हाशिया अभी-अभी कुछ ज्यादा चौड़ा हुआ है। अकसर केंद्र तक टहल मार आने वाले तमाम लोगों में से कई परिधि पर धकेल दिए गए हैं। मेरी चिंता उन्हें लेकर नहीं है। उनके बारे में तो तमाम विश्लेषण भरे पड़े हैं कि ऐसा क्यों और कैसे हो गया। मैं उनकी संख्या नहीं बढ़ाना चाहता। हाशिया हर ओर है। बाएं से, दाएं से, यह हाशिया मुख्यधारा की सियासी जमीन को घेरे हुए है। कुछ लोग शायद कहें कि दाहिनी तरफ कोई हाशिया नहीं है। उस ओर हर कुछ मुख्यधारा का ही हिस्सा है। चाहे जो हो, मेरे पास दाहिनी ओर के हाशिये पर कहने को बहुत कुछ नहीं है।
मेरा सरोकार बाईं ओर के हाशियों से है जिसमें समूचा वाम घुसा पड़ा है, हालांकि यह स्वीकार कर पाना परंपरागत वाम के अधिकतर हिस्सों के लिए शायद बहुत जल्दबाज़ी होगी। वे किसी भी कीमत पर हम जैसों की नहीं सुनेंगे, जिन्होंने अपना समूचा जीवन ही हाशिये पर गुज़ारा है- कुछ तो इसमें अपनी बेवकूफि़यां और कमज़ोरियां जिम्मेदार रहीं और कुछ इसलिए भी कि हमने समय की मांग के आगे झुकने से इनकार कर दिया। यह वास्तव में हमारी गलती तो है नहीं कि हम ऐतिहासिक कालखंड की उस घाटी में पैदा हुए जहां भव्यतापूर्ण अतीत की ढलान पर उतरना तो पूरा हो चुका है जबकि भविष्य की चोटी पर चढ़ाई शुरू होना अब भी बाकी है।
इस लेख के शीर्षक में ”समझदार” वाला विशेषण मूल्यांकन के योग्य है इसलिए आदेशात्मक व दंभी होने का मुझ पर आरोप लग सकता है। या तो इस मूल्यांकन का कोई मानक हमें बताना होगा या फिर यह स्वीकार करना होगा कि यह प्रयोग आत्मपरक है। मैं दूसरे वाले विकल्प से शुरू करूंगा क्योंकि मैं जो कहना चाह रहा हूं उसमें गणना के किसी मानक पर अपना पांडित्य नहीं दिखाना चाहता। ज़ाहिर है, हमें किनारे बैठे उन उन्मादियों की ओर इशारा करने की भी कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए जो बाकी सब पर संशोधनवाद, विश्वासघात और दुष्टता के पत्थर उछालकर खुद को जिंदा रखे हुए हैं। आपको पसंद हो या नहीं, लेकिन वे भी वाम का ही हिस्सा हैं। मैं यह नहीं कह सकता कि वे मेरी चिंता का विषय नहीं हैं, लेकिन दुनिया जैसी है उसे वैसा नहीं समझने को लेकर वे तकरीबन यांत्रिक हैं और आत्मचिंतन व आत्मावलोकन में वे पूरी तरह असमर्थ हैं। मैं उनसे यह उम्मीद नहीं करता कि वे किसी भी चीज़ से कोई भी सबक लेंगे सिवाय इसके कि वे अपने टुच्चे स्वार्थपरक उद्देश्यों को पूरा करें या एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने वाले झगड़ों को अंजाम दें।
सोलह मई के बाद की स्थिति में हमें क्या अपेक्षा करनी चाहिए, मैं अपनी बात को यहां से शुरू करना चाहूंगा। तमाम बातें की जा रही हैं कि आने वाला वक्त बहुत बुरा रहने वाला है। बेशक वह बुरा ही होगा, लेकिन अनिवार्यत: अपेक्षित तरीकों से नहीं, हालांकि वह भी हो ही सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत के लोगों ने अपने विवेक से एक ऐसे व्यक्ति और परिवार को भारी जनादेश दिया है जो क्रूरताएं करने में सक्षम है। अपनी सुविधानुसार ”जनादेश” के अर्थ को बदल देना और अत्याचारियों की विजय के बाद कह देना कि दो-तिहाई भारतीयों ने उन्हें वोट ही नहीं दिया, इससे हमें कोई मदद नहीं मिलने वाली है। खुद को यह कह कर सांत्वना देने का कोई मतलब नहीं होगा कि वे चुनाव में जीते नहीं हैं बल्कि जो सत्ता में था उसकी हार हुई है। न ही हमें इस तथ्य से कोई राहत मिलने वाली है कि अश्वमेध का घोड़ा पूरब और दक्षिण के उन राज्यों में नाथ दिया गया जहां स्थानीय क्षत्रपों के पास कोई दैवीय ताकत थी। इस जीत का श्रेय धनबल और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया को देते हुए हम कुछ गलत नहीं करते, लेकिन तब, हमें जनता के विवेक में अपने भरोसे के साथ इस बात का मिलान करना होगा क्योंकि हमारे कहने का एक अर्थ यह निकलता है कि जनता उनकी ताकत के असर में बह गई थी।
इस बात को सहज रूप से मान लिया जाना चाहिए कि यह एक जबरदस्त जीत है। जैसा कि विजेता ने खुद अपने भाषण में कहा है, यह जीत साठ साल की मेहनत का नतीजा है जिसने चार पीढि़यों के ”श्रम” और ”बलिदान” को परखा है। आज के विेजेताओं ने पिछले साठ साल में जो लंबा मार्च किया है, उसने अपने पीछे दंगों और फसादों का एक लंबा सिलसिला भी छोड़ा है तथा सैकड़ों हज़ारों पुरुषों व स्त्रियों को मध्ययुगीन बर्बरता करने के लिए तैयार किया है। सवाल है- क्या वे इस निर्णायक विजय के बाद भी ऐसा ही करना जारी रखेंगे?
इसका जवाब ना में ही होना चाहिए। एकाध छिटपुट दंगे यहां-वहां तो हमेशा ही होंगे। हमारा समाज जैसा है, उसमें इसे नकारा नहीं जा सकता लेकिन विजेताओं को वह काम जारी नहीं रखना होगा जो वे विजय से पहले करते आ रहे थे। गुजरात में 2002 के बाद दंगे न होना इसका एक उदाहरण है। वास्तव में, उन्हें गुजरात वाला प्रयोग बाकी देश में दुहराने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, जहां- अगर उनकी एक उपलब्धि का उदाहरण इस तरह से गिनवाया जाए, कि- हिंदू और मुसलमान अब कभी भी पड़ोसी नहीं हो सकते।
हमारा पहला सबक हालांकि इससे नहीं निकलना चाहिए कि वे सामाजिक ताने-बाने के साथ क्या और क्या नहीं कर सकते हैं। इसके बजाय सबक यहां से निकलना चाहिए कि वे राज्य और उसकी संरचनाओं के साथ क्या और क्या नहीं कर सकते हैं। यहां से जो सबक निकल रहा है, वह किसी आदतन वामपंथी के सहज बोध का निषेध करता है। विजेता की पाशविक ताकत का स्रोत बुनियादी तौर पर हमारे समाज में मौजूद है, लेकिन यह ताकत अपनी सामाजिक विचारधारा के अनुरूप राज्य की संरचनाओं को ढाल नहीं सकती। कुछ लोग कह सकते हैं कि आखिर वे ऐसा कोई काम करने का प्रयास करेंगे ही क्यों? आखिर को, यह एक पूंजीवादी राज्य है। इसका नियंत्रण अर्जित करने के बाद तो वे बड़ी आसानी से उन कॉरपोरेट ताकतों के हितों की पूर्ति कर सकेंगे जिनके बल पर वे सत्ता में आए हैं। यह बात जहां तक खींच कर ले जाई जाए, सही ही बैठेगी। यह बड़ी सहज बात है, लेकिन यहां एक निर्णायक बिंदु छूट रहा है। पूंजीवादी हितों को हिटलर जैसी फासीवादी तानाशाही भी पूरा कर सकती है और एक बुर्जुआ-जनतांत्रिक कल्याणकारी राज्य भी, जैसा कि हम स्वीडन या कनाडा में पाते हैं। तो क्या हम यह कह सकते हैं कि फिर इन दोनों के बीच के अंतर से किसी वामपंथी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता, जो कि समाजवाद लाने का संघर्ष कर रहा है या फिर उन लोगों को जो समाजवाद का कथित तौर पर इंतज़ार कर रहे हैं? भारतीय राज्यतंत्र एक ऐसे समाज की गोद में बैठा है जो कभी-कभार फासीवादी तानाशाही की राह पर चलने वालों को भी सत्ता सौंप सकता है। खुशकिस्मती बस इतनी है कि अपनी विचारधारा और चाहतों के मुताबिक वे ऐसा कर नहीं पाएंगे। वे ऐसा करने की कोशिश भी शायद नहीं करेंगे क्योंकि दीवार पर लिखी इबारत वे बखूबी पढ़ सकते हैं। एक वामपंथी ऐसे में भारतीय हिटलर के उभार को रोकने का श्रेय यहां की जनता को ही देगा। वह पूरी तरह गलत भी नहीं होगा। आखिरकार दुनिया में जो कुछ होता है, वह अंतत: अपने विश्लेषण में जनता का ही किया हुआ होता है। लेकिन ऐसा दीर्घकालिक और व्यापक विश्लेषण अकसर पुनरुक्ति का शिकार होता है जो हमारी समझदारी में कोई योगदान नहीं दे पाता।
तो यहां हमारे लिए जो सबक है, वह भारतीय राज्यतंत्र के बारे में और उसके भारतीय समाज के साथ अबूझ रिश्ते से जुड़ा है। यह बात ध्यान देने लायक है कि समाज ही पाशविक ताकतों को उभारता है और उनके हाथ में राज्यसत्ता सौपता है, लेकिन राज्य खुद ही पाशविक ताकतों को सभ्य होने के लिए बाध्य कर देता है ताकि वे संवैधानिक दायरे के अनुकूल ही आचरण करें। इतिहास ने एक ऐसे समाज के भीतर से आधुनिक राजनीति को गढ़ा है जिसका खुद आधुनिक बनना अभी बाकी है। इस समाज को बनाने वाली संस्कृतियों व आचरणों के कई हिस्से अब भी हमारी आधुनिक राजनीतिक संरचना के साथ खुद को असहज महसूस करता पाते हैं। इसके बावजूद यह राजनीतिक संरचना पर्याप्त सुरक्षित है। यह इसी तरह हुआ जैसे कि एक बच्चा अपनी मां की गोद में बैठा हो और उसकी मां रह-रह कर बच्चे से खीझ रही हो, विरक्त महसूस कर रही हो, फिर भी उसे गोद में थामे हुए है।
इस सबक के व्यावहारिक निहितार्थ भी हैं: मसलन, यदि नया शासक वामपंथियों के पीछे पड़ ही गया, तो वे उसका मुकाबला कैसे करेंगे? संभावना यही है कि वे इस बात पर ज़ोर देंगे कि हमें जनता के बीच वापस जाना चाहिए और उसकी ताकत के आधार पर संघर्ष छेड़ना चाहिए। वे पूरी तरह गलत नहीं सोच रहे, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नया शासक तो जनता के और ज्यादा बड़े हिस्से को संबोधित कर सकता है। जब पश्चिम बंगाल की सड़कों और खेतों में तृणमूल के खिलाफ वाम कोई संघर्ष नहीं छेड पाया, तो फिर समूचे देश के शहरों, कस्बों, गांवों और जंगलों में कायम अंधेरे की नई सत्ता के खिलाफ ऐसा कुछ भी कैसे हो पाएगा, जबकि यह संभावना कम ही है कि देश के बाकी सारे वामपंथी इस संघर्ष में साथ आ पाएंगे। यह जो नई सत्ता आई है, वह बिल्कुल ग्रीक देवों की तरह जनता की प्रशंसा, भय और उसकी प्रार्थनाओं पर फिलहाल कायम है, जो हमारी चुनौती को और कड़ा बनाता है। इसीलिए किसी भी राजनीतिक संघर्ष में इस सत्ता और उसकी ताकत को सड़कों पर ललकारने से पहले कई बार ज़रूर सोचा जाना चाहिए। यह काम बाद के लिए भी छोड़ा जा सकता है। फिलहाल, सबसे ज्यादा गुंजाइश इस बात की है, और यही समझदारी भी होगी, कि वामपंथी खुद को मौजदा राजनीतिक ढांचे के भीतर बचाकर रखें- ढांचा यानी संसद, विधानसभाओं, अदालतों और अन्य संस्थानों में और ऐसा करने के लिए वे संविधान और उसके कानूनों की मदद लें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात-2002 के पीडि़तों की ओर से मुकुल सिन्हा या तीस्ता सीतलवाड़ जैसों की साहसिक लड़ाई अहमदाबाद या गांधीनगर की सड़कों पर नहीं बल्कि ज्यादातर अदालतों में लड़ी गई थी।
यहां एक बात जोड़ी जानी ज़रूरी है। पाशविक ताकतों को सभ्य बनाने की आधुनिक राजनीति की ताकत को लेकर हमें गाफि़ल नहीं रहना चाहिए। जो लोग पदों पर आकर बैठते हैं, उनसे राज्य की संरचना अवश्य कुछ न कुछ प्रभावित होती है। वे अपने साथ बेशक अपने ही तईं संस्कृति, आचरण और विश्वदृष्टि के ऐसे तत्व भी लेकर आते हैं जो एक आधुनिक बुर्जुआ राज्यतंत्र की बुनावट और प्रकृति के साथ बेमेल बैठते हैं। वे अपने-अपने स्तर पर इस बुनावट को मोड़ने के तरीके भी खोज लेते हैं। ऊपर जो तर्क का मुख्य बिंदु हमने दिया है, वह हालांकि वैध बना रहता है।
यही बात हमें दूसरे सबक तक ले आती है। यह पहले सबक से काफी करीब से जुड़ा है। यह लोकतंत्र के रूपों और प्रक्रियाओं के बारे में है। विचारधारात्मक हलकों में मज़बूत भागीदारी वाले ज़मीनी लोकतंत्र की चाहत को लेकर एक आम सहमति व्याप्त है। नए युग के उपदेशक और दार्शनिक, एनजीओ, मैगसेसे पुरस्कार विजेता आदि, जो आजकल तमाम किस्म के सामाजिक आंदोलनों की प्रेरणा बने हुए हैं, इन्होंने लंबे समय से ऐसे सघन लोकतंत्र के गुणों का प्रचार किया है जिसमें राज्यसत्ता विकेंद्रीकृत होती हो और स्वशासन के माध्यम से एक बेहद सक्रिय नागरिकता खुद पर राज करती हो।
भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर चमकदार हथियारों से लैस कुछ नए सूरमा इधर बीच आ उभरे हैं जिनके स्वराज के बारे में अपने खयालात हैं। दूर से ही सही, लेकिन कई लोगों ने इनकी सराहना की जब दिल्ली की संक्षिप्त सरकार रातों में सड़कों की गश्त लगाकर ”सिस्टम को हिलाने में जुटी हुई थी”। सघन लोकतंत्र के कई अन्य अभिजात पैरोकार इस निगरानीवाद और नए मंत्रियों के अत्यधिक सतही संभाषणों पर लहालोट भी हो गए होंगे। उन्होंने शायद यह भी कामना की रही हो कि खिड़की एक्सटेंशन जैसे खालिस मोहल्लों में रह रही खालिस जनता अगर सांस्कृतिक विविधता को लेकर ज्यादा सहिष्णु होती तो क्या ही अच्छा होता। उनकी नज़र में हालांकि यह सब कुछ ज़मीनी स्तर पर हुए उग्र बदलावों के लिहाज़ से आंख की किरकिरी से ज्यादा कुछ नहीं था। इन पैरोकारों में से कुछ ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों के बीच शायद ही कोई खिड़की एक्सटेंशन गणतंत्र की नागरिकता को स्वीकार करने को तैयार हों, खाप पंचायत द्वारा किसी गांव में चलाए जा रहे गणतंत्र को तो छोड़ ही दें। लेकिन इनमें से सभी इस बात की सराहना ज़रूर कर रहे होंगे कि भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र के साथ यह प्रयोग कितने दुस्साहस के साथ किया गया, जहां हर मोहल्ला खुद अपना घोषणापत्र लिख सकेगा, अपने राजकाज और विकास का काम खुद अपने हाथों में ले सकेगा तथा सामुदायिक जीवन में स्वाभाविक रूप से निबद्ध नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सजा-संवार सकेगा।
जहां तक वामपंथ की बात है, तो सघन लोकतंत्र की हिमायत वह इस छोर से नहीं बल्कि दूसरे छोर से करता है। यहां हमारी समझदारी इस बिंदु से शुरू होती है कि बुर्जुआ लोकतंत्र कुछ नहीं बल्कि पूंजी की चेरी है। प्रातिनिधिक चुनावी लोकतंत्र एक बुर्जुआ राज्यतंत्र के लिए लोकप्रिय वैधता हासिल करने का महज़ एक माध्यम है। इसीलिए जब समाजवाद आएगा, तो बुर्जुआ लोकतंत्र का कोई भी तत्व- उसका एक भी संस्थान या आचरण- टिकने नहीं दिया जाएगा। यही वजह है कि पूंजीवाद के अंतर्गत भी वाम का संघर्ष लोकतंत्र को ज्यादा प्रत्यक्ष बनाने, ज्यादा भागीदारीपूर्ण बनाने और ज्यादा विकेंद्रीकृत बनाने की ओर उद्देश्यरत होना चाहिए।
लोगों को सशक्त करने के उद्देश्य पर शायद ही कोई असहमति हो, लेकिन सघन लोकतंत्र के पक्ष में सारी दलीलें कई मायनों में व्यापक परिदृश्य को अपनी नज़र से भुला देती हैं। एक सघन लोकतंत्र अपनी सर्वश्रेष्ठ अवस्था में ज्यादा से ज्यादा एक संवैधानिक प्रतिनिधित्व वाले उदार लोकतंत्र के व्यापक ढांचे में पूरक भूमिका ही निभा सकता है। ऐसे किसी भी ढांचे और लोकतांत्रिक परंपरा के अभाव में यह कारगर नहीं हो सकता। अपने सबसे बुरे स्वरूप में एक सघन लोकतंत्र खुद लोकतंत्र के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। ऐसे उदाहरण समूची दुनिया में बिखरे मिल जाएंगे। इस सवाल पर सोचने वाले लोगों के लिए हमारी खाप पंचायतें, दुनिया भर की जनजातीय परिषदें खासकर अफ्रीका, अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में, तथा चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के दौरान आया भीड़ का लोकतंत्र (मॉब डेमोक्रेसी) ऐसे कुछ प्रामाणिक उदाहरण हो सकते हैं।
यह सहज वामपंथी समझदारी, कि समाजवाद में बुर्जुआ लोकतंत्र का कोई भी घटक नहीं बचा रहेगा, इस नज़रिये से पैदा होती है कि लोकतंत्र का विकास ही पूरी तरह पूंजी के हितों और योजनाओं से संचालित हुआ है। इस लोकतंत्र को लाने के लिए जनता ने कुछ नहीं किया है और इसमें उसके लिए कुछ है भी नहीं। यह हालांकि एक गलत नज़रिया है। आधुनिक लोकतंत्र का इतिहास पूंजीवाद के इतिहास से भले ही साम्यता रखता हो, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। समाजवादी लोकतंत्र इस आधुनिक युग की अधिकतर लोकतांत्रिक भवनाओं और परंपराओं को अपने में समाहित करेगा और वह समाजवाद के केंद्रीय सिद्धांतों व मूल्यों के हिसाब से संशोधित उसके तमाम आचरणों व संस्थानों को बचाए भी रखेगा। यहां मुख्य बिंदु यह है कि लोकतंत्र, चाहे वह बुर्जुआ श्रेणी का ही क्यों न हो, वह सिर्फ राज्यतंत्र और सत्ता के दूसरे ढांचों को निर्मित करने का एक माध्यम भर नहीं हैा इसमें अधिकारों, चुनावों और नागरिकों की निजी स्वतंत्रताओं का दायरा भी तय होता है।
इसके साथ ही यह तथ्य भी रह जाता है कि लोकतंत्र प्राथमिक तौर पर राज्य और उसकी सत्ता संरचना के संघटन का एक माध्यम है। अंतिम विश्लेषण में सारी सत्ता संरचनाएं स्वतंत्रता के लिए बाधक ही होती हैं। इंसानी तरक्की का उद्देश्य इन्हें ज्यादा से ज्यादा हलका और पारदर्शी बनाना होना चाहिए जिससे अंतत: वे छीज कर खत्म हो जाएं। लंबी दौड़ में ऐसे ही राज्यतंत्र के लोप की परिकल्पना की जाती है। ऐसा वास्तव में हो या नहीं, लेकिन यह लोकतंत्र व सत्ता संरचना के इच्छित स्वरूपों की ओर तो इशारा करता ही है। राज्य को धीरे-धीरे संकुचित होते जाना चाहिए और अपनी जकड़ से जिंदगी के व्यापकतम दायरों को मुक्त करते जाना चाहिए। पूंजीवाद के अंतर्गत ऐसा वास्तव में संभव नहीं है क्योंकि राज्य जिस किसी को भी मुक्त करेगा, उस पर बाज़ार कब्ज़ा जमा लेगा और मुनाफाखोरी के सघन जंगल में खींचकर उसे निगल जाएगा। लेकिन पूंजीवाद के तहत भी, राज्य को पारदर्शी होना चाहिए, जो कि तभी संभव है जब वह नियमों से बंधा हो, संवैधानिक हो और मनमौजी न हो। जिन्हें ऐसा लगता है कि सघन लोकतंत्र के माध्यम से राज्य को पारदर्शी बनाया जा सकता है, वे गलत सोचते हैं। सघन लोकतंत्र राजनीतिक प्रक्रिया को दोहरा और गाढ़ा बना देता है। यह नीतियों के नियोजन व क्रियान्वयन को कीचड़ सा अपारदर्शी बना देता है। इससे कहीं ज्यादा अहम यह है कि एक सघन लोकतंत्र के लिए यह संभव ही नहीं होगा कि वह आधुनिक युग की लोकतांत्रिक भावनाओं को समरूपता से खुद में समाहित कर सके। यदि किसी को इस बात पर शक है, तो वह एक बार फिर खाप पंचायतों और जनजातीय परिषदों का उदाहरण उठाकर देख सकता है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दलील को इस रूप में नहीं लिया जाएगा कि बात जनता को अशक्त करने और उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से काटने की हो रही है। एक पारदर्शी, संवैधानिक और नियमबद्ध राज्य जनता के द्वारा उतना ही निर्मित हो सकता है जितना कोई और, तथा ऐसा करने की प्रक्रिया उतनी ही लोकतांत्रिक हो सकती है जितना कि एक सघन लोकतंत्र, बल्कि यूं कहें कि ऐसे राज्य में जनता की हिस्सेदारी ज्यादा होती है क्योंकि नीतियों और प्रस्तावों पर व्यापक स्तर पर पारदर्शी व तार्किक तरीकों से बहस की जा सकती है। सभी चुनावों की तरह ही इस बार के चुनावों की भी त्रासदी यह रही है कि इसमें सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तथा अन्य अपारदर्शी किस्म के पहलू ही छाए रहे। ये पहलू विचारधारा, कार्यक्रम और नीतियों पर बहस को नामुमकिन बनाते हैं। इस बार जो मसीहा जीत कर सामने आया है, वह एक साथ तमाम लोगों के लिए तमाम चीज़ों का पर्याय था- मसलन, कई उसके कट्टर हिंदू व्यक्तित्व को लेकर आश्वस्त थे, दूसरे कुछ लोग उसकी दबंग शख्सियत को लेकर खुश थे और कुछ अन्य लोग वृद्धि, रोज़गारों व राष्ट्रीय गौरव पर उसके चमत्कारिक वादों के कायल थे। उसके वादों और नीतियों की पड़ताल करने की कोई ज़रूरत समझी ही नहीं गई। वे ही कारक जो एक सघन लोकतंत्र को बरबाद किए दे सकते हैं, संवैधानिक व प्रातिनिधिक उदार लोकतंत्र को भी संक्रमित करने की क्षमता रखते हैं, सिवाय इसके कि लंबी दौड़ में एक संवैधानिक व प्रातिनिधिक उदार लोकतंत्र ही इन परिस्थितियों से निपटने में बेहतर सक्षम होता है।
तीसरा बड़ा सबक बुर्जुआ राज्यतंत्र के कार्यक्रमों और नीतियों के संदर्भ में हमारे अप्रोच से जुड़ा है। इसे समाजवाद लाने के रणनीतिक उद्देश्य के साथ दिग्भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि समाजवाद का उद्देश्य तो एक बुर्जुआ राज्य की जगह समाजवादी राज्य लाकर ही हासिल किया जा सकता है। बहरहाल, मौजूदा राज्य के कार्यक्रमों व नीतियों के इर्द-गिर्द संघर्ष बहुत निर्णायक महत्व का मसला है क्योंकि वह वर्तमान में तो लोगों की जिंदगियों पर असर डालता ही है, साथ ही समाजवाद के लिए संघर्ष की राह में भी रोड़े अटकाता है।
भारतीय पूंजीवाद फिलहाल बहुत भूखा है। यहां पूंजी एक ऐसे भूखे जानवर की तरह है जिसकी निगाह एक शिकार पर है जिसे एक छलांग में वह पकड़ लेना चाहता है। ऐसे चरण में पूंजीवादी वृद्धि दो अहम कारकों के चलते तीव्र होती है- एक, प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सस्ता श्रम और दूसरे, यह तथ्य कि अधिकतर कुदरती संसाधन जैसे जंगल, खदान तथा समूची अर्थव्यवस्था में व्याप्त छोटी-छोटी परिसंपत्तियां जैसे कि छोटे किसानों की काश्त आदि को अब भी पूंजी में तब्दील किया जाना बाकी है। सस्ता श्रम तो हमेशा ही तगड़े मुनाफे के लिए अनुकूल होता है लेकिन संसाधनों और परिसंपत्तियों को कौडि़यों के दाम में कब्ज़ा लेना असल मसला है। यही गुंजाइश पूंजी के पिशाच को जबरदस्त भूखा और अधीर बनाती है। पूंजी हमेशा ही बुर्जुआ चुनावों में बड़ी भूमिका निभाती है, लेकिन इस बार पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा आक्रामकता से अपनी यह भूमिका निभाने के लिए उसके पास मौजूद वजह कहीं ज्यादा बड़ी है।
इस लूट का प्रतिरोध करने का सबसे असरकारी तरीका- यदि यह प्रतिरोध बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरों में किया जाना है तो- दो चीज़ों के लिए लड़ना होगा। पहला, हम एक ऐसे कल्याणकारी राज्य के लिए संघर्ष करें जो उच्च आय और मुनाफे पर कर अभिवृद्धि से पर्याप्त राजस्व एकत्रित करे तथा हर नागरिक के लिए भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य, शिक्षा, नागरिक सेवाओं व अन्य बुनियादी जरूरतों व सेवाओं की संपूर्ण जिम्मेदारी ले। दूसरी लड़ाई एक ऐसे कानूनी ढांचे के लिए होनी चाहिए जो कुदरती संसाधनों के पूंजीकरण और छोटे काश्तकारों के वंचितीकरण को इस शर्त पर रोके कि लगाए जाने वाले उद्यम में पहले राज्य और फिर काश्तकार को स्थायी शेयरधारक बनाया जाए। यह कदम परिसंपत्तियों और संसाधनों के अधिग्रहण के बाद वाले बाजार मूल्य व मौजूदा मूल्य के सम्मिश्रण के आधार पर एक उपयुक्त व परस्पर समझाइश से तय मौद्रिक मुआवजे भुगतान के बाद और अलग से उठाया जाए।
इस किस्म का प्रतिरोध खड़ा करने के लिए वाम सर्वाधिक स्वाभाविक ताकत है लेकिन वह बहुत बुरी तरह विफल हुआ है। इसका दोष पूरी तरह नव-उदारवाद के वैश्विक वर्चस्व को नहीं दिया जा सकता जिसके तहत कल्याणकारी राज्य और पूंजी नियमन को अप्रासंगिक माना जाता है। आपको दी हुई परिस्थितियों में ही संघर्ष करना होता है और ऐसा करने का सबसे कारगर तरीका यह होता है कि खुद को खालिस तथ्यों व वाजिब मांगों की ज़मीन खड़ा रखा जाए, भले ही इन्हें मौजूदा सत्ता तंत्र में अप्रासंगिक करार दिया गया हो। तथ्यों की जहां तक बात है, तो वे इतने प्रत्यक्ष उजागर थे कि जब कांग्रेस पार्टी के समक्ष उसके विरोधी का नव-उदारवादी व दक्षिणपंथी पक्ष नग्न रूप में सामने आया, तो उसने खुद को कल्याण केंद्रित और अधिकार केंद्रित वाम रुझान वाले पक्ष की ओर ही खड़ा करने का प्रयास किया। इसकी भी बुरे तरीके से हार हुई तो यह अलग बात है और इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन उसके पक्ष में जो तथ्य थे वे उसकी हार के लिए दोषी नहीं हैं।वाम के साथ एक दिक्कततलब पहलू रूढि़यों और लोकप्रियतावाद के साथ उसका दोहरा प्रेम है। रूढि़यां उसके लिए आंख पर बंधी पट्टी के जैसी हैं जो सारी दृष्टि को बीत चुकी बीसवीं सदी के आरंभिक व मध्य काल पर केंद्रित रखती हैं। ऐसा लगता है कि औपनिवेशिक दौर का साम्राज्यवाद और उसकी प्रतिक्रिया में उपजा राष्ट्रवाद वामपंथ के खून में मिल चुका है। इसके चलते वह भारतीय व वैश्विक पूंजी के खिलाफ कोई भी रणनीति बना पाने में खुद को असमर्थ पाता है। संसदीय राजनीति के दायरे में भी इसके चलते वाम कुछ मूर्खतापूर्ण कदम उठाते रहता है। अमेरिका के साथ परमाणु सौदे के मसले पर यूपीए-1 से अपना रिश्ता तोड़ लेने की कीमत अकेले संसदीय वाम ही नहीं चुका रहा है। अगर इतनी सी गलती नहीं की गई होती, तो 16 मई को हमें जो झटका लगा था, उसकी जगह समूचा राजनीतिक परिदृश्य ही कुछ और होता।
यह रूढि़वाद समाजवादी भविष्य का एक ऐसा खाका पेश करने से भी वाम को रोकता है जो कि न सिर्फ समता और न्याय के मानकों पर पूंजीवादी वर्तमान का स्थान ले सकता था बल्कि उत्पादकता, रचनात्मकता, समृद्धि व स्वतंत्रता के मानकों को भी परिदृश्य में ले आता। वामपंथ के तमाम बड़े सिद्धांतकारों की ”भविष्य के समाजवाद” या ”इक्कीसवीं सदी के समाजवाद” पर बड़ी-बड़ी बातों और चमकदार लेखों के बावजूद वे इस नज़रिये की जकड़ से खुद को मुक्त नहीं कर सके हैं जो बीसवीं सदी के समाजवाद को ही समाजवाद का प्रामाणिक मॉडल मानता रहा है। समाजवाद को व्यावहारिक और श्रेष्ठ मॉडल के रूप में पेश करने की विफलता का समूचे वामपंथ पर राजनीतिक रूप से जबरदस्त नकारात्मक परिणाम हुआ है।
दूसरी ओर, लोकप्रियतावाद का चस्का इसे विचारधारात्मक व राजनीतिक साहस से पूरी तरह महरूम करता है। यहां तक कि उदार बुर्जुआ का सामाजिक रूप से तरक्कीपसंद तबका भी जनता को वास्तविक रूप में मौजूद लोकप्रिय चेतना तथा युग की ऐतिहासिक चेतना के बीच फ़र्क को कम करने की दिशा में प्रवृत्त करने के लिए कहीं ज्यादा साहस का परिचय देता है। वाम पक्ष में हमें मशहूर सिद्धांतकार और विद्वान ज़रूर मिल जाते हैं जो अब भी राष्ट्रवाद व गांधीवादी सामुदायिक भावनाओं के उस दौर को याद करते हुए आह भरते हैं जब कम्युनिस्ट पार्टी किसानों के साथ बहुत करीब से जुड़ी होती थी। ऐसी प्रवृत्ति वाम की विफलता का सारा दोष जनता से उसके दूर होते जाने पर मढ़ देती है। यह दावा कोई नहीं कर सकता कि जनता से कट जाना एक गंभीर समस्या नहीं है, लेकिन यदि आप इसे ही इकलौती समस्या मानकर दोबारा इस रिश्ते को बहाल करने के कदमों की इकलौती पैरोकारी करना शुरू कर दें, तो आप वाम के समक्ष मौजूद चुनौतियों को संपूर्णता में पकड़ पाने के लिए खुद को तैयार नहीं कर सकेंगे।
राज्य के कार्यक्रमों और नीतियों के सबक की अहमियत अकेले वामपंथ के लिए नहीं है। कल्याणकारी राज्य और पूंजी नियमन के पक्ष में एक समग्र व सुनियोजित संघर्ष को कहीं ज्यादा किनारे लगाने का काम हाल के दिनों में भ्रष्टाचार विरोधी लोकप्रिय आंदोलन ने किया है, जिसकी परिणति आम आदमी पार्टी नाम की परिघटना के रूप में हुई है। मसीहाई नेताओं के नेतृत्व में चले इन लोकरंजक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने अपनी रैडिकल भंगिमा और लोकप्रिय अपील के बावजूद, रूढि़वादियों और दक्षिणपंथ की मदद की है। यह दावा हालांकि अभी पूरी तरह साबित नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके संकेत फिलहाल अवश्य मौजूद हैं। आम आदमी पार्टी ने जो नया चुनावी गणित रचा है, 16 मई को लगे झटके का दोष उसे दिया जाना तो बहुत सटीक नहीं होगा। लेकिन संघ परिवार की प्रच्छन्न मदद से पहले तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने और बाद में सामाजिक आंदोलनों के कार्यकर्ताओं व नेताओं, लोहियावादी समाजवादियों के एक तबके, कई वामपंथियों व उग्रपंथियों तथा बड़ी संख्या में राजनीतिक रूप से अजागरूक आदर्शवादी नागरिकों की भागीदारी से आम आदमी पार्टी ने देश में जो राजनीतिक माहौल तैयार किया, निश्चित तौर पर 16 मई को आए परिणामों के लिए उसे ज़रूर दोष जाता है।
यहां से हम अपने आखिरी सबक की ओर बढ़ सकते हैं जो कि वास्तव में कोई सबक नहीं है और इसका संबंध अकेले भारत के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम से नहीं है। यह कहीं ज्यादा एक सवाल की शक्ल में है जिसे कहीं ज्यादा व्यापक वैश्विक परिघटना के संदर्भ में उठाए जाने की आवश्यकता है। यह परिघटना अचानक और खुद से उभरने वाले उन जनांदोलनों की है जिन्हें बहुत संगठित नहीं किया जाता। इनमें से कुछ आंदोलन आर्थिक व राजनीतिक मसलों पर केंद्रित हैं तो दूसरे सामाजिक मुद्दों पर जबकि कुछ अन्य ऐसे आंदोलन हैं जो आधुनिकता से रेखांकित एक समूची जीवन शैली पर सवाल उठाते हुए सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यवस्थागत आयामों पर एक साथ बात करते हैं। ऐसे आंदोलन उन वामपंथियों की पसंद हैं जिनकी कोई सांगठनिक संबद्धता नहीं है। इन्हें कुछ अन्य बहुरूपी परिवर्तनवादी, शांति कार्यकर्ता, पर्यावरणवादी, एनजीओ और विभिन्न किस्म के सामाजिक कार्यकर्ता पसंद करते हैं। इनको सराहने व इनकी सैद्धांतिकी को गढ़ने का काम उत्तर-संरचनावादी, उत्तर-आधुनिकतावादी, उत्तर-मार्क्सवादी, उत्तर-उपनिवेशवादी और इसी किस्म के विद्वान व बौद्धिक करते हैं।
इस परिघटना के लिहाज़ से साठ के दशक के अंतिम वर्ष एक निर्णायक मोड़ की तरह थे। अमेरिका में नस्लवाद विरोधी नागरिक अधिकार आंदोलन, वियतनाम पर अमेरिकी हमले के खिलाफ जंग विरोधी आंदोलन, यूरोप और दुनिया के कई हिस्सों में हुए छात्र आंदोलन, पश्चिम के अधिकतर हिस्से में उभरे नारीवादी आंदोलन, सोवियत रूस में बुद्धिजीवियों का भूमिगत रहकर चलाया जाने वाला समीज़्दत (स्व-प्रकाशन) आंदोलन जिसे पश्चिम के कोल्ड वॉर राइट व अधिनायकत्व विरोधी न्यू लेफ्ट का समर्थन एक साथ हासिल था, तथा चीन में हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के नेतृत्व में दुनिया भर में उग्र परिवर्तवाद का प्रसार- इन सब ने मिलकर ऐसे महान आंदोलनों के एक युग का सूत्रपात किया जो कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में हुई मजदूर वर्ग की क्रांतियों समेत कम्युनिस्टों व राष्ट्रवादियों द्वारा खड़े किए गए उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों से बिल्कुल ही भिन्न थे। इन आंदोलनों के तमाम चेहरों के बीच आप सार्त्र और मार्कुस जैसे उत्कृष्ट बुद्धिजीवियों को भी पाएंगे जिन्होंने इन आंदोलनों को प्रेरित किया, इनमें हिस्सा लिया और इनकी सैद्धांतिकी को गढ़ने का भी काम किया।
इन आंदोलनों का कुल प्रभाव बड़ा असंगत रहा है। कुछ को जबरदस्त कामयाबी मिली जिसने मानवता के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-विचारधारात्मक परिदृश्य को ही बदल डाला। कुछ अन्य आंदोलन उस वक्त के मुद्दों व संकटों पर एक तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए थे और दुनिया जैसे ही आगे बढ़ी, वे धीरे-धीरे दरकिनार हो गए। यहां इन आंदोलनों के इतिहास की कोई समीक्षा करने का मेरा उद्देश्य नहीं है, जो कि वैसे भी मेरी क्षमता से बाहर की बात है। मेरा आशय यह है कि इस परिघटना के बारे में व्याप्त नज़रियों की एक बार फिर से पड़ताल किए जाने की ज़रूरत है।
अकसर यह दावा किया जाता है कि कसे हुए ढांचे वाली पार्टियों द्वारा व्यवस्थित तरीके से संगठित राजनीतिक आंदोलन खड़ा किया जाना बीते दिनों की बात हो चली है। कहा जाता है कि इनका दौर खत्म हो गया और इनकी जगह अब स्वत:स्फूर्त और ढीले-ढाले तौर से संगठित सामाजिक आंदोलनों ने ले ली है। दरअसल, इसी नज़रिये की पड़ताल किए जाने की बुनियादी जरूरत है। जिन्हें नए सामाजिक आंदोलन कहा जा रहा है, वे अब उतने नए भी नहीं रहे। इनका इतिहास आधी सदी का हो चला है। इनके ट्रैक रिकॉर्ड को खंगालने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। हाल के दिनों में हमने वर्ल्ड सोशल फोरम और ऑक्युपाइ मूवमेंट जैसे संक्षिप्त किस्म के उभार देखे हैं। इनका प्रभाव बेहद सीमित है और भविष्य अस्पष्ट। यहां तक कि तहरीर चौक और सामान्य तौर पर अरब स्प्रिंग, जो कि सामाजिक आंदोलनों के क्लासिकल उदाहरणों के मुकाबले कहीं ज्यादा राजनीतिक प्रकृति के रहे, उनके परिणाम भी ज्यादा से ज्यादा अटपटे कहे जा सकते हैं। ऐसे आंदोलनों के पैरोकार और सिद्धांतकार आखिर कब तक वामपंथियों की विफलता व वर्ग आधारित राजनीतिक आंदोलनों के अभाव की ओर उंगली उठाकर अपने पक्ष में साबित करते रहेंगे कि दुनिया को बदलने के लिए सामाजिक आंदोलनों के अलावा और कोई विकल्प मौजूद नहीं है?
वामपंथ ने सामाजिक आंदोलनों के महत्व की उपेक्षा नहीं की है, न ही यह इसलिए विफल हुआ है कि इसने उनकी नकल करने से इनकार कर दिया है। वाम इसलिए विफल हुआ क्योंकि पूंजीवाद और उसके राजनीतिक ढांचे बुर्जुआ लोकतंत्र को चुनौती देने के लिए वह कोई भव्य रणनीति नहीं बना पाया है। वाम को पता है कि सामंतवाद, उपनिवेशवाद, राजशाही और सैन्य तानाशाही से कैसे लड़ा जाता है, लेकिन ये सारे दुश्मन मोटे तौर पर दरअसल बीते ज़माने की बात हो गए हैं। वाम इसलिए विफल हुआ है क्योंकि उसके पास अपने मौजूदा दुश्मन के खिलाफ़ कोई रणनीति नहीं है। इस भारी कमी को दुरुस्त करने पर उसे अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
(अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव)