दरअसल, भाषा के प्रति किसी का रवैया जीवन के प्रति उसके रवैये को प्रतिबिंबित करता है। यह कुछ महत्वपूर्ण चीजों के प्रति उसके वास्तविक रवैये का विस्तार है- जैसे संबंध, प्रेम, बहुलतावाद, राजनीति, संस्कृति और मां धरती। यदि मैं भाषा को तात्कालिक व्यापार के उद्देश्य से मात्र व्यावसायिक विनिमय का औजार मानूं, तो यह ऐसी व्यापक विश्वदृष्टि का परिणाम होगा जो माल आधारित बाजार और उपभोक्तावादी संस्कृति की उपज है। यदि मैं अपनी भाषा को बहुत महत्व देते हुए दूसरों की भाषा को उपेक्षा से देखूं तोयह रवैया नस्लवाद, धार्मिक और राजनीतिक अलगाववाद के ही समान है जिसके खतरे हम सभी देख चुके हैं। यदि सिर्फ मेरे हितों की खातिर कम प्रयुक्त की जाने वाली बोलियों और भाषाओं के लुप्त होने की संभावना बनती हो, तो यह रवैया अल्पसंख्यकों और हाशिए पर जी रहे लोगों के प्रति असहिष्णुता बरतने के ही समान है। यदि ‘सफलता की भाषा’ को सीखने की प्रक्रिया में मैं अपनी मातृभाषा बोलने की जहमत न उठाते हुए उसे आधुनिक विश्व व्यवस्था में अप्रासंगिक समझने लगूं, तो यह एक ऐसे व्यक्ति का लक्षण होगा जो सिर्फ सफलता ही नहीं चाहता बल्कि सफल, ताकतवर और वर्चस्वकारी व्यक्तियों की नकल भी बनना चाहता है।
भाषा का सवाल किसी एक नहीं, सभी भाषाओं का सवाल है। इसका संभावित उत्तर बहुवचन में ही दिया जा सकता है। अपनी भाषा के पक्ष में खड़ा होना अपनी अस्मिता के पक्ष में खड़ा होना है, लेकिन दूसरी भाषाओं का विरोध करना फासीवाद का समर्थन करना हुआ। सभी जीवित प्राणियों की भांति भाषाएं एक समाज या समूह का सत्व हैं। ये एक परिवार की अवधारणा से जाकर जुड़ती हैं। भारतीय भाषाओं के परिवार में एक-दूसरे के बीच मजबूत अंतर्सम्बन्ध है जो इसे पोषण प्रदान करता है। यह हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व में बहुलतावाद का परिचायक है और हमारे चरित्र को परिभाषित करने तथा अस्तित्व को तय करने में इसकी बड़ी भूमिका है। इसलिए एक को बचाने का अर्थ होगा कि हम सभी भाषाओं को प्रोत्साहन दें। यह संवादात्मक सह-अस्तित्व के मूल्यों के पक्ष में खड़ा होना है। इस बहुलतावाद के आधार पर ही हमारा लोकतंत्र बचा रह सकेगा और प्रगति में स्थायित्व बना रह सकेगा। भारतीय भाषाओं के समर्थकों को अवमानित करना बहुलतावाद की अवमानना है। भाषाएं सजीव हैं और अंतर्संवाद से ही उनका विकास संभव है। लेकिन इसी दौरान अगर कोई ‘शावनिस्ट’ अपनी मातृभाषा को बचाना चाहता है, तो उसके इस सरोकार से खिलवाड़ न करें।
आज भारतीय भाषाओं को संरक्षित करना, उनका विकास करना और प्रोत्साहन देना अपरिहार्य हो गया है। पहले भाषाएं आम आदमी द्वारा गढ़ी जाती थीं और कभी-कभार दरबार के विशेषाधिकार पर यह निर्भर करता था। लोगों के बीच के अंतर्वैयक्तिक संबंधों और संवाद से ध्वनियां पैदा होती थीं जिन्हें लेखक और विद्वज्जन लिखित रूप में संरक्षित करते थे। मसलन, इसी प्रकार से उर्दू का जन्म शास्त्रीय स्रोतों जैसे लश्करी यानी लश्कर या सेना की भाषा, सरायकी यानी सराय की भाषा और दक्खिनी तथा रेख्ता और अन्य रूपों से हुआ। पिछली सदी में मीडिया और प्रौद्योगिकी का अप्रत्याशित विकास ही भाषाओं को तय करता रहा है। आज भाषा सिर्फ सराय और सड़कों पर ही नहीं गढ़ी जाती, बल्कि ‘ऑन एयर’ और सॉफ्टवेयर में भी बनती-बिगड़ती है। मीडिया को एक ऐसी भाषा की जरूरत है जो किताबी न हो, न ही कुछ मुट्ठी भर लोगों द्वारा बनाई गई हो बल्कि उत्तेजक हो और निरंतर विस्तृत होते लक्षित वर्ग को संबोधित करती हो। भारतीय जनता किसी स्वीकृत भाषा की कम से कम सैकड़ों बोलियां इस्तेमाल करती हैं। इसीलिए एक ऐसी शब्दावली की आवश्यकता है जो ज़ुबान के आसपास ठहरती हो, जिसे सिर्फ महानगरों में ही नहीं बल्कि व्यापक भूभाग में इस्तेमाल किया जाता हो। इस वजह से मीडिया और आम आदमी, दोनों की जरूरत है कि भाषा संबंधी जागरूकता का सवाल प्राथमिक हो। और ऐसी जागरूकता एक निश्चित मात्रा में ‘एक्टिविज्म’ के बगैर संभव नहीं है। बस ज़रूरी यह है कि ऐसा प्रयास कठमुल्लापन और रूढ़िवादिता में न जकड़ जाए।
अपने मामले को समाप्त करने से पहले मैं कहना चाहूंगा कि मेरे ऊपर लगाए गए वर्नैक्युलर स्तालिनवादी होने के आरोप के बारे में मुझे कोई ग्लानि नहीं है। जैसा कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी मेरे विद्वान मित्र धोड़पकर बताते हैं, स्तालिन की अवधारणा थी कि दुनिया की सभी भाषाएं एक दिन लुप्त हो जाएंगी और एक वैश्विक भाषा बचेगी। क्या यह उनकी भविष्यवाणी थी या वह गलती पर थे? यह सोच कर मैं कांप उठता हूं। लेकिन एक चीज के बारे में मैं निश्चित हूं। भाषा के वे नियंता जो हमारे जैसों को ‘वर्नैक्युलर शावनिस्ट’ का दर्जा देते हैं और भारतीय भाषाओं को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, इस मामले में खुद स्तालिनवादी हैं, चूंकि वे काफी हर्षोल्लास से एक ऐसी साम्राज्यवादी वैश्विक भाषा की विजय का जश्न मनाएंगे जो छोटी मछलियों को अपना ग्रास बना लेती हो।
तात्कालिक तौर पर त्रिलोचन मुझे ऐसे नोह की तरह दिखते हैं जो अपनी नाव में सभी भाषाई प्रजातियों को बचा ले जाने के इच्छुक हों। फिर से गलत मुहावरा! यह व्यक्ति सारी परिभाषाओं को चुनौती देता है। इसमें मेरी कम से कम सारी सीमित परिभाषाएं शामिल हैं। मैं इसे विद्वानों के ऊपर छोड़ता हूं। अब मैं उनके यहां से चलना चाहता हूं। यह जानते हुए कि वह मेरी नम्रता को अनदेखा कर देंगे, मै कहता हूं, ‘अब आपको आराम करना चाहिए।’ उन्होंने मेरा धन्यवाद किया। लेकिन वह पेड़ों की बात क्यों करते हैं? वह बताते हैं, ‘मैंने उन सभी फलदायी और अन्य प्राचीन पेड़ों के बारे में लिखा जो मेरे हृदय से निकला।’ वह क्यों नहीं सरकारी पुरस्कारों, अनुदानों और सम्मान की बात करते हैं? अपने जीवन की इस अस्त होती सांझ में भी यह व्यक्ति क्यों शब्दों, व्याकरण और विभिन्न भारतीय भाषाओं में काव्य की बात करता है? ठीक है, चूंकि मैं वर्नैक्युलर शावनिस्ट हूं, भारतीय भाषाओं के बारे में उनकी इस पीड़ा को समझ सकता हूं। लेकिन वह क्यों अरब, यूरोप और दुनिया के अन्य हिस्सों की भाषाओं की बात करते हैं? वे अंग्रेजी के बारे में भी बोलते हैं और आपको सॉनेट के काव्यात्मक तत्वों के बारे में बताते हैं। और उसी एक सांस में वे अवधी संगीत के बारे में भी बोल जाते हैं, जैसा कि उनके गांव चिरानीपट्टी के लोग गाया करते हैं। मैं ब्रह्मांड की भाषाओं के बारे में इस व्यक्ति के सरोकारों का अर्थ एरिक फ्रॉम के आलोक में ही लगा सकता हूं। उन्होंने कितने बेहतरीन ढंग से बताया था कि आत्मप्रेम संपूर्ण ब्रह्मांड, मित्रों और अजनबियों के प्रति हमारे प्रेम का ही विस्तार है।
मैं थक कर टीवी पर चैनल बदलने लगता हूं। लेकिन यहां पर भी वर्नैक्युलर शावनिस्टों ने दखल दे दिया है। क्या वे हर जगह मौजूद हैं? यह तो मंगलवासियों के हमले जैसा है। क्या सभ्य समाज ने अभी तक इन आदिम जातियों को अपना उपनिवेश बना नहीं छोड़ा है? ये आवाजें निश्चित ही किसी दूसरे ग्रह से आ रही होंगी।
बीबीसी पर एक माओरी लेखक का लंबा साक्षात्कार प्रसारित हुआ। ये माओरी क्या है? खैर, यह न्यूजीलैंड की एक आदिम भाषा है जो दुनिया की अन्य 97 फीसदी भाषाओं की तरह ही लुप्त होने के कगार पर थी। इसके बावजूद कि माओरी जाति की संस्कृति अमूमन वहां सह-अस्तित्व में ही थी, उन्होंने अपनी मौजूदगी दावे के साथ स्थापित कराने का निश्चय किया। सिर्फ भाषा के ही संदर्भ में नहीं, बल्कि अपनी समूची सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखने के लिए। अब ‘श्वेत आत्माएं’ आसानी से उन्हें समाप्त नहीं कर सकतीं चूंकि उनकी संस्कृति एक प्रवहमान ताकत है। अब गौरव और प्रेम के साथ इस संस्कृति के सभी पहलुओं पर लोग वापस लौटने को मजबूर हैं। आदिम सभ्यता का संगम अब आधुनिक पहनावे के साथ हो गया है। घरों में कला विराजमान है, पाककला को एक नया आयाम मिला है, वैवाहिक रीतियों का फिर से पालन किया जा रहा है और इन सबके साथ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि माओरी भाषा फिर से खिल उठी है। लोगों ने माओरी भाषा के शिक्षण केंद्र बना लिए हैं जहां बुजुर्ग अपने बच्चों को खेल-खेल में ही भाषा के संस्कार दे रहे हैं। एक प्रमुख माओरी लेखक विति इहिमेरा ने अपनी ही कहानियों पर अंग्रेजी में काम किया है जिससे उन्हें फिर से माओरी संदर्भों में स्थापित किया जा सके। टीवी पर अपने साक्षात्कार में वह कहते हैं कि हो सकता है माओरी संस्कृति प्राचीन मिस्र जितनी महान न हो, लेकिन वे उसे मरने नहीं देंगे, चूंकि उसके साथ उनकी पहचान ही समाप्त हो जाएगी और समूची दुनिया इसके सौंदर्य से वंचित हो जाएगी। शावनिस्ट कहीं के!
हमारे साथी वर्नौक्युलर शावनिस्ट और एक सचेतन पत्रकार प्रताप सोमवंशी, जिन्होंने त्रिलोचन को हरिद्वार से देहरादून ले जाकर उनके चिकित्सा का इंतजाम किया, रोज मुझे फोन करते हैं। मेरी ही तरह उनका भी ख्याल है कि त्रिलोचन अपने नाम और बीमारी से कहीं ज्यादा बड़े व्यक्ति हैं। कुछ चिकित्सकीय पहलुओं के बारे में बात करने के बाद उनके पास जीवन के कई क्षेत्रों से तमाम लोगों के अनेक किस्से सुनाने को होते हैं और वे बातें जो त्रिलोचन ने उनसे कहीं। ठहाका लगाते हुए एक घटना से दूसरी सुनाते वक्त वह उस जिजीविषा का संचार करते हैं जो उन्हें उस ‘ग्रैंड ओल्ड मैन’ से प्राप्त हुई। वह अक्सर इसी किस्म के वाक्यों से अपनी बात खत्म करते हैं, जैसे ‘क्या आदमी है सर, मजा आ गया, शुध्द हो गए सेवा करके।’
मेरे अजनबी मित्रो, क्या फूल, पशु और हवा बचे रह सकेंगे? आप जो कोई भी हों, जहां कहीं भी हों, मुझे बताने के कृपा करें। कुछ मौन आवाजें मुझे आश्वासन देती हैं, ‘कोई चिंता नहीं, हमारे साथ आओ। हम इसलिए लड़ रहे हैं क्योंकि अगर ये समाप्त हो गए तो हम भी खत्म हो जाएंगे।’ जाने कितनी स्त्रियां दुनिया भर में इसी क्षण अपनी बालकनी में पौधों को पानी दे रही होंगी, कितने बच्चे अपने पालतू पशुओं के साथ खेल रहे होंगे और कितने प्रेमी युगल ताजा फूलों से एक दूसरे को संवार रहे होंगे।
कम से कम इस वक्त तो हुजूर वर्नैक्युलर के पैरोकारों की जीत ही नजर आती है। अब स्पाइडरमैन हिंदी बोलने लगा है, बॉण्ड भोजपुरी बोल रहा है, मोबाइल फोन में द्विभाषी कीपैड आने लगे हैं, भाषाई अखबारों ने उस इकलौते अंग्रेजी अखबार को प्रसार युध्द में पीछे छोड़ दिया है जिसका नाम सर्वोच्च दस अखबारों की सूची में आता है और अब तो टेलीविजन भी देसी हो चला है।
लेकिन हुजूर, आप तो पुनर्उपनिवेशित मस्तिष्कों की कमजोरियों और आकांक्षाओं से अच्छी तरह परिचित होंगे। आप तो जानते ही हैं कि हम में से कई आधुनिक बनने के चक्कर में अपने बेडरूम में भी अपनी भाषा बोलने से कतराते हैं। संभव है कि वर्नैक्युलर के पैरोकार लोग ही भाषा संबंधी आत्मसम्मान को जगा सकें। जबकि, आप स्तालिन जैसे लोग यह सोचते हैं कि यह सिर्फ वक्त की बात है और अंतत: वर्नैंक्युलरवादियों की हार होगी। वर्नैक्युलर शावनिस्ट अभी जिंदा हैं। हम जीतें या खत्म हो जाएं, मैं आपके हर कदम पर आपकी बौध्दिक हार का वादा करता हूं, और एक ऐसी लड़ाई का जिसे अंजाम तक हम पहुंचाएंगे।
प्रताप ने फिर से मुझे फोन किया। उन्होंने बताया कि अस्पताल के जिस कमरे में त्रिलोचन भर्ती थे वहां उन्होंने भारतीय भाषाओं के बारे कुछ लोगों को बातचीत करते सुना। वह अचानक अपने बिस्तर पर उठ बैठे और बोले, ‘मत घबराओ, बस ऐसी बोलियों को विकसित करो जिनके बारे में लिखा नहीं गया है। मल्लाह, किसान और गड़रिये की भाषा खोजो, अपढ़ और धोबियों की भाषा खोजो। उनके शब्दों को अपनी भाषा की मुख्यधारा में ले आओ। फिर देखो, तुम्हारी भाषा इतनी मधुर हो जाएगी कि उसके संगीत की विजय होगी।’
मैं जानता हूं कि वह माओरी लेखक किस चीज को लेकर इतना प्रसन्न था। वह उसकी जड़ों से उसका जुड़ाव है। अक्सर इस धरती पर यात्रा के दौरान मैं उसके और एक साधारण किसान या साधु के बीच दिखने वाली समानताओं को लेकर चकित हुआ हूं। त्रिलोचन मुझे हर जगह दिखाई देते हैं, कम से कम हमारे देश के बड़े शहरों के बाहर।
उम्मीद है कि नए तरीके ईजाद किए जाएं, बोलियों के लिए नया व्याकरण और शैली बने, शब्दकोश तथा कंप्यूटर की सहायता ली जाए, लेकिन इन सबसे बढ़ कर नई अस्मिताएं पनपें। यह हमारे वक्त में एक ऐसा क्षण है जब, रुस्तम की कविता के शब्दों में हमें ‘अपने पुरखों पर ध्यान लगाना होगा।’
हरिद्वार में वह शाम जैसे-जैसे गहराती गई, मेरे हमसफर एक युवा फिल्मकार तुषार त्रिलोचन के पास उनका ऑटोग्राफ लेने वापस गए। मैंने खुद से वादा किया कि अगली बार अपनी यात्रा के दौरान मैं पास में ही स्थित कलियार पीर की दरगाह पर जाऊंगा। उसके बाद हम सड़क किनारे एक नदी के पास कुछ देर के लिए रुके। मेरे जैसे छद्म-धार्मिक, छद्म-वामपंथी, छद्म-बौध्दिक और निश्चित तौर पर एक अछद्म वर्नैक्युलर शावनिस्ट ने हाथ जोड़ कर गंगा मैया से शाम की आरती में शामिल न होने के लिए माफी मांगी।
दास कबीर ने कहा था, ‘तीरथ ना करिए…।’ मेरे लिए त्रिलोचन तीर्थ हैं। चारों ओर से घेरती शाम के साये में हम गंगा किनारे खड़े थे, मुझे उस समय उसके प्राचीन जल की गहरी बुदबुदाहट सुनाई दी। उसके साथ ही मैंने उसी शाम को कुछ देर पहले अपने सिर पर त्रिलोचन के हाथों के स्पर्श को फिर से महसूस किया।
आपकी भाषा तो काफी दिल को जलानेवाली है..भाई
हम भी एक भटके हुए बनारसी ही हैं…..
साधुवाद।
बहुत ही उपयोगी और अविस्मरणीय है।
बेहद आत्मीय शैली में हमारे संश्लिष्ट भाषिक-संसार का मुआइना . और लिखिए .