377 के दुश्मन कौन हैं?


धारा 377  पर आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर जो चीख-पुकार मच रही है, वह इस लिहाज़ से अविवेकपूर्ण, षडयंत्रकारी और एक हद तक सनक भरी है क्‍योंकि अव्‍वल तो 377 का अनिवार्यत: समलैंगिकता से कोई लेना-देना नहीं है, दूजे इस धारा के तहत पिछले 150 साल में न्‍यायपालिका के समक्ष आए कुल 6 मामलों में सिर्फ एक ही में सज़ा तामील हुई है। दिल्‍ली के उच्‍च न्‍यायालय ने जब 377 के खिलाफ़ अपना फैसला दिया था, तो मासिक पत्रिका समयांतर ने एक लंबा शोधपरक लेख प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया था कि धारा 377 को खत्‍म करने की मांग के पीछे इस देश को सेक्‍स इंडस्‍ट्री में तब्‍दील करने की अंतरराष्‍ट्रीय साजि़शें शामिल हैं जिसमें सरकार, एनजीओ और विश्‍व बैंक हमजोली हैं। इस लेख के हिसाब से देखें तो सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला स्‍वागत योग्‍य है जिसने एक बड़ी साजि़श को फिलहाल टाल दिया है। यह लेख आज अचानक प्रासंगिक हो गया है। हम दोबारा यहां साभार उसे प्रकाशित कर रहे हैं।  (मॉडरेटर) 


अभिषेक श्रीवास्तव

आखिर कौन है धारा 377 का असली दुश्‍मन? 

पिछले महीने की शुरुआत में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आया। टीवी, अखबार और बुद्धिजीवी सारे काम छोड़ कर इसी खबर पर पिल पड़े। पान की दुकानों से लेकर बौद्धिक परिचर्चाओं तक यह फैसला छाया रहा। हमें देश के विभिन्न हिस्सों में समलैंगिकों की खुशियां मनाती हुई तस्वीरें दिखाई गईं। कुछ ऐसा उत्सव मना कि ऐसा लगा जैसे समूचे देश को समलैंगिक होने की आजादी मिल गई हो। अचानक ही समलैंगिकों के मानवाधिकारों के प्रति देश भर में भावनाएं उमड़ पड़ीं। विदेशी मीडिया ने भी भारतीय न्यायपालिका के इस फैसले को खूब सराहा और प्रगतिशीलता की दिशा में इसे एक लंबी छलांग करार दिया गया। दिलचस्प बात यह रही कि जो इस फैसले का समर्थन कर रहे थे और जो विरोध, दोनों को ही नहीं पता था कि वास्तव में अदालत में चल रहा मामला क्या था, इसके वादी-प्रतिवादी कौन थे और अपने मूल में यह फैसला है क्या। अधिकतर लोगों को यही नहीं पता कि धारा 377 क्या कहती है और इसे समाप्त किए जाने के क्या निहितार्थ और परिणाम होंगे। जाहिर है, जब चारों ओर से यह आवाज आ रही हो कि समलैंगिकता को वैध ठहरा दिया गया है, तो मामले की तह तक जाने में भला कोई क्यों दिलचस्पी लेगा। लेकिन इस मामले की तह तक गए बगैर हम वास्तव में नहीं समझ सकते कि आखिर धारा 377 का महत्व क्या था और समलैंगिकता को मंजूरी दिए जाने के पीछे निहितार्थ क्या हैं।

आईपीसी की धारा 377 कहती है कि किसी वयस्क पुरुष द्वारा पुरुष, स्त्री या पशु के साथ निजी तौर पर परस्पर सहमति से किया गया अप्राकृतिक यौनाचार अपराध है। मामले की तह में जाने से पहले हम यह पूछना चाहेंगे कि कोई भी व्यक्ति निजी स्पेस में परस्पर सहमति से किसी के साथ कुछ भी करता है, तो क्या वहां कोई कानून लागू होता है। जाहिर है, जब तक शिकायत न की जाए, तब तक किसी मामले के दर्ज होने या कानून के लागू होने का कोई अर्थ नहीं बनता, दंड तो दूर की बात रही। यदि धारा 377 को समाप्त कर दिया गया, तो क्या कोई भी व्यक्ति अप्राकृतिक यौनाचार सार्वजनिक स्थल पर करने का अधिकारी हो जाएगा? अव्वल तो ऐसा होगा ही नहीं। यदि धारा 377 के रहते भी अप्राकृतिक यौनाचार बंद कमरे में जारी थे और बाद में भी जारी रहेंगे, तो फिर इस धारा को खत्म करने के लिए इतनी कवायद क्यों की गई?

इसके विवरण में जाने से पहले सिर्फ एक जरूरी बात और। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में धारा 377 के तहत पिछले 150 साल में सिर्फ छह मामले आए हैं और महज एक में ही सज़ा सुनाई गई है। यह बात 1935 की है (डी. पी. मिनवाला बनाम बादशाह, एआईआर सिंध 78)। जो कानून पिछले 150 साल में एक ही बार सजा सुना पाया हो और जिसके तहत सिर्फ छह मामले आए हों, उसके होने और न होने से क्या कोई बुनियादी फर्क पड़ता है? यह सवाल लाजिमी है और पूछा जाना चाहिए।

हमें तो यही लगता है कि ऐसे निष्प्रभावी कानून पर बात करने की ही कोई जरूरत नहीं। दरअसल ब्रिटेन के जिस ‘‘बजरी कानून’’ से धारा 377 की प्रेरणा ली गई, उसे बनाते वक्त लॉर्ड मैकाले ने भी तकरीबन यही बात सामुदायिक नैतिकता की दृष्टि से कही थी:

‘‘ऐसे अपराधों का सम्मान करते हुए इनके बारे में जितना संभव हो, कम कहा जाए। हम पाठ में या नोट में ऐसी कोई भी चीज डालने की इच्छा नहीं रखते हैं जो इस भड़काने वाले विषय पर लोगों में बहस को जन्म दे, क्योंकि हम निश्चित तौर पर यह राय रखते हैं कि इस किस्म की बहसों से समुदाय की नैतिकता पर लगने वाली चोट अधिक से अधिक सावधानी के साथ उठाए गए कानूनी कदमों से मिलने वाले लाभ के मुकाबले कहीं ज्यादा होगी।’’

लेकिन इसी कानून को हटाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में ‘‘नाज़ फाउंडेशन’’ नाम की एक संस्था ने 2001 में मुकदमा किया था जिस पर पिछले महीने फैसला आया। आठ साल तक चली कवायद के बाद आखिरकार इस संस्था ने मुकदमा जीत लिया। इस संस्था का दावा था कि धारा 377 एमएसएम (पुरुषों के साथ यौनाचार करने वाले पुरुष)  के बीच एचआईवी/एड्स बचाव कार्यक्रम को लागू करने में बाधा बन रही है। संस्था का दावा था कि वह ऐसे पुरुषों के बीच एचआईवी/एड्स बचाव का काम करती है जो दूसरे पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाते हैं। इन्हें एमएसएम कहा जाता है। (यह रिट याचिका में कहा गया है। इससे एक बात साफ होती है कि हालिया फैसला लेस्बियन संबंधों यानी महिला समलैंगिकों पर लागू नहीं होता)। सवाल उठता है कि आखिर इस संस्था को एमएसएम के प्रति ही विशेष चिंता क्यों थी? एचआईवी/एड्स के क्षेत्र की शब्दावली में एक शब्द होता है ‘‘हाई रिस्क ग्रुप’’ (एचआरजी) यानी उच्च जोखिम वाले समूह। संस्था का कहना था कि एमएसएम एचआरजी में आते हैं और इनके लिए एचआईवी बचाव के मामले में ‘‘टार्गेटेड इंटरवेंशन’’ यानी लक्षित हस्तक्षेप की जरूरत है। (यह शब्दावली विश्व बैंक की है)।

याचिकाकर्ता नाज़ फाउंडेशन ने अपनी याचिका में धारा 377 को हटाने के लिए जो दलील दी थी, वह कुछ यूं थी (रिट याचिका सं. 7455 वर्ष 2001, पैरा 39):

‘‘क्योंकि धारा 377 प्रकृति के खिलाफ यौन गतिविधियों को आपराधिक मानती है, जो अधिकारियों की नजर में एमएसएम की गतिविधियों से ही जुड़ा है, एमएसएम उन सेवाओं तक पहुंच बनाने से भय खाते हैं जो उनकी यौन गतिविधियों को पहचान लिए जाने और आपराधिक करार दिए जाने का खतरा पैदा करती हैं । उनकी जरूरतें और चिंताएं दूसरों से भिन्न हैं, इसलिए उनके लिए विशिष्ट कार्यक्रम होने चाहिए जो इन चिंताओं को संबोधित कर सकें। इसी बात का पक्षपोषण प्रतिवादी संख्या 4 ने किया है।’’ 

इस मामले में प्रतिवादी संख्या 4 का जो हवाला दिया गया है, वह राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) है। दरअसल, एमएसएम को हाई रिस्क ग्रुप मान कर 377 को हटवाने की कवायद नाको की शह पर ही शुरू हुई थी।
अपनी एचआईवी की ‘‘लक्षित हस्तक्षेप’’ की नीति को सही ठहराने के लिए नाको ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि एमएसएम एचआईवी/एड्स के लिए उच्च जोखिम वाले समूह हैं जिसमें 2005 के सर्वेक्षण के हवाले से बताया गया है कि 8 फीसदी से ज्यादा एमएसएम आबादी एचआईवी से संक्रमित है जबकि भारत की आम आबादी में एक फीसदी से कम एचआईवी से संक्रमित हैं। इसके बाद इस मामले के प्रतिवादी संख्या 6 जैक इंडिया ने नाको से सूचना के अधिकार के कानून के तहत आवेदन कर के पूछा कि इन आंकड़ों का स्रोत क्या है। पता चलता है कि ये आंकड़े उन एनजीओ के हैं जो एमएसएम के बीच काम कर रहे हैं। इससे कई सवाल खड़े होते हैं/

1) इन आंकड़ों का स्रोत सरकारी जन स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं बल्कि एनजीओ हैं जिन्हें विशेष तौर पर एमएसएम/हाई रिस्क ग्रुप के बीच काम करने के लिए ही फंड मिल रहा है। यह पूरी तरह अवैज्ञानिक है और ‘‘एचआईवी सर्वेलांस के लिए नाको के दिशानिर्देश’’ में नमूना सर्वेक्षण के मानकों का प्रत्यक्ष उल्लंघन है।

2) एमएसएम के बीच एचआईवी पर काम करने के लिए अनुदान प्राप्त एनजीओ को एमएसएम के लिए आंकड़े जुटाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, क्योंकि संभावना यही है कि ऐसे आंकड़े निष्पक्ष नहीं होंगे और उनके काम को ही पुष्ट करेंगे।

3) यह आंकड़ा जो कि 2005 में जारी किया गया, उसका इस्तेमाल याचिकाकर्ता के एमएसएम के बारे में हाई रिस्क ग्रुप होने के दावे का समर्थन करने के लिए किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि 2001 में न्यायालय में याचिका दायर करने के पांच साल बाद नाको ‘‘साक्ष्यों को निर्मित’’ कर रहा था।

नाको ने यह नहीं बताया कि किस आधार पर उसने जनता के भारी-भरकम पैसे को बाकी लोगों से अलग एमएसएम की पहचान करने पर खर्च करने के लिए इस्तेमाल किया और उसे सही कैसे ठहराता है? इस मामले में प्रतिवादी संख्या 6 ने सवाल उठाया था कि क्या जनता के लिए दिया गया स्वास्थ्य अनुदान ‘‘पुरुष सेक्स उद्योग’’ को संस्थागत रूप देने में काम में लाया जा रहा है?

1992 में अपनी स्थापना से ही नाको एचआईवी/एड्स से जुड़े आंकड़े तैयार करने के लिए आधिकारिक भारतीय एजेंसी है, लेकिन यह समय-समय पर अपने उद्देश्यों के लिए आंकड़ों में हेर-फेर करने की दोषी रही है। इसके इतिहास पर एक नजर डालें:

क) 1998 के आखिर में एक संसदीय स्थायी स्मिति की रिपोर्ट ‘‘खतरनाक बीमारियों पर 73वीं रिपोर्ट’’ ने बताया कि भारत में 81.3 लाख एचआईवी के मामले हैं, जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान और यूके में भारतीय उच्चायुक्त ने कहा कि भारत में 85 लाख एचआईवी के मामले हैं।

ख) महामारी की शुरुआत से लेकर 2000 तक नाको नेशनल एचआईवी सेरो-सर्वेलांस प्रणाली का प्रयोग करता था जिसके अंतर्गत यह सालाना एचआईवी आंकड़े इकट्ठा कर के ‘‘कंट्री सिनेरियो’’ रिपोर्टों और अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करता रहा है। नाको की ‘‘कंट्री सिनेरियो 1998-99’’ के पृष्ठ 15 के मुताबिक भारत में एचआईवी सेरो-मौजूदगी दर 2000 में 2.4 फीसदी थी। इसी आंकड़े को राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के चरण 1 और 2 के ‘‘नियोजन, क्रियान्वयन और निगरानी’’ का आधार बनाया गया जिसके लिए बड़े पैमाने पर विश्व बैंक से कर्ज मिला।

ग) जुलाई 2000 में जब इस सेरो-सर्वेलांस आंकड़े में भारी फर्जीवाड़े और हेर-फेर की ओर इशारा किया गया, तो नाको ने काफी जल्द इस समूचे आंकड़े को अगस्त 2000 में वापस ले लिया और ‘‘ज्यादा विश्वसनीय’’ आंकड़े जारी किए जो नेशनल सेंटिनेल सर्वेलांस प्रणाली पर आधारित थे। इसके मुताबिक भारत में 1998 में अनुमानतः 35 लाख एचआईवी मामले थे यानी 0.7 फीसदी एचआईवी संक्रमित वयस्क आबादी। (इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन की 31.07.2000 की खबरें देखें और स्वास्थ्य मंत्री की प्रेस विज्ञप्ति दिनांक 7.8.2000)।

घ) 2000 से 2006 के बीच नाको ने सालाना स्तर पर अपना एचआईवी सेंटिनेल सर्वेलांस अनुमान जारी करना चालू रखा और इसी आंकड़े के आधार पर 2006 में भारत में अनुमानित 52 लाख एचआईवी मामले दिखाए गए। (यूएनएड्स की वेबसाइट पर प्रकाशित खबर)।

च) जुलाई 2007 में नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम (एनएसीपी) के तीसरे चरण के लिए विश्व बैंक ने 11,000 करोड़ रुपये का कर्ज मंजूर किया। इसी माह नाको ने 2006 के लिए और ज्यादा विश्वसनीय आंकड़े के सेट की घोषणा की जिसके मुताबिक भारत में वास्तव में एचआईवी मामलों की अनुमानित संख्या 24 लाख थी।

छ) इस तमाम कवायद की निरर्थकता 2006 के एचआईवी अनुमानों की रिपोर्ट से साफ होती है। इसमें पिछले वर्षों के आंकड़ों को इस तरीके से परिवर्तित किया गया है कि एचआईवी संक्रमण में कमी का रुझान दिखाया जा सके जबकि नाको को पता ही नहीं था कि पिछले वर्षों में हो क्या रहा था और पुराने आंकड़ों को इन्होंने खारिज कर दिया था।

यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि भारत में एचआईवी बचाव के प्रयासों का सहयोग व समर्थन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनएड्स ने काफी संदिग्ध भूमिका निभाई है। यूएनएड्स का कहना है कि नाको द्वारा प्रकाशित उच्च एचआईवी अनुमान और काफी कम एड्स के मामलों का अर्थ यह बनता है कि कहीं ज्यादा लोग भारत में एड्स से मर रहे होंगे, लेकिन यह संज्ञान में नहीं आ पाता। जबकि सच्चाई यह है कि एड्स के कम मामलों के बारे में नाको के प्रकाशन का अर्थ यह है कि उसके एचआईवी अनुमान मनमाने और बढ़ाए हुए हैं, क्योंकि तथाकथित एचआईवी की महामारी के दो दशक बाद ऐसे संक्रमण से देश भर में मरने वाले लोगों की संख्या असाधारण होनी चाहिए थी और बिल्कुल साफ दिखाई पड़नी चाहिए थी। अब तक इस बारे में कोई भी दस्तावेज या रिपोर्ट तैयार नहीं की गई है।

यहां यह भी बताना जरूरी है कि अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इस देश के लिए ऐसे फर्जी आंकड़ों के परिणाम क्या हो सकते हैं। अमेरिका में एचआईवी/एड्स को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है (आतंकवाद से ज्यादा नहीं, तो उसके बराबर)। इस तरह अमेरिका का वैश्विक एचआईवी/एड्स अभियान उसकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के हाथ में दे दिया गया है। सितम्बर 2002 में सीआईए ने एक रिपोर्ट छापी थी, ‘द सेकेंड वेव ऑफ एचआईवी/एड्स’ जिसमें 2010 तक भारत में दो से ढाई करोड़ संक्रमण का अनुमान लगाया गया था। इन आंकड़ों के स्रोत के बारे में लगातार मांग करने के बदले में संस्थाओं को सिर्फ चुप्पी हासिल हुई है।

नाको इस फर्जी आंकड़े का प्रयोग आम राय को प्रभावित करने के आधार के रूप में कर रहा था ताकि वह आईपीसी की धारा 377 को समाप्त किए जाने के सम्बन्ध में आदेश प्राप्त कर सके। इस संदर्भ में भारत सरकार के पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. अंबुमणि रामदास द्वारा मेक्सिको में अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन में दिए गए बयान पर भी एक नजर डाल लेनी चाहिए जिससे धारा 377 के खिलाफ चलाए गए अभियान की असलियत उजागर हो सके (पीआईबी की विज्ञप्ति दिनांक 08.08.08) जहां उन्होंने एमएसएम के बीच एचआईवी बचाव के नाम पर आईपीसी की धारा 377 को हटाए जाने पर जोर दिया था। भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के बावजूद केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने व्यवहार में दरअसल भारत सरकार के खिलाफ ही बयान दे डाला था कि वह आईपीसी की धारा 377 के रास्ते एचआईवी बचाव के प्रयासों को बाधित कर रही है।

आइए, अब देखते हैं कि जिस संस्था नाज़ फाउंडेशन ने धारा 377 के खिलाफ याचिका दायर की थी, उसका चरित्र क्या है। कुछ वर्षों पहले लखनऊ में एक पुरुष वेश्यावृत्ति रैकेट का भंडाफोड़ हुआ था जिसकी चर्चा टीवी और अखबारों में खूब हुई थी। इलाके में रैकेट की जांच करते वक्त पुलिस नाज फाउंडेशन इंटरनेशनल और भरोसा ट्रस्ट नाम के एनजीओ के परिसर तक पहुंची। एनजीओ के परिसर की जांच की गई और यह तथ्य सामने आया कि उक्त एनजीओ समलैंगिक पुरुषों के क्लब का संचालन करता है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक एनजीओ के परिसर में पुरुष वेश्यावृत्ति के एक मामले में छापा मारा गया तो पाया गया कि एनजीओ इस विशाल भवन से एक गे क्लब चला रहे थे जिसकी सदस्यता 500 से ज्यादा थी, जहां सदस्यों को उनकी गतिविधियों के लिए आरामदेह वातानुकूलित कमरे दिए गए थे और जो सदस्य नहीं थे, उन्हें यहां की सेवा का ‘इस्तेमाल करने के लिए’ 1000 रुपये प्रतिदिन देने पड़ते थे। उस वक्त की टीवी समाचार रिपोर्ट में कुछ अश्लील सामग्री/ब्लू फिल्मों के कैसेट दिखाए गए थे जो पुलिस ने उस एनजीओ के परिसर से बरामद किए थे। इस मामले में आईपीसी की धारा 377 के तहत गिरफ्तारी की गई, इसके साथ धारा 120बी (षडयंत्र रचना) और धारा 109 (उकसाना) के साथ आईपीसी की धारा 292 (अश्लील किताबों की बिक्री करना),  महिलाओं का अश्लील चित्रण (निरोधक) कानून, 1986 की धारा 3 और 4, काॅपीराइट कानून, 1957 की धारा 60 जैसे आरोप लगाए गए। हालांकि, आरोप पत्र में अभियोजन पक्ष ने आईपीसी की धारा 377 को हटा दिया था।

ऐसी ही एक घटना और है जो बताती है कि दरअसल धारा 377 के खिलाफ चले अभियान के पीछे क्या मंसूबे हैं। शुरुआत में धारा 377 के खिलाफ मुकदमा नाज फाउंडेशन के नाम से किया गया था जिसे बाद में बदल कर नाज फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट कर दिया गया। इसके एक ट्रस्टी का नाम था श्री डी.जी. खान। इनके बारे में अदालत में दाखिल जानकारी के मुताबिक इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री डेविड अब्दुल वाहिद खान था और इनका पता था नाज प्रोजेक्ट, पैलिंग्सविक हाउस, 241 लंदन, डब्ल्यू-6, 9एलपी, यूनाइटेड किंगडम। याचिका के पैरा 11.0 में इस नाज प्रोजेक्ट और द नाज फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट के बीच मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन की चर्चा है। 9-10 जुलाई 2001 को आई खबरों के मुताबिक लंदन स्थित एनजीओ नाज फाउंडेशन इंटरनेशनल और अन्य के दफ्तर में छापे के दौरान पुलिस ने अश्लील सामग्री जब्त की और पता चला कि यह एनजीओ गे क्लब चलाता था। यहां से तीन अधिकारियों को भी गिरफ्तार किया गया था।

उपर्युक्त तमाम तथ्यों से यह समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर संविधान की एक निष्क्रिय सी धारा को हटवाने के पीछे किसके हित हैं। जाहिर तौर पर इसके पीछे खरबों डॉलर वाला वह अमेरिकी और यूरोपीय सेक्स उद्योग है जो भारत को अपने मुनाफे का केंद्र बनाना चाहता है। इसमें उसकी मदद एचआईवी/एड्स से बचाव के नाम पर विदेशी अनुदान ले रहे तमाम एनजीओ कर रहे हैं और भारत में इसकी राह सुगम बनाई है खुद सरकारी एजेंसी नाको ने, जिसने आठ साल तक लगातार झूठ बोलने के बाद आखिरकार धारा 377 पर फैसला अपने और याचिकाकर्ता नाज फाउंडेशन के पक्ष में ले ही लिया।

अफसोस की बात यह है कि जिस संस्था ने लगातार इन मंसूबों को उजागर करने की कोशिश की और इस मुकदमे में छठवें नंबर के प्रतिवादी के तौर पर शामिल रही, पिछले आठ साल के दौरान उसके प्रमुख पर तीन बार जानलेवा हमले करवाए गए।

यह अजीब बात है कि दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी बीमारी को एक देश के भीतर दंडात्मक कानून को चुनौती देने के लिए इस्तेमाल में लाया गया और आधार बनाया गया। वो भी तब, जबकि एचआईवी/एड्स के बारे में वैज्ञानिक साक्ष्य बेहद अपुष्ट हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि आठ साल तक चले इस मुकदमे में याचिकाकर्ता की ओर से एक भी मामला ऐसा पेश नहीं किया जा सका जहां धारा 377 की वजह से किसी एमएसएम पर दंडात्मक कार्रवाई हुई हो। यह अद्भुत बात है कि जिसने मुकदमा जीता है, उसने आज तक अपने पक्ष में एक गवाह नहीं पेश किया।

फिलहाल, 377 को संसद की मंजूरी का इंतजार है। हालांकि जिस बड़े पैमाने पर दुनिया भर में भारतीय न्यायपालिका के इस फैसले का उत्सव मनाया गया है, उससे समझ में आता है कि आम जनता की आखिरी उम्मीद इस देश की न्यायपालिका समेत सरकारें, एनजीओ और उद्योग कैसे अपने उद्देश्यों में एकजुट हो चुके हैं। इस फैसले की अगली कड़ी देश में वेश्यावृत्ति को वैध ठहराना होगा, फिर विदेशी काले धन की राह बेहद आसान हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि इस बारे में किसी किस्म का भ्रम है या यह कोई मनगढ़ंत कल्पना है। इस योजना के ठोस सबूत हमें इतिहास के दस्तावेजों में मिलते हैं।

नाको ने 1999 में ही ऐसे उद्योग का समर्थन अपनी सालाना रिपोर्ट ‘‘कंट्री सिनेरियो 1998-99’’ में कर दिया था। इस रिपोर्ट के पृष्ठ 67 पर एक शब्द आता है ‘सेक्स इंडस्ट्री’। द्विपक्षीय एजेंसियां पहले से ही भारत सरकार की अनुमति से भारत में ‘सेक्स इंडस्ट्री’ की परियोजनाएं चला रही हैं और अधिकारी व एनजीओ ‘सेक्स वर्कर’ शब्द का इस्तेमाल बहुत पहले से करते आ रहे हैं। इतना ही नहीं, ‘लखनऊ का भरोसा/नाज इंटरनेशनल’ वाला मामला भी सवाल उठाता है कि आखिर एचआईवी ‘लक्षित हस्तक्षेप’ के नाम पर क्या चल रहा है। समलैंगिकों के मानवाधिकार का समर्थन एक अलग बात है और धारा 377 को हटाने का जश्न मनाना बिल्कुल दूसरी बात। उपर्युक्त तमाम तथ्यों से यह बिल्कुल साफ है कि धारा 377 के दुश्मन कौन हैं।

(सभी तथ्य मुकदमे में जमा प्रतिवेदनों से उद्धृत)

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One Comment on “377 के दुश्मन कौन हैं?”

  1. पवन पटेल, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली says:

    बेहद कनफ्यूज़न से भरे इस सवाल को चिथड़ी चिथड़ी कर वास्तिविक मामले की तह में ले जाने के लिए यह लेख बहुत सन्दर्भ वाला है. अभिषेक जी आपको बहुत बहुत साधुवाद.

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