत: पूरे भारत में 1952 में 1871 का क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त कर दिया गया।
जो समुदाय अभी तक ‘नोटिफाइड’ थे, अब वे ‘डि-नोटिफाइड’ हो गए। पहले वे अपराधी कहे जाते थे। अब कहा गया: ‘अब आप अपराधी नहीं माने जाएंगे।’ यह एक दूसरी कम अपमानजनक पहचान को आरोपित करना था। इन्हीं समुदायों को ‘विमुक्त’ समुदाय कहा जाता है।
आज की राजनीति में घुमंतू एवं विमुक्त समुदाय जरूरी कैसे हो गए हैं?
यदि आप 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट और अनंतशयनम अयंगर कमेटी की रिपोर्ट में शामिल समुदायों की सूची देखें, तो पाएंगे कि इनमें तीन श्रेणियाँ आज भी अस्तित्व में हैं।
वे समुदाय जिनकी संख्या बड़ी है, कहीं बस गए हैं और किसी श्रेणी (एससी या ओबीसी, कहीं-कहीं एसटी) में उनका नाम शामिल है। उत्तर प्रदेश में ‘मल्लाह’, ‘भर’ ऐसे समुदाय हैं जो ओबीसी के रूप में परिगणित हैं और उन्होंने पिछले एक दशक में अपनी राजनीति का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की है। ‘चमार’ भी ऐसा समुदाय था जिसे क्रिमिनल ट्राइब घोषित किया गया था। अनुसूचित जातियों में परिगणन के बाद उन्होंने बेहतर राजनीतिक गोलबंदी की, अपने नेता तैयार किए और राजनीति को बदलने में सफलता प्राप्त की है।
फिर वे समुदाय हैं जो अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल हैं, कुछ नहीं भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में ‘कंजर’ और ‘बेड़िया’ ऐसे ही समुदाय हैं। यदि आप बुंदेलखंड वाले इलाके में जाएं तो आपको वस्तुस्थिति का पता लग जाएगा। वे अनुसूचित जातियों में शामिल तो हैं लेकिन उनकी राजनीति का निर्माण नहीं हुआ है। जैसा समाजविज्ञानी बद्री नारायण कहते हैं, अभी उनकी आवाज़ में राजनीतिक ताकत आनी बाकी है।
अब आते हैं ऐसे समुदायों पर जो घुमंतू हैं और विमुक्त समुदायों की सूची में हैं। कुछ ऐसे भी समुदाय हैं जिन्हें घुमंतू बने हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है। यह सभी समुदाय बहुत ही सुभेद्य हैं। कबूतरा, कंकाली, नट, पथरकट, महावत, मोघिया, बहेलिया, बैरागी, बंजारा ऐसे ही समुदाय हैं। कुछ ऐसे भी समुदाय हैं जो ‘जाति प्रमाण पत्र’ की खोज हैं, स्थायी रूप से बस गए हैं लेकिन राजनीतिक रूप से अदृश्य हैं।
यह जो तीसरी वाली श्रेणी है, वह राजनीतिक रूप से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि इन समुदायों को और ज्यादा उपेक्षित नहीं किया जाए।
घुमंतू और विमुक्त समुदायों की बेहतरी के लिए पिछले दो दशकों में दो आयोग गठित किए जा चुके हैं। एक का गठन डाक्टर मनमोहन सिंह के समय हुआ और दूसरे का गठन नरेंद्र मोदी के समय।
bkrयूपीए के समय गठित बालकृष्ण रेनके कमीशन ने 2008 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में इन समुदायों की संख्या 10 से 12 करोड़ बताई थी। उसने इन समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण की वकालत की थी। इसके लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 में संशोधन की भी सिफारिश की गई थी। इन समुदायों के लिए विशेष शैक्षिक कार्यक्रम और वजीफों के साथ ही साथ उनके स्वास्थ्य पर ध्यान देने की बात की गई थी। कुछ छोटे-मोटे कदम उठाए भी गए लेकिन रेनके कमीशन की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में ही रखा गया।
इसके बाद 2014 में एनडीए की सरकार आई। उसने भीकूजी इदाते कमीशन गठित किया। इसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। इदाते आयोग ने कहा है कि यह समुदाय गरीबों में भी सबसे ज्यादा गरीब, सबसे ज्यादा हाशियाकृत हैं और सामाजिक कलंक, बहिष्करण और अत्याचारों का शिकार हैं। आयोग ने एक ऐसे संविधान संशोधन की सिफारिश की है जिसके द्वारा उनके लिए अलग श्रेणी बनाई जा सके। सरकार उन्हें मजबूत विधिक और संवैधानिक उपायों से लैस करे जिससे उनका उत्पीड़न रुक सके।
Idate-Commission2019 के चुनाव के समय कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इन समुदायों की आर्थिक बेहतरी एवं उनकी संस्कृति को महत्व देने की बात कही थी। सरकारी स्तर पर, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए बने आयोगों की तर्ज पर नीति आयोग ने उनके लिए एक स्थायी आयोग गठित करने की सिफारिश की है। वर्ष 2019 में प्रस्तुत बजट में भी इन समुदायों के लिए एक छोटी सी राशि का आवंटन किया गया था। अहमदनगर और त्रिपुरा की अलग-अलग रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि उनकी सरकार घुमंतू समुदायों के कल्याण के लिए काम कर रही है।
इसके आगे क्या?
सरकारों द्वारा उठाए गए कदम ऊँट के मुँह में जीरे के समान हैं। जब तक उन्हें एक विशेष श्रेणी नहीं मिल जाती है तब तक उन्हें लक्षित करके उनका विकास करना एक सदाशयता से ज्यादा कुछ नहीं है। एक निश्चित मात्रा में आरक्षण मिलते ही वे एक ‘कैटेगरी’ के रूप में दिखने लगेंगे। उनकी राजनीतिक गोलबंदियाँ आसान हो जाएँगी।
साहित्य और भाषा की दुनिया से वे एकदम बेदखल हैं। उन पर नया विमर्श खड़ा होगा, नया साहित्य आने लगेगा। दलित विमर्श भी इसी तरह से साहित्य और संस्कृति में आया है- परिधि से केंद्र की ओर, मुख्यधारा को धकियाता हुआ।
क्या एक लोकतांत्रिक देश में इतना नहीं सोचा जा सकता है?
आवरण चित्र: गुजरात के कच्छ और राजस्थान के कुछ हिस्सों में पाये जाने वाले रबारी समुदाय की एक महिला
स्रोत: https://www.jacopodellavalle.it/rabari-tribe/