अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
दुष्यंत कुमार की लिखी इन पंक्तियों को आज की परिस्थितियां बख़ूबी मुकम्मल कर रही हैंं। घर में दरारें हमेशा से रही हैं, उनको छिपाने के लिए इश्तहार भी हमेशा से लगाए जाते रहे हैं पर अब ये दरारें इतनी बड़ी और गहरी हो चुकी हैं कि घर को खोखला और कमज़ोर बना रही हैं। फिर भी मुख्यधारा की राजनीति और मीडिया दोनों बड़ी ही बेशर्मी से लगे हुए है इश्तहार चिपकाने में।
देश में महामारी की त्रासदी जारी है। देश के अलग-अलग क्षेत्रों, समाजों, वर्गों पर इसका अलग-अलग स्तर का प्रभाव पड़ रहा है और कई की स्थिति भयावह है। देश में कोविड केसों की संख्या का आंकड़ा 10 लाख पार हो चुका है, सामुदायिक संक्रमण के सभी लक्षण अब सामने हैंं। अधिक घनत्व वाले राज्यों में स्तिथि काफी गंभीर है, रोज़ाना सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य सुविधाओं की नाकामी की दर्दनाक तस्वीरें सामने आ रही हैं, महामारी का दंश झेलने में सबसे आगे खड़े हमारे चिकित्सक और नर्स समुदाय अब भी आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता और अपने वेतन की मांग को उठा रहे हैं, पर इस संकट में वे अपने कर्तव्यपथ से भटके नहीं। इन सबके बीच जिनको सबसे अधिक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए था वे दूर बैठकर केवल सत्ता की मलाई का सेवन कर रहे हैंं।
असम और बिहार के लोगों का जीवन हर वर्ष की तरह इस बार भी बाढ़ में डूब रहा है पर उनकी सुध न तो ठीक प्रकार राष्ट्रीय मीडिया ले रहा है न ही हमारे राजनीतिक प्रतिनिधि। 19 जुलाई तक जारी हुए आंकड़ों के अनुसार असम में 79 लोगों की जान इस विनाशकारी बाढ़ ने ले ली है, राज्य के 26 जिलों के 2678 गाँव इसकी चपेट में हैंं और हजारों एकड़ की खेती वाली ज़मीनें जलमग्न हो चुकी हैंं। बिहार में भी करीब 3 लाख लोगों पर खतरा है, राज्य की सभी मुख्य नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर प्रवाहित हैं। महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ सामाजिक संकटों की भी कोई कमी नहीं है।
ऐसा नहीं है कि एक समाज में समस्याएं नहीं आतींं पर परेशान करने वाली बात ये है कि जिस मौके पर समाज को एकजुटता का प्रदर्शन करना चाहिए था वहाँ अब भी आंतरिक कलह कम नहीं हो रही है। एक ओर किसी क्षेत्र के प्रशासन द्वारा आम जन को प्रताड़ित करने की तस्वीरें विचलित करती हैंं तो दूसरी ओर लाखों की संख्या में घर लौट चुके मजदूरों पर आजीविका का खतरा और भयानक हो गया है। इसके साथ ही विश्वविद्यालय के छात्रों की अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को आयोजित करवाने जैसे आदेशों ने विद्यार्थियों के बीच मौजूद संसाधनों की असमानता की खाई को और चौड़ा करने का काम किया है और उनके मानसिक तनाव में वृद्धि की है।
लेकिन ठहरिए, ये सभी समस्याएंं, मुद्दे असल में सतही हैंं, इनकी दरारें तो खुद ही भर जाने वाली हैंं। हमारे जनप्रतिनिधियों और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के लिए इन संकटों से भी बड़ा एक संकट है, वो है राज्य सरकारों में अपने विधायक बचाने का, दूसरों के विधायक खरीदने का, इसका दोष उस पर मढ़ने का, आज की गलतियों की वजह बीते कल में खोजने का। और इन सभी संकटों से पार पाने में हमारे माननीय नेताओं का बेहतरीन साथ देता है देश का राष्ट्रीय मीडिया जो तुरंत इन्हें कवरेज देकर यकीनन ही इनका सम्मान करता है। जिस नाज़ुक वक़्त पर ज़रूरत थी सुबह से शाम, हर बुलेटिन, हर प्राइम-टाइम में लाइव कवरेज किये जाने की कोरोना संक्रमण के बढ़ते प्रकोप पर, लोगों के बीच जागरूकता संबंधी बातें पहुंचानी की, बाढ़ के ज़मीनी हालात पर कैमरे के लगातार नज़र रखने की, सबसे अधिक हाशिये पर जो थे उनकी आवाज़ों को अपने चैनलों के माइक के ज़रिये सामने रखने की, उस वक़्त उन्होंने चुना विधायकों का क्या स्कोर हो गया ये दिखाया जाए। टेस्ट मैच की तरह पांच दिन यही नाटक चलता रहा जब देश के अन्य हिस्से के कई हज़ार लोग अपने जीवन को बचाने के संघर्ष में लगे हुए थे।
घर की दीवारों पर दरारें कई हैं, इनमें से असम और बिहार की बाढ़ का पानी भी रिसने लगा है, डॉक्टरों की मांगों की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं, प्रवासी मजदूरों के पैरों के छालें भी नज़र आते थे; पर इन सबको कलात्मक रूप से अनदेखा करते हुए राजनीतिक दल और मीडिया इन दरारों पर इश्तहार लगाने में व्यस्त हैं। ये इश्तहार कभी राजस्थान के होंगे, कभी पाकिस्तान के, कभी हिंदू मुस्लिम के तो कभी किसी बॉयकाट के। आप भी इश्तहार देखकर खुश रहिए पर ज़ेहन में एक बात अंकित कर लीजिए कि जब घर की ये दीवारें ढहेंगी तब ये इश्तहार भी बिख़र जाएंगे।
सुमन साहू दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. (राजनीति विज्ञान) की विद्यार्थी हैं
बहुत सही बात.. आज कल मीडिया सिर्फ नेताओं या सरकार की गुलाम बनकर रह गयी हैं इसलिए तो बाकी लोगों की समस्याओं पर इनकी नज़र पड़ना तो दूर उसकी तरफ ध्यान तक नहीं जाता… ऐसा अब ज्यादा दिन नहीं चलेगा.. सुमन जी अच्छा पोस्ट हैं और सोच तथा विचार काफी विकसित।