परसों 5 अगस्त को अयोध्या जी (अयोध्या क्षेत्र के वासी इसे ऐसे ही पुकारते हैं) में राम मंदिर का भूमिपूजन होने वाला है। खबर आ रही है कि प्रधान सेवक नरेंद्र दामोदरदास मोदी भूमि पूजन करेंगे और राम मंदिर की नींव में चाँदी की ईंट रखेंगे। कुछ समय बाद नींव में रखी ईंट भुला दी जायेगी। अक्सर यही तो होता है- नींव की चाँदी की ईंटें भुला दी जाती हैं जबकि कंगूरे की मिट्टी की ईंटें शान से सिर उठाये खड़ी रहती हैं।
सुनते हैं राम मंदिर के आन्दोलन में जो लोग कभी चाँदी की ईंट जैसे थे, उन्हें भी नींव में डालकर भुलाये जाने की योजना बन चुकी है। यह समय ही मिट्टी से बनी दोयम दरजे की ईंटों के कंगूरे पर चढ़कर चमकने का है!
मैं जिस क्षेत्र का वासी हूँ, वहां से अयोध्या जी केवल डेढ़ सौ किलोमीटर दूर है। माघ में गाँव से बहुतेरे लोग वहां सरयू नदी में स्नान करने जाते हैं। वही सरयू, जिसका ज़िक्र तुलसीदास के मानस में मिलता है और पूर्वांचल वाले जिसे घाघरा के नाम से भी जानते हैं।
1992 में जब बाबरी मस्जिद को उन्मादी भीड़ द्वारा गिराया गया था, उस समय मेरी उम्र लगभग तीन साल की थी। यह वही समय था जब देश व्यापार के लिए खुल रहा था और लोगों के दिमाग राजनीति और धर्म द्वारा बंद किये जा रहे थे। उदारीकरण और साम्प्रदायीकरण दोनों ही इस दौर में खूब फले-फूले, हालाँकि उदारीकरण की मांग पहले से उठ रही थी और साम्प्रदायीकरण भी धीरे-धीरे विकसित हो ही रहा था पर नब्बे के दशक में यह काम फुल स्पीड में होने लगा।
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो लोगों से किस्से सुनने को मिलते थे। कारसेवकों के किस्से, मुलायम सिंह यादव के गोलीकांड के किस्से, आडवाणी की रथयात्रा और कल्याण सिंह के कारनामों के किस्से। कुछ लोग जो गाँव से, उसके आसपास से कारसेवा में गये थे वे बड़े ही गर्व के बताते थे। हर बात पूरे इत्मीनान से। उन दिनों बस यही समझ में आता था कि उन्होंने कोई बड़ा महान काम किया है।
1992 के करीब 28 साल बाद देश के उच्चतम न्यायालय ने मंदिर के हक़ में फैसला दिया और यह सुनिश्चित हो गया कि अब अयोध्या जी में राम का मंदिर बन कर रहेगा। देश भर के हिन्दुओं में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। लगने लगा कि अब राम राज आ ही जाएगा। आखिर जगतपति राम जब स्वयं उत्तर प्रदेश के अयोध्या जी में विराजेंगे तो ज़ाहिर है फिर दुःख और दरिद्रता तो अपने आप दूर हो जायेंगे।
1992 के बाद देश और दुनिया काफी बदल गयी। संघ और भाजपा ने राजनीति के साथ-साथ राम को भी बदलकर रख दिया।
जिस राम को तुलसीदास जानते थे, वाल्मीकि जानते थे, धीरे-धीरे वे राम नेपथ्य में चले गये। संघ और भाजपा ने अपने लिए एक नये राम का निर्माण किया। वे राम, जो फूलों से कोमल और ब्रज से भी कठोर थे उन्हें धीरे-धीरे केवल कठोर बनाया जाने लगा। राम की भुवनमोहिनी मुस्कान और कोमल काया तस्वीरों के साथ-साथ आम जन के अवचेतन से भी दूर की जाने लगी। राम धीरे-धीरे तस्वीरों में मुस्कान खोते गये और सिक्स पैक ऐब्स वाले लड़ाके पुरुष में बदल गये। पूरे चेतन तरीके से यह काम किया गया क्योंकि तेजी से होते ध्रुवीकरण में सौम्य राम की भूमिका फिट नहीं बैठ पा रही थी। आखिर जब तक राम बलिष्ठ और क्रोधित नहीं दिखेंगे, तब तक जय श्रीराम का नारा लगाकर हंगामा कैसे मचाया जा सकता है। सीताराम या जय सियाराम कब जय श्री राम में बदल गया, कुछ पता ही नहीं चला।
पिछले करीब तीन दशक की राजनीति पर गौर करें तो हम पाते हैं कि जिस सनातन में एक ईश्वर, एक किताब की कभी प्रमुखता नहीं रही, अन्यान्य धाराएं पुष्पित और पल्लवित होती रही हैं वहीं उसे अब एक एक ईश्वर, एक झंडे के नीचे लाने की कोशिश की जा रही है। देखा जाय तो अब तक यह प्रवृत्ति अब्रह्मिक धर्मों के लोगों की रही है पर अब शायद यहां भी कुछ लोग ऐसा करना चाहते हैं। ऐसा शायद इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि ऐसा होने पर आम जन को धार्मिक रूप से हाँकना ज्यादा आसान होगा।
एक बार मेरे एक दोस्त ने ऐसे ही मज़ाक-मज़ाक में कहा था कि कृष्ण और राम में यही अंतर है कि कृष्ण के नाम पर कभी दंगे नहीं हुए, जबकि आम दंगों में भी (अगर स्वरूप धार्मिक है) अटक से लेकर कटक तक के लोग बेझिझक जय श्री राम का नारा लगा देते हैं। देखा जाय तो कृष्ण ज्यादा राजनीति जानते थे, शायद राम से बड़े कूटनीतिज्ञ भी थे पर ऐसा क्या हुआ कि राम का नाम हंगामा करने और दंगों में दूसरे धर्म के लोगों पर हमला करने का पर्याय बना दिया गया? आखिर ऐसी कुत्सित योजना किसके दिमाग की उपज थी?
आजकल न्यूज़ में चल रहा है कि कोई फ़ैज़ खान है जो मध्य प्रदेश से पैदल चलकर अयोध्या आकर नींव में मिट्टी डालना चाहता है। तमाम कट्टर हिन्दू इसे गलत ठहरा रहे हैं। कुछ तो फै़ज़ खान को घेरने की भी बात कर रहे हैं। सोचिए, कभी अल्लामा इकबाल ने राम को इमाम-ए-हिन्द कहा था। आज भी अयोध्या जी में तमाम मुसलमान परिवार फूल बेचकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं और राम का जयकारा भी लगाते हैं।
खुद राम का चरित्र समन्वयकारी का रहा है। यक्ष, नाग, गन्धर्व, देव, मानुष, असुर, बानर सबसे उन्होंने मेल-मिलाप किया, सबको साथ लेकर चले। उसी राम के नाम पर अगर कोई खान या मुहम्मद आकर भूमि पूजा देखना चाहता है, नींंव में मिट्टी डालना चाहता है तो लोगों को अतिशय दुःख हो रहा है।
बात-बात में तमाम कट्टर हिंदूवादी इंडोनेशिया का जिक्र करना नहीं भूलते। वे यह भी बताना नहीं भूलते कि इंडोनेशिया में इस्लाम का प्रधान्य होने के बाद भी रामलीला होती है, हनुमान और बाली को पूज्य माना जाता है। इंडोनेशिया के किसी राजनयिक की इस बात का कि रामलीला और रामायण हमारी संस्कृति हैं, का पोस्टर बनाकर सोशल मीडिया पर घुमाया जाता है जबकि जब उसी समावेशी संस्कृति को अपने यहां लागू करने की बात आती है तो धर्म पर खतरा आन पड़ता है।
इसी तरह से बैंकाक के एयरपोर्ट की समुद्र मंथन की तस्वीर तो वायरल की जाती है पर नेपाल के प्रधानमन्त्री अगर राम को अपने यहाँ का बताते हैं तो उन्हें गालियाँ मिलती हैं और काशी में किसी को नेपाली बनाकर विरोधस्वरूप उसका मुंडन करा दिया जाता है। राम का चरित्र जितना सीधा और आदर्शवादी था, उनके नये मानने वालों का चरित्र उसके ठीक उलट कुटिल और विरोधाभासी है। दुर्भाग्य की बात बस यह है कि इसी विरोधाभास और कुटिलता को धर्म का पर्याय बनाने की कोशिश भी खूब हो रही है।
इस देश की एक और विडम्बना यह भी है कि आरएसएस और भाजपा से इतर जो दूसरा प्रमुख धड़ा है जो अपने को लिबरल कहता है, उसके भी विरोधाभास कुछ कम नहीं हैं। लिबरल होने के नाम पर जिस तरह की वैचारिक कट्टरता का ये शिकार हैं उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं और मिले। इन तथाकथित लिबरल लोगों ने भी जो वैचारिक उल्टियाँ की हैं उसने भी संघ परिवार की मदद ही की है। सेक्युलरिज्म के नाम पर तुष्टिकरण का खेल लम्बे समय से इस देश में खेला जाता रहा है। जब यह खेल हद से गुज़रने लगा तो फिर एक तरह की लामबंदी भी दिखने लगी। आज संघ की अगुवाई में अगर दक्षिणी खेमा मुखर होकर झंडा-डंडा हाथ में लिए नारा लगा रहा है और अयोध्या में मंदिर निर्माण को हिन्दू राष्ट्र की शुरुआत बता रहा है, तो इसमें लिबरल खेमे का बहुत बड़ा योगदान है। इन्होंने ही मंदिर बनाम मस्जिद, मंदिर जरूरी या अस्पताल, जैसे व्यर्थ के जुमले उछालकर संघ परिवार को ऐसे मौके दिये हैं जिससे वर्तमान में ध्रुवीकरण तेजी से बढ़ रहा है।
ध्रुवीकरण का यह सिलसिला आगे जाकर कम होगा, ऐसा भी नहीं लगता। जब तुर्की के हया सोफिया चर्च को मस्जिद बनाये जाने की तुलना आप सुप्रीम कोर्ट की इजाज़त से बनने वाले राम मंदिर से करेंगे तो उसके दुष्प्रभावों के लिए तैयार होना चाहिए। तेजी से अप्रासंगिक होते जा रहे वाम धड़े और तथाकथित लिबरल लोगों के पास न तो राजनैतिक जमीन बची है और न ही कोई वास्तविक मुद्दा। प्रासंगिक दिखने के लिए वे ऐसे फ़ालतू की बहसें करते रहेंगे, आम जनता भ्रमित होकर ध्रुवीकृत होती रहेगी जबकि राम धार्मिक पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम से राजनैतिक पुरुष और दुश्मनों के संहारक के रूप में बदलते रहेंगे।
लेख लिखे जाते रहेंगे, चर्चाएँ होती रहेंगी और समाज अपनी गति से चलता हुआ और ज्यादा ध्रुवीकृत होता रहेगा। शायद बदलते अवसरवादी राजनैतिक परिदृश्य में इस समाज का यही होना था।