आज रात 12 बजे मैं पटना से मुग़लसराय अपने तीन साथियों के साथ पहुंचा। मुग़लसराय को कभी बनारस से जुदा नहीं मान सका, सो गिरते ही चाय पीकर सबसे पहले पान दबाया। वही रस, जो नौ साल पहले छोड़ आया था। खरामा-खरामा कोहरे की चादर को चीरता हमारा टैम्पू पहुंचा मैदागिन में पराड़कर भवन, जहां रिहाइश का पहले से तय था। आवाज़ लगाई, तो चुन्नू जी बाहर आए। पूरे स्नेह के साथ उन्होंने कमरा दिखाया। काशी पत्रकार संघ के योगेश जी को सूचना दी कि हम सकुशल पहुंच गए हैं और कुछ पेट पूजा के लिए चौक की तरफ निकल रहे हैं।
रात का सवा एक और सड़कों पर दूध वाले, पुलिस वाले घूमते हुए। अचानक परांठे की तेज़ खुशबू आई। साथियों को उम्मीद बंधी कि कहीं कुछ पक रहा होगा। मैंने बताया कि बनारस की सड़कों पर ऐसी गंध आना आम बात है, ज़रूरी नहीं कि जो पक रहा है वो दिख ही जाए। बहरहाल ऐसा ही हुआ। सिर्फ चाय-पान की दुकानें खुली हुईं, भोजन से कुछ मिनट की देरी से चूक गए। शारदा भोजनालय में बरतन मांजे जा रहे थे। बगल में एक चाय की दुकान से तेज़-तेज़ आवाज़ें आ रही थीं, ‘… देखिए विचारधारा की जहां तक बात है, संघ के लोग…’, और आवाज़ कोलाहल में बदल गई। हम घाट की ओर बढ़ते गए और रात दो बजे चल रही एक वैचारिक बहस से चूक गए। घाट पर निस्तब्ध शांति थी, एक ही चौकी पर एक छतरी के नीचे एक आदमी और एक कुत्ता बराबर सो रहे थे, जैसे बरसों का रिश्ता हो। सन्नाटे को चीरती किसी नाव के भीतर से दो अदृश्य लोगों के फुसफुसाने की आवाज़ आ रही थी, ‘…हम कहली कि कोतवाली क भौकाल हम्मे मत दा…।’
हमने सोचा लौट कर चौक पर ही कुछ खाएंगे। जिस दुकान से बहस की आवाज़ें आ रही थीं, हम वहां पता करने गए कि क्या कुछ खाने को मिलेगा। भीड़ उतनी ही थी, लेकिन एक पक्ष शायद कूच करने की मुद्रा में था। अचानक धोती-कुर्ता और बंडी पहने एक अधेड़ पंडितनुमा जीव वहां से शुभ रात्रि कह कर निकलने लगे। सवा दो बज चुके थे। पीछे एक दाढ़ी वाले जवान सज्जन दिखे जिनसे वे कुछ देर पहले उलझे हुए थे। पंडितजी के मुड़ते ही उन्होंने बगल में खड़े दशाश्वमेध घाट के एसओ से कहा, ‘आज फिर गुरुजी पेलाने से बच गए।’ और ज़ोर का सामूहिक ठहाका लगा।
चौक की ओर लौटते वक्त हमने सोचा कि मक्खन टोस्ट से ही काम चला लिया जाए। बिल्कुल मणिकर्णिका की गली के सामने बेंच पर बैठे ही थे कि पीएसी की एक ट्रक में भरकर पुलिसवाले आए। शायद शिफ्ट चेंज का टाइम था। ये यहां नियमित होता है। बरसों से होता आया है। तीन राउंड टोस्ट और तीन चाय से मन तो नहीं भरा, हां पेट ज़रूर भर गया। ऐसा टोस्ट बनारस के अलावा मैंने कहीं नहीं खाया। पहले लंका पर टंडन जी के यहां खाता था। बरसों बाद मक्खन की वो परत ज़बान पर चिपकी थी। हमारे साथियों ने भी मक्खन लगाने के उस उदार अंदाज़ को तीन राउंड खाकर सम्मान दिया।
आगे बढ़ते ही पान की बारी थी। बेहद करीने से, बनारसी संस्कार में पगा पान खाकर साथी मदमस्त हुए। मैंने पूछा कि मलइयो कितने बजे मिलेगा। साथियों को मलइयों के दर्शन से रूबरू करवाया। सभी ने तय किया कि दो घंटे बाद साढ़े पांच बजे मलइयो खाने वापस आना है, फिलहाल कमरे पर चलते हैं। कमरे पर पहुंच कर सभी सोए हुए हैं। रात के साढ़े तीन बजे कुमार विजय ने चैट पर पूछा कि मैं पहुंच गया हूं क्या, मैंने उन्हें निश्चिंत किया और कल मिलने की बात कही। फिलहाल जग रहा हूं और साथियों के जल्दी जगने का इंतज़ार कर रहा हूं। अब पांच बजने वाला है। नींद नहीं आ रही। क्या करूं… बनारस से निकला आदमी आखिर कहां जाए?
पान कहां का, चित्रा सिनेमा, चौक या गोदौलिया पर गामा का या फिर लंका, रथयात्रा पर केशव का. कमच्छा तिमुहानी पर सायरी माता वाले बिसनाथ तो अब होंगे नहीं.
बनारस की बात ही अलग है…वहीं कुछ ही दूर पर मेरा शहर भी है जौनपुर, इस यात्रा वृतांत से बनारस के साथ अपने शहर की याद आ गई…