तन मन जन: COVID-19 ‘वैश्वीकरण का रोग’ है जहां चिकित्सक की भूमिका पुलिस को सौंप दी गयी है!


भारत में जन स्वास्थ्य कभी मुख्य मुद्दा रहा ही नहीं! न तो सरकार और राजनीतिक पार्टियों के लिए और न ही जनता के लिए। “विकास” का नाम लेकर देश में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण होता रहा। पांचसितारा होटलों को भी मात देते कथित सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल खुलने लगे और जनता इनके लटके झटके झेलती रही। तमाम व्यक्तिगत परेशानियों के बावजूद देश में अधिकांश जनता ने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को अब स्वीकार कर लिया है।

घोर विषमता एवं असंतोष को प्रखर बना देने वाली नयी आर्थिक नीति के प्रभावी होने के बाद व्यवहार में प्राथमिक स्वास्थ्य अब नागरिकों का मौलिक अधिकार भी नहीं रह गया है। सरकार ने जनता के इलाज की संवैधानिक जिम्मेदारी से लगभग अपने को अलग कर लिया है और आम लोगों को बाजाररूपी गिद्ध के सामने लुटने-नुचने के लिये छोड़ दिया है।

इन दिनों भारत ही नहीं, पूरी दुनिया कोरोना वायरस संक्रमण से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के कष्ट के अलावा नये उभर रहे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपा रही हैं। इन रोगों के उपचार और बचाव के नाम पर सरकारी धन तो खूब खर्च किया जा रहा है लेकिन जनता में भरोसा नहीं बन पा रहा कि वह सरकार और देश के सहारे गम्भीर बीमारी की चुनौतियों का मुकाबला कर सके।

सन् 2000 से पहले भारत के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट देखें तो केन्द्र सरकार के “सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य” का लक्ष्य पूरा करने के लिए “राष्ट्रीय बीमारी सहायता कोष” के गठन का संकल्प था। यह कोष कुछ गम्भीर रोगों से पीड़ित उन लोगों की मदद के लिए था जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। विभिन्न संक्रामक रोगों की रोकथाम, नियंत्रण और उन्मूलन के लिए एक व्यापक रोग निगरानी प्रणाली विकसित किये जाने की योजना थी। इसके लिए होमियोपैथी एवं आयुष प्रणाली को मजबूत करने एवं बढ़ावा देने का भी संकल्प था, लेकिन हुआ कुछ खास नहीं। हमारे राजनेता कहते भी हैं “जुमले हैं, जुमलों का क्या”!

“सबके लिए स्वास्थ्य” की पहली शर्त थी कि सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सशक्त बनाया जाएगा लेकिन इसकी जगह चुनिन्दा प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (एसपीएचसी) ने ले ली। पहले स्वास्थ्य का जिम्मा बुनियादी रूप से सरकार के पास था, अब इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। निजी बीमा कम्पनियां एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इसके लिए धन उपलब्ध करा रही हैं।

हमारे देश में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे बल्कि इन्हें सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। देखा जा सकता है कि विभिन्न संक्रामक रोगों में आर्थिक सुधार एवं सरकार की नयी आर्थिक नीतियों का “जन स्वास्थ्य” पर गहरा असर है। भारत ने 1978 में “अल्माअता घोषणापत्र” पर हस्ताक्षर कर “वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य” का लक्ष्य पाने की प्रतिबद्धता जतायी थी। सन् 1982 में आइसीएसएसआर (इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइन्स रिसर्च) तथा आइसीएमआर (इंडियन काउन्सिल फॉर मेडिकल रिसर्च) के संयुक्त पैनल ने “सबके लिए स्वास्थ्य – एक वैकल्पिक राजनीति” शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। सन् 1983 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था, लेकिन आज तक इस नीति पर न तो अमल हुआ है और न ही किसी भी राजनीतिक दल के मुख्य एजेण्डे में यह मुद्दा शामिल हुआ।

यह वैश्विक आपदा का दौर है। इसमें जहां देश के लोग सरकार से वैश्विक स्तर के पहल की उम्मीद कर रहे हैं वहां सरकार सम्पन्न और बाजार को अहमियत देने वाले देशों की मात्र नकल कर रही है।

कोरोना वायरस संक्रमण के फैलते ही इससे निबटने के लिए कथित वैश्विक उपायों को लागू करने में हमारी सरकार ने जो पहल दिखायी वह घोर अमानवीय एवं अतार्किक था। अचानक “लॉकडाउन”, सोशल डिस्टेन्सिंग, हैन्ड हाइजिन जैसे नुस्खे सरकार के हथियार बने। इस नयी और खतरनाक बतायी जाने वाली महामारी में जहां चिकित्सकों को मुख्य भूमिका मिलनी चाहिए थी वहां यह किरदार यहां की पुलिस ने निभाया। उसके हाथ में कथित “महामारी अधिनियम 1897” तथा “राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन अधिनियम 2005” का डण्डा थमा दिया गया। अपवादों को छोड़ दें तो कुंठित राजनेताओं और अधिकारियों की शह पर दिल्ली तथा अन्य प्रदेशों की पुलिस ने बर्बता के नये उदाहरण पेश किये। सोशल मीडिया पर कई वीडियो और तस्वीरों के सामने आने के बाद पता चला कि लॉकडाउन का सख्ती से पालन करवाने के लिये पुलिस पर सरकार का जबर्दस्त दबाव था जिसकी कीमत देश के निरीह मेहनतकश प्रवासियों ने सबसे ज्यादा चुकायी। लगभग सभी प्रदेशों में कोरोना वारियर चिकित्सक भी पुलिसिया डण्डे के शिकार हुए। एक अध्ययन के अनुसार लॉकडाउन में दिल्ली की पुलिस ने ट्रैफिक नियमों की अवहेलना के नाम पर सबसे ज्यादा चालान इन्हीं कोरोना वारियर डाक्टरों के काटे। इसी दौरान अनेक शान्तिप्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता, जो खास तौर पर एक विशेष समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, पुलिस द्वारा जेल में डाल दिये गये। “लॉकडाउन” पुलिस और सरकार के लिए “आपदा में अवसर” की तरह रहा।

कोरोना वायरस संक्रमण से बचने के “ग्लोबल उपायों” में “सोशल डिस्टेन्सिंग” बेहद चर्चित और प्रभावी रहा। इस शब्द की ताकत देखिए कि दिल्ली के एक वरिष्ठ अधिवक्ता शकील कुरैशी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका को न केवल खारिज कर दिया गया बल्कि वकील पर अदालत का वक्त बर्बाद करने की सजा के तौर पर 10000 रुपये का जुर्माना भी लगाया गया। दरअसल, इस जनहित याचिका में अधिवक्ता ने “सोशल डिस्टेन्सिंग” शब्द में अन्तर्निहित भेदभाव और असमानता पर आपत्ति जतायी थी। यों तो भारतीय समाज पर शुरू से ही सामन्तवाद की छाप रही है। कोरोना वायरस संक्रमण के इस दौर ने समाज में फैले इस सामाजिक भेद, छुआछूत और असमानता को और बढ़ा दिया।

कोरोना वायरस संक्रमण ने सामाजिक अलगाव को वर्षों बाद फिर से ताजा कर दिया। पैसे-दौलत से सम्पन्न एक उच्च वर्ग और उसे अपना आदर्श मानने वाला मध्यवर्ग बोरियत के बावजूद घर पर रहकर सामाजिक दूरी बनाये रखते हुए अपने “राष्ट्र धर्म” का निर्वहन कर रहा था। दूसरी ओर आजीविका छूट जाने और भूख से परेशान होकर किसी भी प्रकार अपने घर लौटने के लिए बेचैन मेहनतकश मजदूर, उच्च वर्ग की नजर में अशिक्षित, असभ्य, गैर जिम्मेदार और कोरोना फैलाने वाले मुख्य कारक के रूप में पेश किये गये। सत्ता और पूंजीपतियों का दलाल मीडिया भारत में कोरोना वायरस संक्रमण के लिए मरकज़ के मुसलमान, प्रवासी मजदूरों को ही जिम्मेवार ठहराता रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस और डॉक्टर से डरकर ये लोग कई जगह हिंसक भी हो गये।

कोरोना वायरस संक्रमण ने और जो भी किया लेकिन उससे दो मनुष्यों के बीच संदेह की दीवार ऊंची और मजबूत हो गयी। कोरोना संक्रमण के नाम पर किसी से हाथ नहीं मिलाना, गले नहीं लगाना, दूरी बनाये रखना जैसी हिदायतों ने प्राचीन भारतीय समाज में फैले छुआछूत, जातिवाद, रंगभेद, नस्ली नफरत की याद दिला दी। इस संक्रमण ने एक दूसरे पर शक या सन्देह करने की बाध्यता को स्थापित कर दिया। और तो और चिकित्सक भी अपने मरीज़ को छूने से डरने लगे। टेलिमेडिसिन जैसे नये बाजारू उपाय प्रभावी होने लगे। वर्षों के प्रयासों से जाति, धर्म के बीच की टूटती नफरत की दीवारें और मजबूत होने लगीं। लोगों ने सीधे तौर पर कोरोना वायरस संक्रमण के लिए एक खास जाति/धर्म/वर्ग के लोगों को जिम्मेवार बताना शुरू कर दिया। इसमें गोदी मीडिया ने आग में घी की तरह काम किया।

कोरोना वायरस संक्रमण ने जिस प्रकार दुनिया में अपना विस्तार किया उसमें वैश्वीकरण का अहम योगदान है। मैं तो कोरोना वायरस संक्रमण को “वैश्वीकरण का रोग” ही कहता हूँ। इस महामारी, उससे बचाव और उपचार पर उपलब्ध वैश्विक जानकारियों का निचोड़ यह है कि चीन (जहां से यह रोग फैला) अभी भी इस महामारी से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक नहीं कर रहा। दो शक्तिशाली देश (अमरीका और चीन) शुरू से ही वायरसजनित रोगों और इससे जुड़े अनेक रहस्यमयी पहलुओं पर शोध के नाम पर बड़ा पूंजी निवेश किये हुए थे। कोरोना वायरस संक्रमण के वैश्विक प्रसार ने इन दोनों देशों के “कारनामों” को उजागर कर दिया। अब खुल कर बाजार, मुनाफा और वैक्सीन का खेल जारी है। इस खेल में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.), बिल गेट्स फाउन्डेशन सहित अनेक व्यापारिक व बाजारू संस्थाएं खुल कर खेल रहे हैं। मानवता को तार तार कर बाजार मुनाफे के धंधे में बेशर्मी से लगा हुआ है।

सवाल है कि जन स्वास्थ्य की इतनी महत्ता और जरूरत के बावजूद भारत में इसकी उपेक्षा की मुख्य वजहें क्या हैं। सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो जन स्वास्थ्य की हालत एक जैसी ही है। देश में “सबको स्वास्थ्य” के संकल्प के बावजूद विगत दो दशक में हम देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को भी खड़ा नहीं कर पाये। उल्टे “सबको स्वास्थ्य” के नाम पर हमने गरीब बीमारों को “बाजारू भेड़ियों“ जैसे निजी स्वास्थ्य संस्थानों के हवाले कर दिया। आम आदमी की सेहत को प्रभावित करने वाले रोग टीबी, मलेरिया, कालाजार, मस्तिष्क ज्वर, हैजा, दमा, कैंसर आदि को रोक पाना तो दूर हम इसे नियंत्रित भी नहीं कर पाये उल्टे जीवनशैली के बिगाड़ और अय्याशी से उपजे रोगों को महामारी बनने तक पनपने दिया। अब स्थिति यह है कि रोगों का भी एक वर्ग और टी.बी., मस्तिष्क ज्वर, पोसियो गरीबों के रोग कहे जाने लगे और मधुमेह, उच्चर क्तचाप, थायराइड, हृदय रोग आदि अमीरों के रोग मान लिये गये। कोरोना वायरस जैसे संक्रमण को मुसलमानों के मरकज़ से जोड़ दिया गया तो एचआइवी/एड्स को अश्वेतों से फैलने वाला रोग बता दिया गया। हम भूल गये कि जन स्वास्थ्य की पहली शर्त है रोग से बचाव। इसमें जाति, धर्म और नस्ल तलाशने की बजाय यदि समाज और सरकार व्यापक बचाव की राह बढ़ती और इसके समग्र पहलुओं पर विचार करती तो स्थिति कुछ और होती।

हमारे देश में आम लोगों के स्वास्थ्य की चिंता में महत्त्वपूर्ण है “आम आदमी की अपने भविष्य के प्रति आशंका”। इसके अलावा बढ़ते रोग, एलोपैथिक दवाओं का बेअसर होना, रोगाणुओं-विषाणुओं का और घातक होना, नये विषाणुओं का आक्रमण, बढ़ती आबादी, बढ़ता कुपोषण, गरीबी आदि गम्भीर समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। इन सबमें सबसे ज्यादा दिक्कतें कुछ लोगों की बढ़ती अमीरी और उसकी वजह से बढ़ती विषमता से खड़ी हो रही हैं। समाधान के रूप में डब्लूएचओ तथा विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) “स्वास्थ्य में निवेश” की बात करता है। उक्त दोनों अन्तरराष्ट्रीय संगठनों ने इसके लिए पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल को अपनाने का सुझाव दिया। इसके विगत तीन दशकों में रोग भी जटिल हुए और विषमता भी बढ़ी। डब्लूएचओ की शुरूआती रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि सम्पन्न देशों में लोगों की स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादातर अत्यधिक अमीरी से उत्पन्न हुईं जबकि तीसरी दुनिया के विकासशील व अविकसित देशों में बीमारी की वजह संसाधनों की कमी, कुपोषण और गन्दगी ही है। डब्लूएचओ को अन्ततः यह मानना पड़ा था कि “अत्यधिक गरीबी” भी एक रोग है और इसे खत्म किये बगैर “सबको स्वास्थ्य” का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता।

बहरहाल, जहां देश को स्वस्थ बनाने के लिए गैर−बराबरी, आर्थिक असमानता को ख़त्म कर जनस्वास्थ्य को जनसुलभ बनाने की योजना पर काम करना था वहां स्वास्थ्य के लिए निजी कम्पनियों को मनमानी की छूट देना, बीमारी से बचने के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग एवं धार्मिक/नस्लीय भेद खड़े करना जैसे उपाय प्रस्तुत किय जाएं और स्वास्थ्य के नाम पर चिकित्सकों को मुख्य भूमिका देने की बजाय पुलिस को और ताकत दे दी जाय तो समझा जा सकता है कि सरकार के लिए यह “आपदा में अवसर” होगा और राजनीतिक स्वार्थपूर्ति का हथियार भी हो सकता है, लेकिन महामारी से बचने का उपाय नहीं।

जन स्वास्थ्य के लिए जन आन्दोलन, जन चेतना और जन भागीदारी की ज्यादा जरूरत है। यदि इसमें जन को दुश्मन के रूप में पेश किया जाएगा तो देश में सेहत को स्थापित करना आसान नहीं होगा। यदि सरकारें पहल नहीं करतीं तो समाज और लोग अपनी सेहत के लिए एकजुट हों और जनस्वास्थ्य की स्वयं उद्घोषणा करें। यदि हम ऐसा नहीं करते तो महामारी के साथ साथ बाजार भी हमारा शोषण करता रहेगा और हम कभी स्वास्थ्य हासिल नहीं कर पाएंगे।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।


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3 Comments on “तन मन जन: COVID-19 ‘वैश्वीकरण का रोग’ है जहां चिकित्सक की भूमिका पुलिस को सौंप दी गयी है!”

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