राग दरबारी: भारतीय मीडिया, संपादक और उसकी नैतिकता


कल हफिंगटन पोस्ट इंडिया ने एक खबर छापी कि द हिन्दू ग्रुप ने अपने सौ से अधिक पत्रकारों को 25 जून तक इस्तीफा देने को कहा है जिसमें मुबंई एडिशन के भी 20 कर्मचारी शामिल हैं. द हिन्दू अखबार समूह के उन सौ कर्मचारियों में से अधिकतर पत्रकार हैं. कोरोना शुरू होने के बाद अपवादों को छोड़कर लगभग हर बड़े-छोटे मीडिया समूह ने अपने कर्मचारियों की छंटनी की है, लेकिन इसमें सबसे दुखद पहलू यह है कि किसी भी अखबार या टीवी चैनल के किसी संपादक को अपनी नौकरी नहीं गंवानी पड़ी है. मुंबई से निकलने वाले मिड डे में दो दिन पहले वरिष्ठ पत्रकार एजाज़ अशरफ ने अपने कॉलम में कोलकाता के टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) के स्पोर्ट्स एडिटर प्रतीक बंदोपाध्याय का उदाहरण देकर अपनी बात कही है.

TOI दिल्ली के एक एडिटर ने प्रतीक को फोन करके कहा कि आप अपने विभाग से एक वैसे आदमी का नाम बताओ जो काम न करता हो, उसे बाहर निकालना है जिससे कि हर महीने मैनेजमेंट को पचास हजार रुपए की बचत हो सके. एडिटर के इस प्रस्ताव पर प्रतीक का कहना था कि हम चारों पिछले आठ वर्षों से मिलकर काम कर रहे हैं और बेहतर काम कर रहे हैं. आपको निकालना है तो मुझे निकाल दीजिए, मुझे हर महीने 94 हजार रुपए मिलते हैं, लेकिन किसी के ऊपर कामचोर या नालायक का तमगा लगाकर क्यों निकालना चाहते हैं? प्रतीक का यह भी कहना था कि मैं इसके लिए तैयार नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरे साथ काम करने वाले एक सहयोगी की थोड़े दिन पहले शादी हुई है, किसी का ईएमआइ चल रहा है, अभी थोड़े दिन पहले सबने अपना कैरियर शुरू किया है. उन्होंने जवाब दिया कि अगर उन्हें आप यह कहकर निकालते हैं तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए मैं चाहता हूं कि अगर आपको निकालना ही हो तो मुझे निकाल दीजिए.

प्रतीक के इस जवाब पर दिल्ली से कॉल कर रहे संपादक ने उनसे स्थानीय संपादक से मिलकर बात करने को कहा. स्थानीय संपादक का भी यही कहना था कि तुम से तो मैनेजमेंट को कोई परेशानी नहीं है, किसी एक का नाम देकर अपना काम करते रहो. संपादक की सलाह पर प्रतीक का जवाब था, ‘मेरी पत्नी सरकारी स्कूल में शिक्षिका है जिसकी तनख्वाह पचास हजार रुपए है और हमारी आठ साल की एक छोटी सी बिटिया है, हम अपने मां-बाप के घर में रहते हैं जिसके लिए मुझे किराया नहीं देना पड़ता है, इसलिए आप मुझे निकाल दीजिए, उन सबका परिवार चलता रहेगा.’

प्रतीक के जवाब को सुनकर हमेशा की तरह संपादक ने उसे नैतिकता पर बड़ा जोरदार ज्ञान दिया, खुद का भला-बुरा सोचने को कहा और जब प्रतीक अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुआ, तो उसने उनके सामने एक प्रस्ताव रखाः तुम इस्तीफा मत दो, मैनेजमेंट को निकालने दो, इससे नियम के अनुसार तुम्हें एक महीने की अतिरिक्त तनख्वाह मिल जाएगी! इस पर प्रतीक बंदोपाध्याय का जवाब कुछ वैसा था- मेरे लिए पैसे से ज्यादा अपनी नैतिकता को बचाना ज्यादा जरूरी है.

प्रतीक ने इस्तीफा दे दिया. बीते 15 जून को उनका अंतिम कार्यदिवस था.

पिछले तीन महीने से हम लगातार सुनते आ रहे हैं कि आज फंलाने मीडिया हाउस से इतने लोगों को इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो उस अखबार से इतने पत्रकारों को नौकरी छोड़ देने के लिए कहा गया. एक भी संपादक अगर प्रतीक जैसा होता तो क्या इतने लोगों की नौकरी जाती?

जिस द हिन्दू अखबार की तारीफ में हम कसीदे काढ़ते हैं, उस अखबार के बारे में हफिंगटन पोस्ट ने खबर दी है कि वहां तो किसी कर्मचारी को लिखित नोटिस भी नहीं दिया गया बल्कि वहां तो मौखिक तौर पर बताया जा रहा है कि 25 तारीख तक या इस महीने की 30 तारीख तक इस्तीफा सौंप दो. अंदाजा लगाइए कि पत्रकारों को यह बात कौन कह रहा होगा या फिर कर्मचारी को इस्तीफा देने की बात कौन कर रहा होगा? हम इसकी भी कल्पना करें कि जब संपादक अपने मातहत पत्रकारों को इस्तीफा देने को कह रहा होगा तो उसके चेहरे पर वही नैतिकता, आभामंडल व जिंदगी में संभलकर चलने का सूत्र वाक्य रहता होगा या फिर अपनी मजबूरी की दुहाई देते हुए वह बात कह रहा होगा!

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कोरोना के इस दौर में जब रोजगार की मारामारी है, तब देश के अधिकांश मीडिया समूहों से कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. मीडिया घरानों का तर्क है कि जिस रूप में विज्ञापन का नुकसान हुआ है वैसे में इतने अधिक कर्मचारियों का बोझ सहन करना उनके लिए असंभव हो जा रहा है, इसलिए वे छंटनी कर रहे हैं. पहली नजर में ऐसा लगता है कि जब उन्हें विज्ञापन मिल ही नहीं रहा है तो इतने कर्मचारियों का बोझ मीडिया घरानों को क्यों बर्दाश्त करना चाहिए. कुल मिलाकर मीडिया घरानों के इस तर्क से अधिकतर लोग सहमत दिख रहे होते हैं, लेकिन सवाल है कि जब किसी कर्मचारी को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा होता है तो क्या कभी किसी मीडिया घराने ने यह बात बताई है कि आज के दिन उसकी बैलेंस शीट क्या है?

अगर वे अपनी बैलेंस शीट शेयर कर दे तो हम भौचक रह जाएंगे कि जिस नुकसान की वे दुहाई दे रहे हैं, वास्तव में वह आमदनी में आयी गिरावट है न कि असली घाटा. आखिर मालिक की इस धनलिप्सा में कोई संपादक कैसे शरीक हो सकता है? 

एक संस्थान के रूप में संपादक के पद का पतन तो बहुत पहले ही शुरू हो गया था लेकिन इसे अमली जामा पहनाया टीओआइ ग्रुप के समीर जैन ने. टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन संपादक दिलीप पडगांवकर ने उस समय की चर्चित पत्रिका डेबोनेयर में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश का दूसरा सबसे पावरफुल पद टाइम्स ऑफ इंडिया का संपादक होना है. स्वाभाविक रूप से पहले नंबर पर देश के प्रधानमंत्री थे, लेकिन पदक्रम में नंबर दो से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने की कहानी उससे ज्यादा त्रासद है जिसमें सबसे बड़ी भूमिका मीडिया घराने के मालिकान की तो है ही, कुछ हद तक इस पतन के लिए संपादक के पद पर बैठे लोगों ने भी पतन गाथा में अपना योगदान दिया है. इसका कारण यह भी है कि संपादकों ने कभी मालिक से सवाल पूछना ही मुनासिब नहीं समझा कि वह उन्हें बार-बार गलत करने का इशारा क्यों कर रहा है? चूंकि अब संपादक का पद किसी योग्यता का मोहताज नहीं रह गया है, इसलिए मालिक के कहे को न मानने का सवाल ही नहीं उठता है!

संपादक और मालिक के बीच के रिश्ते के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण संवाद पायनियर अखबार के तात्कालीन मालिक एल. एम. थापर व विनोद मेहता के बीच का है जिसका जिक्र विनोद मेहता ने अपनी आत्मकथा ‘लखनऊ ब्वॉय’ में किया है.

विनोद मेहता ने लिखा है कि जब मैं पायनियर अखबार का संपादक था, तब हमारे अखबार में छपी खबरों के असर की जानकारी मुझसे पहले एल. एम. थापर को होती थी. विनोद मेहता के अनुसार थापर सोसलाइजर थे जिसे अंग्रेजी बाद में पीटूपी (पेज थ्री पीपुल्स) भी कहा जाने लगा. वे लिखते हैं, “एक बार हमारे अखबार में बिजनेस से जुड़ी कोई खबर छपी. अगले दिन उस खबर पर मुझे कोई प्रतिक्रिया तो नहीं मिली लेकिन खबर छपने के दो दिन के बाद मुझे एल. एम. थापर ने जरूरी बात के लिए बुलाया. जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कहा कि यह गलत खबर है क्योंकि जिसके बारे में यह खबर है, उसने स्वयं मुझसे इस खबर का खंडन किया है, इसलिए मैं चाहता हूं कि जिसने भी यह खबर लिखी है उसका इस्तीफा चाहिए”.

विनोद मेहता ने थापर से उस खबर को सही बताया लेकिन थापर उस खबर के लेखक के इस्तीफा पर अड़े रहे. विनोद मेहता नीचे आकर सीधे उस रिपोर्टर से मिले और उससे बिना शर्त माफी मांगते हुए प्रार्थना की कि वह बिना कारण पूछे इस्तीफा दे दे. उस जर्नलिस्ट ने विनोद मेहता को अपना इस्तीफा सौंप दिया. थोड़ी देर के बाद विनोद मेहता एल. एम. थापर के चैंबर में फिर से दाखिल हुए. इस बार उन्होंने उस पत्रकार का इस्तीफा सौंपा जिसकी वह मांग कर रहे थे. उसका इस्तीफा पाकर थापर खुश नजर आ रहा था. फिर उन्होंने अपना इस्तीफा भी सौंप दिया. अब चौंकने की बारी थापर की थी.

थापर ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा, ‘मैंने आपसे तो इस्तीफा नहीं मांगा था, फिर आप क्यों इस्तीफा दे रहे हो?’ विनोद मेहता का थापर को दिया गया जवाब कुछ इस तरह था- “आइ हैव सीन सो मेनी बास्टर्ड, बट यू आर द बिगेस्ट वन” (मैंने जिंदगी में बहुत से हरामियों को देखा है लेकिन तुमसे बड़ा हरामी आज तक मैंने नहीं देखा). और यह कहकर विनोद मेहता थापर के केबिन से निकल गए.

संपादकों के बारे में तो बहुत सुना है हमने, कितने लोगों ने विनोद मेहता की कहानी के बारे में सुना है? आज के अधिकांश संपादक रीढ़विहीन, परजीवी व अपने लाभ भत्तों के लिए जी रहे हैं. पत्रकारिता में संकट के इस दौर में प्रतीक बंदोपाध्याय जैसे कितने पत्रकारों के बारे में हमने सुना है? जबकि आज तो देश के कई बड़े संपादक राज्यसभा में विराजमान हैं? कुमार केतकर व संजय राउत दोनों महाराष्ट्र से राज्यसभा के सांसद है, जो वहां सत्ताधारी पार्टी है. कुछ महीने पहले तक राज्यसभा के उपसभापति रहे हरिवंश सिंह भी राज्यसभा के सांसद हैं, जिनके पुराने अखबार प्रभात खबर में कर्मचारी को बताये बगैर 30 फीसदी की वेतन कटौती कर दी गयी है. लेकिन क्या आपने एक भी संपादक-सांसद को मीडिया हाउसों में हो रही छंटनी पर सवाल उठाते सुना है?  


जितेन्द्र कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं

आवरण चित्र विकिपीडिया से लिया गया है और हिज मास्टर्स वोयस का लोगो है


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6 Comments on “राग दरबारी: भारतीय मीडिया, संपादक और उसकी नैतिकता”

  1. पत्रकारिता अब व्यापार में तब्दील हो चुकी नैतिकता आर्दश की बात चंद पत्रकारों में बची वह कष्ट भी सह रहे पर राग दरबारी नहीं बन रहे पत्रकार राज्यसभा सदस्य देश सेवा के लिए नहीं बने वह तो घराने की चौगुनी वृद्धि के लिए है।

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