आस्ट्रेलिया ने जनवरी में पानी की कमी और कार्बन उत्सर्जन का बहाना बनाकर दस हजार ऊंटों को मौत के घाट उतार दिया था. वजह इतनी ही थी कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ने ऊंटों के सामूहिक क़त्ल के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने को भी वजह बताया था. पर क्या यह वाक़ई तार्किक है या बहाना है? यह धरती महज इंसानों की है? या दूसरे जीवों का भी इस पर हक़ है?
इस वर्ष को कई लोगों ने आपदाओं वाला बताया है. महामारी से लेकर भूकंप तक और दावानल से लेकर युद्ध के अंदेशे तक, सब कुछ तो बुरा हुआ है. पर मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए भी हुआ है कि इस दुनिया में ईश्वर हो न हो, पर कुदरती इंसाफ़ या पोएटिक जस्टिस तो है ही.
बतौर इंसान हम सिर्फ़ खुद के बारे में सोचते हैं. इस साल की शुरुआत ही इंसान ने अपना क्रूरतम चेहरा दिखाते हुए की थी तो आपको क्यों लगता है कि प्रकृति आपके लिए उदार होकर सोचेगी? क्या आप जनवरी के पहले पखवाड़े की वह ख़बर भूल गए, जो ऑस्ट्रेलिया से आई थी? तब, ऑस्ट्रेलिया में अधिकारियों ने तय किया था कि (10 जनवरी को) कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मारकर ख़त्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी-सी थी कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं.
ऑस्ट्रेलिया सरकार ने तब इन ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने को भी वजह बताया था, पर क्या यह वाक़ई तार्किक था या बहाना था?
ऑस्ट्रेलियाई अधिकारियों ने ऊंटों की हत्या के लिए हेलिकॉप्टर लगाये थे, पर तब ऑस्ट्रेलिया दावानल से परेशान था और मुझे आज भी वहां के प्रशासन का यह कदम अबूझ मालूम पड़ रहा है.
अनांगू पित्जानत्जारा यान्कुन्त्याजारा (एबोरिजनल यानि मूलनिवासी आबादी के लिए बना स्थानीय और विरल आबादी का इलाका) के कार्यकारी बोर्ड के मुताबिक, कान्यपी के उनके इलाके में ये ऊंट उनके समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे. ये ऊंट उनके एयरकंडीशनर तोड़ देते थे (पानी की तलाश में) और घरों की बाड़े को भी नुकसान पहुंचा रहे थे.
एक ऐसे देश (और महादेश) में, जहां, बकौल सिडनी विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के, नवंबर से लगे दावानल में कई करोड़ जानवर जलकर मर गये हों, बेकुसूर ऊंटों को जान से मारने का फैसला समझ से परे था.
असल में, ऑस्ट्रेलिया में ऊंटो को हमेशा से नफरत की निगाह से ही देखा जाता रहा है. उनको आक्रमणकारी प्रजाति (इनवेजिव स्पीशीज) माना जाता है और उनके साथ करीबन वैसा ही बरताव होता है जैसा हम भारत में खर-पतवार या चूहों के साथ करते हैं.
ऊंट एक बार में, वो भी तीन मिनट में करीब 200 लीटर पानी पी जाते हैं. समझिए 20 बाल्टी. पानी के संकट से जूझते महादेश में इतना पानी वाकई काफी है.
यही नहीं, ऑस्ट्रेलिया के दस लाख ऊंट (ऊंटों की आबादी) सालाना 20 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं यानी हर ऊंट के लिहाज से दो टन सालाना. इसको ध्यान में रखें तो एक और दिलचस्प आंकड़ा है, एक छोटी कार सालाना 4.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती है. एक बेचारे ऊंट से करीबन दोगुना. इसलिए एक ऊंट को मारकर कार्बन क्रेडिट हासिल करने की बनिस्बत इस आंकड़े पर निगाह डालकर हम इस बकवास पर सिर ही फोड़ सकते हैं.
चूंकि ऑस्ट्रेलिया दुनिया भर में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक देश है, तो उस पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का भी दबाव है. पर इसके लिए कार की संख्या कम करने के बजाय उसे ऊंटों को मारना अधिक मुफीद लग रहा है?
विडंबना यह है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार कार्बन उत्सर्जन कम करने के वास्ते न तो अपने कोयला आधारित उद्योगों पर लगाम लगाने को तैयार है न ऑटोमोबाइल्स पर. गौरतलब यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया में कोयला आधारित उद्योग सालाना करीबन 53.4 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन करता है. कोयला खनन ऑस्ट्रेलिया के लिए बेहद अहम है, पर कार्बन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में इसका हिस्सा इसकी पूरी अर्थव्यवस्था से भी अधिक है.
और इस तर्क के आधार पर, इंसानों के खाने-पीने के सामने आने वाली हर नस्ल, हर प्रजाति को जड़-मूल से खत्म कर देने का, या अनुचित ढंग से कुछेक हजार जीवों को मार डालने का एक संदर्भ बिंदु तो मिल ही गया है.
दुनिया भर में अगर यह तर्क चल निकला तो सोचिए जरा दक्षिण एशिया में क्या होगा. इस तर्क के मुताबिक तो भारत-बांग्लादेश-थाइलैंड-श्रीलंका-नेपाल जैसे धान उत्पादक देशों के किसानों को भी गोली मारनी होगी क्योंकि उनके धान के खेतों में पानी की भी खपत होती है और धान के खेतों के साथ उनके पशुधन से सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित होता है.
अगर मुख्यधारा के विकास के नाम पर नियामगिरि जैसे किसी इलाके में स्थानीय आबादी आपके सामने रोड़े अटका रही है तो गोली चलाकर मामला सुलझाना आसान है?
यह बात दूर की कौड़ी है पर फिलहाल कई हजार ऊंट अपनी जान गंवा चुके हैं. ऊंट न तो विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं, न बोल सकते हैं. उनको दौड़ाकर गोली मारना आसान भी है. पर उन बेजुबानों की आह में असर तो रहा ही होगा.